हिमालय दर्शन

॥ श्री ॥

अमरनाथ यात्रा सह  जम्मू-कश्मीर लेह लदाख हिमाचल प्रदेश यात्रा का प्रवास लेख एवं सचित्र माहितीसह वर्णन

विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे जले चानले पवते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि गतिस्तवं गतिस्तवं त्वेमेका भवानि॥

तीर्थयात्रा 
मानव जीवन विकास की प्रक्रिया है. जीवन जीना याने विकास करना. जीवन विकास के अनेक साधन है, माध्यम है. इनमेसे एक साधन है तीर्थयात्रा. जीवन विकासके लिए सतत गतिशीलता चाहिए. गति याने केवल दौडभाग नहीं परन्तु गति याने प्रगति,  विकास. हमारे दैनिक जीवनकी गतानुगतिकता से आई निरसताको दूर कर तीर्थयात्रा जीवनमें नई उर्जा और चैतन्य भरकर जीवनको प्रगतिशील बनाती है. हमारी सनातन वैदिक संस्कृतिमें तीर्थयात्राका महत्वपूर्ण स्थान है. भारतीय साधनामें तीर्थयात्राको भी एक साधना माना गया है.

कोईभी पवित्र पावन स्थान तीर्थक्षेत्र कहलाता है. अवतारोंकी लीलाभूमि (अयोध्या, वृन्दावन, नवद्वीप), महापुरुषों के जन्मस्थान (लुम्बिनी, पोरबंदर, आपेगांव) महापुरुषोंके समाधिस्थल (आणंदी, अंजार, पोंडेचरी), पवित्र पर्वत (कैलास, गिरनार, शत्रुंजय संपूर्ण हिमालय), पवित्र नदियाँ (गंगा, यमुना, नर्मदा, सरयू), पवित्र सरोवर (मानसरोवर, पुष्कर, नारायण सरोवर, पंपासरोवर), संगमस्थान (प्रयागराज, देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, विष्णुप्रयाग), पवित्र मंदिर, द्वादस ज्योतिर्लिंग यह सारे अलग अलग स्वरूपके तीर्थक्षेत्र है. किसी विशेष संयोगवश कोई स्थान विशेष पावित्र्य धारण कर तीर्थक्षेत्र बन जाता है. तीर्थयात्रा एवं पिकनीकमें मुलभुत अंतर है. पौराणिक देवी देवताओंके पुरातन मंदिर या ऋषि मुनियोंकि तपश्चर्यासे पावन बनी भूमिके दर्शन, उस भूमिकी मिटटी, जलका तीर्थ (सर पर चढ़ाना) लेना, वहांके पवित्र जलमे डूबकी लगाकर स्नान करना, ऐसे विशिष्ट मनोभावपुर्वक व्यक्ति तीर्थमे जाता है, यह तीर्थयात्रा है. और ध्येयहींन, भावहीन भोगविलास और मनोरंजनार्थ की हुई कोई भी यात्रा पिकनिक या पर्यटन है. चारधाम यात्रा हो या शिमला-मनाली जैसे गिरिमथक का सौन्दर्य दर्शन हो. एक ही क्षेत्र किसीके लिए तीर्थयात्रा बन सकता है या किसीके लिए वह पिकनिक बन जाता है. यात्रा स्थलमें किस उदेश्य और भावसे यात्रा करते है यह आंतरिक भाव महत्वपूर्ण है. तीर्थयात्राके भावसे शिमला-मनाली जैसे गिरिमथक का सौन्दर्य दर्शन भी पिकनिक का पुर्ण आनंद के साथ पुण्य दिलाता है. लेकिन केवल पिकनिक भावसे की हुई चारधामकी यात्रा भी न पुण्य दिला सकती. और नही वहां की पवित्रता के सूक्ष्म आन्दोलन की अनुभूति मिलती है.
 
अब हमारे समक्ष प्रश्न आता है की तीर्थयात्रा क्यों करनी चाहिए ? एवम् तीर्थयात्रा एवं पिकनीकमें मुलभुत अंतर क्या है ?

प्रत्येक स्थानको अपना सूक्ष्मवातावरण रहता है, आंदोलन रहता है. सब्जीमंडी, मंदिर, मदिरालय, थिएटरके सूक्ष्म वातावरण, आंदोलनमें फर्क है. और व्यक्ति जिस वातावरणमें जाय, वहां रहे, वहांकी असर व्यक्ति पर होती ही है. तिर्थोके प्रशांत, पवित्र एवं दैवी वातावरणके सूक्ष्म आंदोलन (Vibration) लेनेके लिए जाना यह तीर्थयात्राका प्रथम उदेश्य है.

तीर्थक्षेत्रके मंदिरोंमें देवदर्शनके लिए जाना, गंगा, यमुना, नर्मदा आदि पवित्र नदियोंमें डूबकी लगाकर स्नान करना, कैलास, गोवर्धन, गिरनारकी परिक्रमा करना-निवास करना यह केवल भौतिक क्रिया या बहिरंग क्रिया ही नहीं है, यह बहिरंग क्रियाके साथ साथ व्यक्ति की चेतनामे कुछ कुछ सूक्ष्म घटना गुप्त रूपसे घटती है. जिसका आंतरिक प्रभाव उसके मन बुध्धि के माध्यमसे व्यक्तिके जीवनमे पड़ता है. तीर्थयात्रा एक पुण्यकार्य है और पुण्यकार्य व्यर्थ नहीं जाता जन्मजन्मांतर तक उसका प्रभाव जीवनमे रहता है. प्रत्यक्ष प्रमाण भलेही न दिखे. वैसे भी आंखोसे दिखने वाला सभी सत्य नही होता और नहीं दीखता वह सब गलत भी नहीं होता, माँ की ममता आंखोसे कहाँ दिखाई देती? यह महशुस करनेकी बात है. आंखोकी द्रष्टि मर्यादित है.

तीर्थयात्रा एक प्रायश्चित विद्धि है. दुष्कर्मोके परिणामसे मुक्तिका साधन है. तीर्थयात्रा एक तपश्चर्या है, एक अनुष्ठान है, जिससे मनका शुद्धिकरण होकर द्रष्टिकोण व्यापक बनाती है, व्यक्ति उदार बनता है. तीर्थयात्रा से अध्यात्म पथके पथिकको प्रेरणाका अमूल्य खजाना मिलता है. जिससे उसकी अध्यात्मा यात्रा सुगम सहज बनती है.
देवतात्मा – नगाधिराज हिमालय:
देवतात्मा – नगाधिराज हिमालय:
हिमालय याने हिमालय. भारत का मुकुट-मणि. उर्जा-चैतन्यका अतूट भंडार. भव्यातिभव्य पर्वतराज हिमालय को व्यक्त करने का सामर्थ्य हमें कहाँ से लाना? भगवद्गीतामें अपनी विभूति कहकर भगवान द्वारा विभूषित “स्थावराणां हिमालय:” यह हिंदू संस्कृतिका अभिन्न अविभाज्य अंग है. भागीरथी गंगा एवं हिमालय हमारे आन,बान,शान है. हिमालय यह केवल पर्वत विशेष नहीं है. यह तो तपोभूमि है. देवभूमि है. आध्यात्मिक साधनाका उर्जास्त्रोत है, चेतना का चालक बल है. हमारी सरहदोंकी निरंतर रक्षा करने वाला मूक प्रहरी है. युगों से आसन जमाकर साधना-तप में लीन वह तो स्वयं एक योगिराज है. हिमालयका दर्शन मन को तरबतर करता है, हर्दय को आकर्षित करता है. इसलिए तो एक बार जिसकी गोदमे कोई खेला हो, बार बार जाने की उत्कंठा उसके मन में जागती रहती है. उसकी मोहिनी ही ऐसी है.

साहित्यकार-प्रवासी ‘काकासाहेब कालेलकर’ ने अपने ‘हिमालय प्रवास’ में लिखा है की ‘हिमालय – आर्योका आध्यस्थान, तपस्वियोंकी यह तपोभूमि, पुरुषार्थीओ को चिंतन करनेका एकांत स्थान, थके हारो का विश्राम स्थान, निराश हुए को सांत्वन, धर्म का पियर, मुमूषुओ की अंतिम दिशा, साधकों का ननिहाल, महादेवका धाम, और अवधूत का बिछाना है. मानव तो क्या, पशुपक्षिओ को भी हिमालय का अपूर्व आधार है. सागर को मिलने वाली अनेक नदियों का यह पिता है. वही सागर से बननेवाले बादलो का तीर्थस्थान है. यह भूलोक का स्वर्ग, यक्षकिन्नरोंका निवास स्थान है. जगत के सर्व दुखोको अपने में समा ले इतना विशाल है. सर्व चिंताग्नि को बुजा शके इतना ठंडा है; कुबेर को भी आश्रय दे सके इतना धनाढ्य है.और मोक्ष की सीढ़ी बन शके इतना ऊँचा है. अरे इस हिमालायने क्या क्या नही देखा है? पृथ्वी पर के असंख्य धरतिकंप, आकाशमे के हजारो धूमकेतु, उल्कापातो का अनिमेष साक्षी है. महादेव की शादी इसने ही की है. सतिके विहार और कुमारसंभव का अपत्य वात्सल्य का कौतुक हिमालय ने ही किया है. रघुकुल की भगीरथ की अनेक पीढीयों की कठिन तपस्या का यह साक्षी है. पांडवों की महायात्रा इसने ही सफल बनाई है.’

केवल पुरानी बाते ही क्यों? आजादी की लड़त में शिकस्त मिलने पर हताश और निराश हुए विरोंको हिमालय का ही आश्रय मिला था. आजादी के बाद चीन पाकिस्तान कारगिल युद्ध में दुश्मनों को परास्त कर भारत माता की रक्षा करने में भी हिमालय की चट्टानी भूमिका रही है. भूस्तरशास्त्रकी द्रष्टि से देखना हो, प्राणीशास्त्रकी द्रष्टि से विचारना हो, ऐतिहासिक द्रष्टि से खोजना हो, भव्यताका दर्शन करना हो, धर्मतत्वों को उकेलना हो तो हिमालय में ही इसका समाधान मिलेंगा; क्यूंकि ‘आर्यावर्त’के एक एक युग मन्वंतर के पुरुषार्थ का हिमालय साक्षी है. द्रष्टा है.

हिंदू  संस्कृति की ग्रंथ रचना हिमालयकी गोद में ही हुई है. भगवान वेदव्यासने अपना ग्रंथ सागर हिमालयकी गोदमे बैठकर ही रचा है. श्रीमद आध्य शंकराचार्यने विश्वविख्यात प्रस्थानत्रयी हिमालय में ही लिखी थी. स्वामी विवेकानंद एवं स्वामी रामतीर्थ ने सनातन धर्म के तत्व आधुनिक युगमे कैसे समजाकर लागु करवाना इसका विचार हिमालय की गोदमे बैठकर ही किया था. गांधीजी ने अपना गीता अनुवाद – अनाशक्तियोग भी हिमालय में बैठकर पूरा किया था. कवीकुलगुरु  कालिदासने ‘देवतात्मा नगाधिराज’ हिमालय पृथ्वी का मानदंड कहा है यह अनेक अर्थो में यथार्थ है.

केवल भारत ही नहीं विश्वभर के मानव को हिमालय का अजब आकर्षण रहा है. विश्वभर के संत-महात्माओं, सिद्धो, अभ्यासू, संशोधको, प्रवासियो, यात्रिओ, पर्वतारोही, कलाकारों, प्रकृतिप्रेमिओ  वगेरे प्रबल आकर्षण से खिंचकर हिमालयमे आते है. उसका साद ही ऐसा है, जिसे सुनकर दूर-सुदूर से सुननेवाले दौड़े दौड़े चले आते है.

हिमालय याने शिवालय 
हिमालय के साथ शिवजी की महिमा अतूट रूप से जुडी हुई है. हिमालय याने शिवालय. यहाँ जगह जगह पर शिवजी के चरणकमल, मंदिर स्थानक है. शिव, शंकर, महादेव, चंद्रशेखर, विषधर, गंगाधर, भोलेनाथ, शंभूनाथ, आशुतोष अनेक नाम है. यह कल्याण-मंगल-संहार के देव है. सर्जन, संवर्धन, और संहार – निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. ब्रह्मा, विष्णु, महेश यह त्रिदेव की लीला याने पृथ्वी की उत्पति, स्थिति और लय. महाभारत में स्वर्गारोहणपर्व की कथा है. हिमालय-कैलाश यही स्वर्गारोहणका मुकाम है. आज भी मृत्यु को ‘स्वर्गवास-कैलाशवास’ कहा जाता है. वैष्णोदेवी, हरिद्वार, रुषिकेश, अमरनाथ, चारधाम, कैलास मानसरोवर, मुक्तिनाथ, सतोपंथ, स्वर्गारोहिणी जैसे छोटे बड़े सेंकडो तीर्थक्षेत्र, एवं संतो महात्माओंकी तपोभूमि वाले हिमालय पर्वत को पृथ्वीतलका बगीचा कहा गया है सारे विश्वके सौन्दर्य पिपाशु अपनी सौन्दर्य लालसाका पान करने हेतु देश विदेशोसे हिमालयमे उमड़ पड़ते है. व्यक्तिकी द्रष्टि विधायक होतो इस सौन्दर्यके पीछे भी भगवद स्पर्श की अनुभूति पाकर इन सौन्दर्यधामों की पिकनीक कर तीर्थयात्राका पुण्य कमा सकते है. तिर्थयात्रामें पिकनीक का आनंद जरुर है. लेकिन केवल पिकनीकके भावसे किसी बड़े तीर्थक्षेत्रकी यात्रा भी पुण्य नहीं दिला सकती. हम यात्रा किस द्रष्टिकोणसे कर रहे है यह महत्वपूर्ण है.

हिमालय तो अपने आपमें संपूर्ण तीर्थक्षेत्र है. हिमालयकी २४०० km लम्बाई एवं ३०० km चोडाई है. यह केवल एक-दो महिनोमे देख सके घूम सके इतना छोटा नहीं है. अरे ! जीवनभर घुमेतो भी पार नही आवे ऐसा अगाध हिमलोक है. इसलिए कोई ऐसा नहीं कह सकता की मैंने हिमालयमे सब कुछ देख लिया, घूम लिया. हिमालय भौगोलिक रूप से
  1. भारत,
  2. नेपाल,
  3. भुतान,
  4. तिबेट,
  5. पाकिस्तान,
  6. रशिया, 
  7. अफगानिस्तान आदि सात राष्ट्रों में फैला हुआ है. 
भारतीय हिमालय भी नव राज्यमे फैला हुआ है
  1. जम्मू एवं कश्मीर, 
  2. लेह लदाख
  3. हिमाचलप्रदेश, 
  4. उत्तराखंड, 
  5. उत्तरप्रदेश, 
  6. सिक्किम, 
  7. पश्चिमबंगाल, 
  8. आसाम, 
  9. अरुणाचलप्रदेश 
पाकृतिक द्रष्टिसे हिमालयको पुरातन कालसे ही सात भागोंमे बाटा गया है. विभागीकरण की यह पध्धति पुरातन है.
काश्मीर (काश्यप खंड)                         
  • हिमाचल प्रदेश (जलंधर खंड)                
  • उत्तराखंड (केदारनाथ और कुमाऊ)        
  • नेपाल (पशुपतिनाथ खंड)
  • तिबेट (मानस खंड)
  • सिक्किम, भुतान एवं दार्जिलिंग
  • अरुणाचल प्रदेश
शदियोसे हिमालय दर्शन भिन्नभिन्न द्रष्टिकोण से किया जाता है.
  • तीर्थयात्रा, 
  • संतसमागम एवं अध्यात्म, 
  • पैदल प्रवास, 
  • साहसिक प्रवास (मोटर सायकल, पर्वतारोहण, रिवर राफ्टिंग आदि),
  • सौन्दर्यदशर्न एवं पिकनीक, 
  • इतिहास, भूगोल सांस्कृतिक आदि तत्वोका अभ्यास, जिज्ञासा वगेरे.
पंचायतन मूर्तिपूजामें मंदिरके केंद्र्स्थानमें मुख्य आराध्य देवी देवता की मूर्ति रहती है आजू बाजु अन्य देवी देवताओकी मूर्तिभी पूजी जाती है. परन्तु मुख्य आराध्य देव के नाम से ही मंदिर पहचाना जाता है. ठीक इसी तरह तिर्थयात्रामे किसी एक मुख्य तिर्थका नाम देकर तीर्थयात्रा का आयोजन होता है बाकि इन सबके बिच आने वाले अन्य तीर्थक्षेत्र, बाग बगीचे, गिरिमथक, सौन्दर्यधाम, नदी, पर्वत सभी तीर्थ ही है. निसर्गकी इन रचनाओ के पीछे रचयिता को पूज्य भाव से देखो तो ‘जगदीश’ की समस्त रचना तीर्थ ही है.
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हमारी हिमालय दर्शन यात्रा :
पिछले कई समय से हम हिमालय दर्शन का मन बना रहे थे. इस यात्रा का प्रेरक बल हमें गुजराती लेखक ‘भाणदेव’ के पुस्तक “हिमालय दर्शन” पढ़कर मिला. पुस्तक पढकर हिमालय यात्रा की तीव्रतम इच्छा जागृत हुई, शरुआतमें व्यक्तिगत मैंने एवं हमारे बुजूर्ग साथी वालजीभाई दिवाणीने हिमालय दर्शन का मन बनाया, हम दोनोने अभी तक हिमालय क्षेत्र की कोई विशेष यात्रा नहीं की थी, केवल वैष्णोदेवी, हरिद्वार, रुषिकेष एवं मसूरी जैसी छुटपुट यात्रा की थी. इस यात्राका मूर्तस्वरूप देने हेतु हमने श्रीक्षेत्र अमरनाथकी तीर्थयात्राको केन्द्र्मे रखकर काश्मीर, लेह लदाख और हिमाचलप्रदेश की यात्रा साथमे करनेका भी मन बनाया. यात्रा का मानशिक आयोजन जनवरी २०१५ से शरू हो चूका था, हम हमारा मनोगत अन्य साथीयोंको व्यक्त करते रहे जिसमे हमें गोविंद भगत और इश्वर पोकर का साथ मिला. हम दो से चार हुए हम सोच रहेथे की और एकाद साथी मिल जायतो हिमालय यात्रा टेक्षीसे करने में सुविधाजनक रहे. हमारी प्रस्ताविक यात्रा काश्मीर, लदाख और हिमाचल के ऊँचे और दुर्गम विस्तारके रास्ते एवं विपरीत हवामान वाले क्षेत्र में करना थी, इसलिए पहले केवल पुरुषोने ही यात्रा करनेका मन बनाया था.

हमारी अमरनाथकी तीर्थयात्रा हेतु पहले यात्रा कर चुके मनोज पारसिया, बाबूलाल सांखला, तुलशी भावाणी और जीवराजभाई रामाणीका मानसिक समर्थन मिलता रहा. इस बिच शिवदासभाई छाभैया ने भी साथ चलनेका मन बनाया. मार्च २०१५ में नागपुर स्थित माँ उमिया मंदिर प्राणप्रतिष्ठा महोत्सव की तैयारी हेतु नवनिर्मित मंदिरमें जाना हुआ, वहां शिवदास छाभैया ने हमारी यात्रा बाबत अपना विचार रखाकी हम पुरुष वर्ग अकेले ही यात्रा क्यों करे ? साथमे हमारी अर्धाग्नी क्यों नहीं ? उनके विचारोके पीछे माताजीकी प्रेरणा एवं शक्ति ही थी की, हमें सोचने पर विवश किया, सबने अपने घरमे इस यात्रा बाबत चर्चा विचारणा की, सबके परिवार से सकारात्मक प्रतिसाद मिले. मै अपनी बात कहूं तो प्रथम जब हमने अकेले यात्रा करनेका मन बनाया था तब मेरी पत्नि माया ने सामने से कहा था की आप यह यात्रा करके आओ, इच्छा तो मेरी भी है लेकिन शारीरिक तकलीफ की वजह से इतनी लंबी और कठिन यात्रा अब मुझसे शक्य नही है, क्योकी “हिमालय दर्शन” पुस्तक उसने भी पढ़ी थी. महिलाओ के साथ यात्रा की बात करने पर वह भी ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गई. हमारे ९३ शाल के वृद्ध माताजी ने हमको यात्रा के लिए सहर्ष अनुमति देकर आशीर्वाद दिए.

महिलाओंने अपनी शारीरिक पीड़ाको नजरअंदाज कर यात्रा के लिए अपनी सहमती दर्शाया, यह देखकर हमारे एक विधुर साथी विश्रामभाई दिवाणी भी तैयार हो गये. इस तरह हम ४ दंपति एवं दो विधुर साथी मिलाकर १० व्यक्तियोंका ग्रुप यात्रा हेतु तैयार हुआ. सबसे पहले यात्रा रजिस्ट्रेशन हेतु मनोज पारसियाने नागपुरसे अमरनाथ क्षेत्रमे लंगरमें सेवाधारी युवान से संपर्क कर, हम सबको स्वास्थ्य जाँचका प्रमाणपत्र लेकर यात्रा रजिस्ट्रेशन करने हेतु पंजाब नेशनल बेंकमें ले गये. वहां बेंक की आवश्यक कार्यवाही कर जब बेंक की महिला अधिकारि ने सबके साक्षात्कार कर सबको अमरनाथ यात्राकी शुभकामनाएं दी तब से मानों हमारी अमरनाथ यात्राकी शुभ शरुआत हो चुकी थी. सबके मन खुशीसे उछलने लगे. हम १० व्यक्तिमे एक दम्पति ५० वर्षका था, बाकि सारे वरिष्ठ नागरिक थी सबसे बुजुर्ग वालजीभाई ७२ वर्षके थे. अमरनाथ यात्रा हेतु ७५ वर्षसे अधिक उम्र वाले को यात्रा परमिट नहीं मिलता. हम वरिष्ठ नागरिक की यह तैयारी देख मनोजभाई एवं उनके ६ अन्य साथीओने भी अपना यात्रा रजिस्ट्रेशन करावा लिया. इस तरह हम १७ व्यक्तियोके ग्रुपका २ जुलाई से शरू हो रही अमरनाथयात्रा में ‘बालताल’ आधार केंपसे दिनांक ४ जुलाई २०१५ का यात्रा परमिट मिल गया. 
   
यात्रा आयोजन एवं अनुभवी पूर्व यात्रियोके मतानुसार अमरनाथ यात्रा पहलगाम-चंदनवाडीसे शरू करनी चाहिए और यात्रा शरुआतके प्राथमिक दिनोमे ही करना उत्तम है. शरुआत में यात्रा करले तो बाबा बर्फानी के पूर्ण शिवलिंग दर्शन, यात्रा व्यवस्था, साफ सफाई आदि सुविधा योग्य रूपसे मिलती है. दर्शन पश्चात वापसी यात्रा भले ही बालतालके रास्ते या पहलगाम रास्ते से पूर्ण करे. रजिस्ट्रेशन के समय हमारे समक्ष ज्यदा विकल्प नही थे. हमारे निर्णय लेने तक पहलगाम-चंदनवाडीसे अगामी तारीखो की बुकिंग हो चुकी थी. बालतालसे कम संख्यामे यात्रा होती है इसलिए हमें यात्राके ३ रे दिन ४ जुलाई का यात्रा परमिट मिला था. 
   
यात्रा रजिस्ट्रेशनकी तारीख सुनिश्चित हो जानेके पश्चात उसे तिथिको केंद्र में रखकर यात्राके आगे पिछेके दिनों में दर्शनीय तीर्थक्षेत्र, गिरिमथक, पर्यटन स्थल, यात्रा रूट में लगने वाला समय इन सब की जानकारी लेकर उसे समायोजित किया. यहाँ से जाने के लिए रेलवे द्वारा नागपुर-अमृतसर और वापसी यात्रा लुधियाणा से नागपुर के लिए रेलवे टिकिट का आरक्षण करवाया. आगे की यात्रा गाड़ी से करने का निश्चय किया. अमृतसर से आगे दर्शनीय स्थल, यात्रा का रूट और लगने वाले समय समायोजन कर होटेल एवं गाड़ी बुकिंग के लिए अलग अलग यात्रा आयोजकों से संपर्क शरू किये. अमरनाथ यात्राके बाद १५ दिनों तक हमे लदाख हिमाचल की दुर्गम यात्रा करना था और हम सभी यात्री शारीरिक एवं मानसिक रूपसे तैयार नही थे. इसलिए हमने पंचतरणी से वापसी यात्रा हेलिकोप्टर द्वारा पहलगाम तक करनेका निर्णय किया. और हमारे समयानुकुल अमरनाथ दर्शन पश्चात् पञ्चतरणी से पहलगाम तक हेलिकोप्टर की अडवांस बुकिंग भी मिल गई. रेलवे बुकिंग एवं हेलिकोप्टर बुकिंग में हमें मुन्नाभाई एवं बलवंत रामाणीका विशेष सहयोग मिला यह बंधू तीर्थ यात्रियोकी टिकिट बुकिंग में अपना कमिशन छोडकर सेवा कार्य करते है.
   
मेरे व्यक्तिगत मतानुसार यदि केवल अमरनाथ यात्रा कर वापस लौटना हो तो, शारीरिक एवं मानसिक रूप से सक्षम यात्री को पञ्चतरणी से पैदल या घोड़े से शेषनाग-महागुनासटॉप-पिस्सुटोपके रास्ते चंदनवाड़ी की यात्रा करनी चाहिए, इस यात्रामें निसर्गका अपना अलग ही आनंद और महत्व है.    
 
हमारी यात्रा हमने व्यक्तिगत एवं पूर्व यात्रिओके अनुभव एवं यात्रा आयोजक से सलाह मशविरा कर २ महीने पहले सुनिश्चित कर लिया था. जिसके अनुशार २६ जून २०१५ को छतीसगढ़ एक्सप्रेस से रात्रि १०.०० बजे नागपुर से अमृतसर रेलवे द्वारा, अमृतसर से टेम्पो ट्रावेलर गाड़ी (१२ सीटर) द्वारा जम्मुके रस्ते उधमपुर - पत्निटोप - श्रीनगर - बालताल (४ जुलाई अमरनाथ यात्रा) पहलगाम - सोनमर्ग - कारगिल - लेह - नुब्रावेली -लेह, पेंगोंगलेक - लेह - सरचू - केलोंग - रोहतांगपास - मनाली -कुल्लू - धर्मशाला - मेकलिओडगंज - लुधियाणा से दिनांक १८ जुलाई २०१५ शाम ७.१५ बजे छतीसगढ़ एक्सप्रेस ट्रेन से वापसी नागपुर २४ दिन का प्रवास सुनिश्चित किया था. यात्रामे अमृतसर से शरूकर वापसी लुधियाणा तक २० दिनका गाड़ी भाडा [रोड टेक्ष, टोल टेक्ष, पार्किंग आदि सभी खर्च समेत (लदाख क्षेत्र में स्थानिक टेक्षी चार्ज भी पैकेज में शामिल किया है)], यात्रामें होटल में रूम मे शेरिंग, भोजन, नास्ता, तिन चार जगह केंप में भोजन (तंबू होटल में रुकना जहाँ बहार खानेका विकल्प नहीं रहता) आदि सुविधाएं निश्चित कर, यात्रा आयोजक कम्पनी से सविस्तार चर्चा विचारणा, मोल भाव कर पैकेज नक्की किया, व्यक्तिगत जानकारी, यात्रा विस्तार के रोड नक्से, इन्टरनेट एवं आधुनिक संचार माध्यमसे यात्रा स्थलकी विस्तृत जानकरी, आजूबाजू के दर्शनीय स्थलकी माहिती संकलित कर यात्राके २ महीने पहले यात्रा का आयोजन कर लिया था.      
 
यात्रा में उपियोगी सामान, कपडे, चीज वस्तु अतिरिक्त्त खानपान, जरूरी दवाइया गर्म कपडे आदि की तैयारी की सूचि अन्यत्र दी गई है.  यात्रा दरम्यान हमारे व्यक्तिगत अनुभवोके आधार पर कहे तो अमरनाथ यात्रा दरम्यान लगनेवाली विशेष चीज वस्तुए पहलगाम एवं बालताल आधार केम्पमे लगने वाली दुकानो से मोलभाव करके खरीदना ही उच्चित रहता है.
 
अमरनाथ एवं लेह लदाख क्षेत्र पाकृतिक रूपसे हिमालयकी दुर्गम पहाडियों वाला प्रदेश है. यहाँकी औसतन ऊंचाई १२,००० फुट से लेकर १८,५०० फुट तक है. इतनी ऊंचाई पर ओक्सीजन वायु का प्रमाण कम होने पर मैदानी विस्तारमें रहने वाले यात्रियोको कुछ तकलीफ हो सकती है. इसलिए जरूरी दवाइयों के अलावा, यात्रा के २ महीने पहले से दैनिक ४-५ km स्पोर्ट्स सूज पहनकर तेज गति से चलनेकी प्रेक्टिस, योगिक प्राणायाम जैसे व्यायाम की आवश्यकता है. यात्रा स्थल, विशेषत: लदाख क्षेत्र के विषयमे जानकारी इकठा कर अभ्यास करना, नया जानने की जिज्ञासा रखना. मेरे व्यक्तिगत मतानुसार कोईभी नया कार्य, या यात्रा के लिए शारीरिक क्षमता से अधिक मानसिक सज्जता एवं साहसिक वृति अधिक उपियोगी और मददगार शाबित होती है. हिमालय की यात्रा एक “जोखमपूर्ण यात्रा” है, ऐसी मानसिक सज्जता से तितिक्षापूर्वक तैयारी कर यात्रा करेंतो, देवात्मा के दर्शन एवं अलोकिक आनंद की अनुभूति अत्यंत सह्जतासे सुलभ बनेगी; अन्यथा मार्गमे आने वाली थकान, ठंडी, भूख और डर जैसी आशंका का सामना करना पड़ेंगा.

हिमालय के यात्राके लिए अनुकूल समय: सामान्यत: हिमालय यात्रा मई  से ओक्टोम्बर तक होती है. परंतु जो ठंडी सहन कर सकते है, साहसिक वृति हो और बर्फका मन भरकर दर्शन करना हो उनके लिए शर्दियोमे कुछेक तीर्थोकी यात्रा संभव है. बद्रीनाथ के रास्ते जोशीमठ तक, केदारनाथ के रास्ते उखीमठ तक गंगोत्री के रस्ते उत्तरकाशी तक शर्दियोमे यात्रा की जा सकती है. पशुपतिनाथ की यात्रा विशेषत: शिवरात्रि पर होती है. काश्मीरमें बर्फ देखने मजा लेने के लिए गुलमर्ग, सोनमर्ग पहलगाम आदि स्थल शर्दियोमे अनुकूल है. परंतु यह तो विशेष संयोग एवं विशेष वयक्तियोकी बात है. सामान्यत: हिमालयकी यात्रा मई से ओक्टोम्बर तक होती है. मई-जून का समय यात्राके लिए अनुकूल है. लेकिन इन दिनों यहाँ भीड़भाड रहती है. जुलाई अगष्ट में बारिश गिरती है. लदाख, मुक्तिनाथ, दामोदर कुंड आदि स्थान पर बारिश कम गिरती है ऐसे स्थानमे जुलाई अगष्ट यात्रा कर सकते है.

दिन पहला – दूसरा २६ - २७/६/२०१५
नागपुर – अमृतसर ट्रेन यात्रा 
सात..छह..पांच..चार..तिन...दो.. एक... और चल पड़ी हमारी रेलगाड़ी !  जिस यात्राका, हम सबको पिछले ढाई महिनेसे इंतजार था..... पहले महीने...., दिन..., घंटे..., और अंत में मिनिट गिन गिन कर हम सब जिस क्षण का इंतजार कर रहे थे, आखिर वह घडी आ ही गई. हमारी उलटी गिनती पूरी हुई.

विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे जले चानले पवते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि गतिस्तवं गतिस्तवं त्वेमेका भवानि॥
प्रभु नाम स्मरण एवं हनुमान चालीसा का परायण कर हमने हमारी तीर्थयात्रा का शुभारंभ किया, रेल्वे स्टेशन पर विदाई हेतु हम सभी यात्रिओ के परिजन आये हुए थे. हमारे परम मित्र जीवराजभाई रामाणी हमें विशेष रूपसे बिदाई देने आये हुए थे, उन्होंने सबको मिठाई खिलाकर हमारी सुखद एवं मंगलमय यात्राकी शुभकामना देकर हम सबको बिदाई दी थी. पिछले एक सप्ताहसे यात्राकी तैयारीयाँ चालू थी. सामानका लिस्ट देख देख कर सूटकेश, सोल्डर बेगमे जमाया जा रहाथा, सूखा नास्ता मिठाइयाँ बन रही थी, रिश्तेदार पास पडोशी यात्रा बाबत सलाह सुचन कर यात्रा की तैयारी करवा रहेथे. खुशीका माहोल बना हुआ था. शादी ब्याह, समारोह या यात्रा के पहलेका माहोल देखते ही बनता है. दौड़ दौड़ कर उत्साहसे तैयारियां हो रही थी. घरसे प्रस्थान के आखरी वक्त तक की तैयारी के पश्चात् भी कुछ ना कुछ छुट ही जाता है.
 
काश ! इतनी तैयारी, उत्शाह एवं उमंग यदि जीवन यात्रा के प्रति हो तो ???  खेर !  
 
गतिमान छतीसगढ़ एक्सप्रेस हमे मानों उर्ध्वलोकमें ले जाने वाले किसी अवकासयान की भांति उपरकी और ले जाती हो ऐसी प्रतीति कराती हुई ले जा रही थी. भोगोलिक रूप से नगाधिराज हिमालय नागपुर से उत्तर दिशामे उत्तरोत्तर उर्ध्वगामी है. हिमालय देवभूमि है. तात्विक द्रष्टि से भी हिमालय यात्रा याने जीवन को उर्ध्वगामी बनानेका अभ्यास, जिव को शिव के समीप जाने का अभ्यास है. जिव को शिव से मिलना होंगा तो अपने स्तर (आंतरिक रूप) से ऊँचा उठाना पड़ेंगा. इसलिए हिमालयकी स्थूल यात्रा में भी जीवन को उर्ध्व्गामित्व बनाने का अभ्यास है. जीवन को प्रगतिशील बनाने का अभ्यास है.

पिछले १०-१२ दिन पहले मध्य रेलवेके महत्वपूर्ण ईटारशी जंक्सन पर रेलवे रूट रिले सिस्टम (रेलवे यातायात का ऑटोमेटिक कम्प्यूटर संचालन होता है). भवन मे भयंकर आग लगने से सारी स्वचलित कम्प्यूटर संचालन प्रणाली जलकर राख हो चुकी थी. इसके कारण ईटारशी जंक्शनसे चारो तरफ की आवाजाही प्रभावित हो गईथी. हालांकि तात्कालिक मानव संचालित व्यवस्था से मुख्य ट्रेन की आवाजाही शरू की गई थी, लेकिन संपूर्ण प्रणालीको पूर्ववत करने मे डेढ़ से दो महीने का समय लगने वाला था. कुछ ट्रेन पूर्णत: रद्द करदी थी कुछ ट्रेने एक दिनके अंतरालमें चलाई जा रही थी. हमारी ट्रेन २६ जून को चलेंगी की नहीं ? आखिर तक यह अनिश्चितता बनी हुई थी. ‘प्रथम ग्रासे मक्षिका....’ वाली हमारी स्थिति बनी हुई थी. लेकिन हमें इस यात्रा का प्रथम भगवद स्पर्शका अनुभव हुआ जब हमने देखाकि २५ एवं २७ जून को रद्द हुई हमारी छतीसगढ़ एक्सप्रेस २६ जूनको अपने समय पर चल रही थी.

हमारे ग्रुपके साथी इश्वरलाल पोकार-दंपति अगले दिन अपनी भतीजीको न्यूदिल्ही छोड़ने हेतु निकल गये थे. वे २७ जून की शाम ८.०० बजे निजामुद्दीन स्टेशन से हमारे साथ जुड़ने वाले थे. बाकि हम ८ यात्रिओका डिब्बेके एक ही कुप्पे में आरक्षण था. २५ दिनोका लम्बा सफ़र, गर्म कपडे, अतिरिक्त खानपान के कारण सामान काफी था. नागपुर से अमृतसरका सफ़र १ दिन २ रात ३४ घंटेका था. हम सब साथी आपसमे परिचित तो थे लेकिन इतने लम्बे सफ़र में साथियोका स्वभाव, व्यक्तिगत पसंद नापसंद को समजकर समुहमे एक दुसरेके साथ घुलमिल कर अड़जेस्ट करना यात्राके आंनद लिए आवश्यक है. यह अवसर हमें ट्रेन के सफर के दोरान मिलगया. रातको सबका सामान सिटके निचे जमाकर थोड़ी देर गपशप मारकर सो गये.

दूसरा पूरा दिन रात ट्रेन मे ही बिताना था, सुबह देर से उठकर नित्यकर्म निपटाकर तैयार हुए नास्ता, चाय, पानी, भोजन, गपशप आराम दिन भर यह दौर चलता रहा. इस ट्रेनके स्टोपेज अन्य सुपरफास्ट ट्रेन से अधिक है और मार्ग भी घूमकर जाता है जिसके कारण यह अधिक समय लेती है. लेकिन हमें तो कल सुबह ८.०० बजे अमृतसर पहुचना है, क्या जल्दी है ? आज दिन साफ था रस्तेमे मध्य प्रदेशमे बारिश न होनेसे चारोतरफ सुखा सुखा दिखाई दे रहा था, वतानुकुलित डीब्बेमे बहारके हवामानकी असर नहीं होती परन्तु स्टेशन पर बहार निकलते गर्मी एवं उमस महशुस हो रही थी. ट्रेन समय सर चल रही थी भोपाल.. झांसि.. ग्वालियर.. आगरा होते हुए शामको ८.०० बजे समयपर हम निजामुद्दीन स्टेशन (दिल्ही) पहोंचे.

यहाँ से हमारा एक साथी दंपति हम सबके लिए रात्रि भोजन लेकर हमारे साथ यात्रामे जुडनेके लिए इंतजार कर रहा था. हमारी बिटिया ज्योति-वासु-तत्वा-सत्व के साथ हमें स्टेशन पर मिलने एवं यात्राकी बिदाई देने हेतु आये हुए थे. सबसे मुलाकात हुई कुशल मंगलका आदान प्रदान हुआ. यहाँ से ट्रेन उत्तरप्रदेशके गाजियाबाद, मेरठ, सरहानपुर के रास्ते अम्बाला होते हुए पंजाब में प्रवेश करती है यह रूट घूमकर जाता है जो रातमे पास होने वाला था. इश्वरलालने लाये भोजन को साथमे बैठकर ग्रहण किया. सुबह हमारे गंतव्यके सपने सजाये रात्री विश्राम किया.

दिन ३ रा २८/६/२०१५ अमृतसर दर्शन  
सुबह लुधियाणा स्टेशन पर सबकी आँख खुल गई, अमृतसर यहाँ से ढाई घंटे की दूरी पर है. फ्रेश होकर चाय पीकर सामान तैयार कर, अमृतसर पहुचने के इंतजारमें खिडकीसे पंजाबकी मिट्टीमे लहलहाते हरे भरे खेत खलियान गाँव शहर देखते बैठे रहे. आज तीर्थयात्रा पहला दिन था. आधे घंटे देरीसे गाड़ी ८.३० अमृतसर स्टेशन पर पहोंची. सामान लेकर स्टेशन के बहार निकले. स्टेशन पर लेने आये टेम्पो ट्रावेलरमें सामान रखकर हम हमारी बुकिंग होटल “होटल संजोग इन्टरनेशनल” पहुंच गये, होटल स्टेशन के नजदीक ही थी. होटल का स्तर अच्छा था. होटल में चेक इन किया यहां हमें पूर्व आरक्षित ३ रूम दिए गये, नहा-धो फ्रेस होकर, होटल पेकेजका सुबह का नास्ता रूम में किया. यहाँ से तैयार होकर गाड़ी द्वारा सुवर्ण मंदिर (हरमंदिर साहेब गुरुद्वारा) के दर्शन हेतु निकले.

सुवर्णमंदिर हरमंदर साहेब गुरुद्वारा अमृतसर: 
भारत के उत्तर पश्चिम दिशा में भारत-पाक सीमा के नजदीक बसा यह पंजाब का प्रमुख शहर है. सुवर्ण मंदिर तीर्थक्षेत्रकी नीव ई.स.१५७७ में गुरु रामदासजीने रखी थी, तत्कालीन इसे ‘रामदासपुर’के नाम से जाना जाता था. बाद में इसका नाम मंदिर के चारो तरफ निर्मित पवित्र ‘अमृत सरोवर’ से ‘अमृतसर’ पड़ा है. अमृतसर में शिख धर्म का विश्व प्रसिद्ध सुवर्ण मंदिर एवं अकाल तख्त है. यह भारत के प्रमुख तीर्थ क्षेत्र में से एक है. यहाँ प्रतिदिन देश विदेश से हजारो श्रद्धालु दर्शनार्थ आते है. यहाँ से ३५ कीमि दूर भारत-पाक की ‘अटारी बॉर्डर’ है. अमृतसर देश के अन्य भागो से रेलवे, सड़क मार्ग तथा हवाई मार्ग से जुड़ा हुआ है. यहाँ अन्तरराष्ट्रीय हवाईअड्डा है.     
 
 सुवर्णमंदिर हरमंदर साहेब गुरुद्वारा, अमृतसर

स्वर्ण मंदिरके बहोत पहले गाड़ी पार्किंगमें रोक दी जाती है. वहां से पैदल मंदिर तक जाना पड़ता है. आज रविवारका दिन एवं पिकनीक के सीझन के कारण पर्यटक एवं दर्शनार्थी की भारी भीड़ थी. मंदिर परिसर में भी अत्यंतिक भीड़ थी. तेज धुप और उमस भरा वातावरण था. जुत्ते चपल रखनेकी लिए लंबी कतारे लगी हुई थी. इन कतारों से बचने के लिए हमने एक पौधेके पास पहलेसे रखे जुत्तो के पास हमारे जुत्ते चप्पल उतारकर रख दिए.

सुवर्ण मंदिर (हरमंदर साहेब गुरुद्वारा): ई.स. १६०४ में बना सुवर्ण मंदिर अमृतसर शहर के मध्यमे विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है. मंदिर में चारो दिशा के चार प्रवेशद्वार  समानता एवं स्वागत के प्रतीक है. मुख्य सुवर्ण मंदिर ‘हरमंदर साहेब’ ‘अमृतसर’ (अमृत का सरोवर)के मध्यमे है. सरोवर में श्रद्धालु स्नान कर मंदिरमे प्रवेश करते है. मंदिर के सामने अकालतख्त है. मंदिर परिक्रमा मार्गमें केंदीय शिख संग्रहालय, गुरुका लंगर, प्रसाद वितरण, कार्यालय भवन बने हुए है.

हम सबने सरोवरमें हाथ पैर धोकर, सर पर शिरपाव (पिला वस्त्र) बांधकर मंदिर समक्ष फोटोग्राफी की, साफ सफाई की कारसेवा और मच्छलीयों के कारण सरोवरका पानी अपेक्षा से अधिक साफ था, पवित्र सरोवरकी परिक्रमा कर हम मुख्य मंदिरमें प्रवेश हेतु लंबी कतारमे खड़े हो गये. कतारमें देश विदेशके हजारो शिख श्रद्धालु एवं हमारे जैसे भाविक यात्री हजारो की संख्यामें लंबे समयसे खड़े थे. परिसरमे तेज धुप से गर्मी और उमस भरा वातावरण था, जो तन मनको आकुल व्याकुल कर रहा था..
   
अमृतसर शिखोका मुख्य तीर्थक्षेत्र है. यहाँ ‘अकालतख़्त’ भी है, पञ्च प्यारे (अकालतख़्त अमृतसर, हजूर साहेब नांदेड़, पटना साहेब पटना, केशगढ़ साहेब आनंदपुर, एवं दमदमा साहेब तलवंडीसाबू) पांच तख़्त जो शिख सम्प्रदायके मुख्यतीर्थ है. शिख सम्प्रदायमे गुरुगद्दी पर गुरुग्रंथ साहिब आसीन है. यहाँ किसी जीवित या मृत गुरु गादिनसीन नहीं है. गुरुनानक देवजी ने हिन्दू धर्म की रक्षा करने हेतु सीख देकर एक अलग सम्प्रदाय खड़ा किया है जिसके लाखो अनुयायी देश विदेशमे फैले है. उनके लिए यह मुख्य तीर्थ क्षेत्र है. जो हमारी यात्राका प्रथम तीर्थ है. 

सुवर्णमंदिर हरमंदर साहेब गुरुद्वारा, अमृतसर
सुवर्णमंदिर हरमंदर साहेब गुरुद्वारा, अमृतसर
 सुवर्णमंदिर हरमंदर साहेब गुरुद्वारा, अमृतसर
सुवर्णमंदिर हरमंदर साहेब गुरुद्वारा, अमृतसर
कुछ समय कतारमे खड़े रहनेके बाद अत्यंत गर्मी से आकुल व्याकुल हो कर हमारे साथी मनोमन गुरुग्रन्थ साहिब को नमन कर कतारसे बहार निकलते गये. सब साथी कतार से बहार आकर हरमंदिर साहेब के सामने स्थित अकाल तख्तके दर्शन किये, मंदिरमे भोग लगाने हेतु सशुल्क लंगरका प्रसाद लेकर भोग धराया, प्रसाद ग्रहण हम मंदिर परिसरसे बहार आये. दोपहरकी धुप कडक तप रही थी गर्मीका पारा ४५ डिग्री से ऊपर तप रहा था. बहार निकलकर जुत्ता चम्पल उतराथा वहां गये, हमारे तिन साथीके जुत्ते चम्पल कोई गलतीसे ले गये थे. मंदिर परिसर बहारकी दुकानोसे नए जुत्ते चम्पल खरीद कर हम मंदिर के समीपवर्ती जलियाँवाला बाग देखने गये.

जलियाँवाला बाग: इतिहास प्रसिद्ध जलियाँवाला बाग अमृतसरमें सुवर्ण मंदिरके बाजु में स्थित है. प्रत्येक भारतीयोंके लिए राष्ट्रिय अस्मिता जागृत करनेवाला राष्ट्रिय तीर्थ है. यहाँ पर १३ अप्रैल १९१९ के दिन बैशाखी पर्व पर सुवर्ण मंदिर में त्यौहार मनाने आये हजारो निहथे लोगोंकी शांतिपूर्ण सभा पर, तत्कालीन अंग्रेज ऑफिसर ब्रिगेडियर जनरल डायर ने ठंडे कलेजे से चौतरफा घेरा डालकर अंधाधुंध गोलियां चलाकर मारडाला था. ब्रिटिश सेना की गोलियां खतम होने तक यह गोलीबारी चलती रही. गोलियों से बचने के लिए सेंकडो लोग बाजु के कुए में कूदकर अपनी जान गवाई थी. इस नरसंहार में वास्तविक संख्या तो अधिक थी परंतु अधिकृत संख्या के मुताबिक ३७९ लोगोंको मार डाला था एवं १२०० से अधिक संख्यामे लोग घायल हुए थे. ऐसे कलंकित इतिहास के साक्षी जलियाँवाला बाग में शहीदों की यादगिरी स्वरूप मैदान के बिच गुलाबी पत्थरों से ‘आजादी की सनातन ज्योत’ स्वरूप स्मारक बनाया गया है. एक तरफ शहीदी कुवा है. जलियाँवाला बागमें प्रवेश करने हेतु वही पुरानी सकरी गल्ली है. यह २० वी शदी का जघन्य राजनैतिक हत्याकांड माना गया है. और इस नरसंहार से आजादी की लड़ाई में भारत छोड़ो आंदोलन Quite India Movement को एक नया मोड़ मिला था.
जलियांवाला बाग स्मारक
शहीदी कुआ जलियांवाला बाग

जलियाँवाला बागके मुहाने मेंन रोड पर भारी भीड़ थी, अन्दर जानेके लिए आज भी वही पुरानी इतिहास प्रसिद्ध पतली सकरी गल्ली से गुजरना पड़ता है. जहांसे प्रवेश कर हम अन्दर गये भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित, इस समारक स्थलकी व्यवस्था देखकर दुःख होता है. यहाँ की व्यवस्था अन्य भारतीय स्मारक स्थल जैसी ही थी. शहीदोंकी यादमे बगीचे के बिच गुलाबी पत्थरसे निर्मित ऊँचा स्मारक बनाया गया है. जिसके चारो तरफ पानीके फवारे की व्यवस्था है. लेकिन वह भारतीय अवस्थामे अस्त-व्यस्त थी, बगीचे के एक तरफ इतिहास प्रसिद्ध ‘शहीदी कुवां’ है, जो जालियो से संरक्षित है, यहां हम सबने खड़े होकर देशकी आजादी की खातिर शहीद होने वालों ‘हुतात्मा’के प्रति दो पल मूक श्रधांजलि अर्पण की. कुछ समय वहां बैठकर फोटोग्राफी कर वहां से रवाना होकर पार्किंगमें जा कर गाड़ीमें बैठे. आगेके प्रोग्राम बाबत ड्रायवरसे चर्चा विचारणा कर अटारी बॉर्डर जाने का प्लान बनाया, बिच रास्ते ढाबेमें पंजाबी भोजन का आनंद लिया. यहाँ कुछ पल आराम कर आगे अटारी बॉर्डर देखने गये.                                           

अटारी बॉर्डर: अमृतसर से २८ किमी दूर भारत-पाकिस्तान की बॉर्डर (सीमा) है. सीमा का भारत तरफ का हिस्सा ‘अटारी’ के नाम से जाना जाता है. आजादी के समय यहाँ ‘श्यामसिह अटारी’ की जागीर थी जिससे इस बॉर्डर का नाम ‘अटारी’ पड़ा है. जबकि पाकिस्तान के तरफ ‘वाघा’ नामक गाँव है. भारत पाकिस्तान के साथ रोड, रेल्वे रास्ते आवागमन और व्यापार इस बॉर्डर से होता है. इस बॉर्डर का सामरिक महत्व है. यहाँ से पाकिस्तानका लाहोर शहर वाघा बॉर्डर से महज २४ किमी दूर है यह सारा विस्तार भारी सुरक्षा निगरानी में है. मुख्य अटारी बॉर्डर जहां प्रति दिन ढलती शामको सोहाद्र वातावरणमें दोनों देश के सैनिक एक विशिष्ट ड्रेस पहनकर परेड कर भारत–पाक का झन्डा उतारनेकी Beating the Retreat ड्रिल करते है. यह परेड १९५९ से दोनों देश सोहाद्र वातावरण में करते आ रहे है. भारतीय सेना के सीमा सुरक्षा बल (BSF) के वीर जवान यह परेड करते है. ई.स.२००९ से BSF की महिला सैनिक भी इस ड्रिलमें शामिल होकर परेड करती है.

अटारी - वाघा  बॉर्डर
अटारी - वाघा  बॉर्डर
बॉर्डरसे पहले पार्किंगमें गाड़ी खड़ी कर आगे पैदल जाना पड़ता है, यहाँ कडक सुरक्षा व्यवस्थामे दर्शनार्थियो की जाँच होती है. यहाँ केमरे मोबाईल लेजाने की छुट है. रोड की पश्चिम दिशा में ‘अटारी’ रेलवे स्टेशन है. अभी इस ड्रिलको २-३ घंटेका समय बाकि था, यहांका वातावरण गर्म और उमस भरा था. ड्रिल देखने के लिए बने स्टेडियम पर छतकी व्यवस्था ना होनेसे धुप कड़क लग रहीथी, ऐसे वातावरण में आजुबाजूकी फोटोग्राफी कर समय प्रसार कर रहे थे. आज रविवार एवं पिकनीक सीजन के कारण यहाँ दर्शको की भारी भीड़ थी. इतनेमे निर्मलाबेन छाभैया सीढ़ीसे फिसल गये, उनके पैर में मोच आ गई. उन्हें वहां मिलेट्री डिस्पेंसरीमें प्राथमिक इलाज करवाया. उनके पैरमें मोच आने से और गर्मी के कारण उनके साथ सबका मुड भी बिगड़ा हुआ था, सबने होटल वापस लोटनेका निश्चय कर वापस लौटे. निर्मलाबेन को बेट्रीकारमे बैठाकर गाड़ी तक पहुँचाया. होटल वापस लौटते रास्तेमे अमृतसर शहरमे वैष्णोदेवी मंदिरमें दर्शन किये. वहां चाय का प्रसाद लिया. शाम ५.०० बजे होटल वापस लोटे. होटल में नहा धोकर सबने आराम किया, रात्रि भोजनकी इच्छा कम थी बाजारसे फल एवं साथ लिए सुखा नास्ता किया. 

यात्रा दरम्यान देखे हुए तीर्थ क्षेत्र तथा यात्रा का अनुभव दैनिक रूप से लिखने का निश्चय किया था जिसके शरुआत आज से ही किया नागपुर से निकलकर अभी तक का वृतांत डायरी में लिखना शरू किया.

हमारी आगे की यात्रा के लिये पूर्व आरक्षित टेम्पो ट्रावेलर गाड़ी कल सुबह ८.०० बजे होटल पहोचने वाली थी, ड्रायवरके साथ फोन द्वारा संपर्क कर आगेकी यात्रा का आयोजन कर निश्चिंत होकर सो गये.

काश्मीर को भारतमाता के मस्तक का मुकुट कहा जाता है. इस मुकुटके सौन्दर्य सजाने में प्रकृति देवीने कोई कमी नहीं रखी है. विश्व के सुंदर प्रदेशोमें काश्मीर की गणना हो शकती है. इसलिए तो काश्मीरको भारतका स्विट्ज़रलैंड माना जाता है. बर्फाच्छादित पर्वत घाटियाँ, झरने, हरेभरे बाग बगीचे, चमकती झीले एवं चिनारके पेडो का सौन्दर्य देखते बनाता है. काश्मीर में सभी को देखने के लिए कुछ न कुछ है. मुगल बादशाहों द्वारा निर्मित बाग बगीचे, हिन्दुओ के लिए अमरनाथ गुफा और वैष्णोदेवी जैसे बड़े तीर्थक्षेत्र, सूफी संतो की अनेक पवित्र दरगाहे इन्हें देखने के लिए भारत ही नही विश्वके सौन्दर्य रसिकजन काश्मीर जाने का स्वप्न संजोये रखते है. काश्मीरकी धरती ही नहीं पर काश्मीरके लोग भी सुंदर है. केवल सुंदर ही नही, अच्छे भी है. काश्मीरकी जनता मूलतः शांतिचाहक है. यहाँ के पुरातन मंदिर बाग बगीचे काश्मीरका गौरवपूर्ण इतिहास के साक्षी है. काश्मीरकी संस्कृति काफी प्राचीन है.

पर विधिकी वक्रता देखो की ऐसे भले लोगोकी सुंदर धरती पर शांति नही है. काश्मीर शांत लोगोका अशांत प्रदेश बन गया है. शांत और सुंदर प्रजामेसे अलगाववादी अशांत प्रवाह उत्पन्न हुआ है. याने झेलम और दलझीलमें वही निर्मल जल प्रवाह बह रहा है. परंतु नौकाघरमें सन्नाटा छाया हुआ है, कुछ तो उज्जड हो गये है, शिकारे की गति मंद पड गई है. यात्रिओका आवागमन तो फिर से शरु तो हुआ है. लेकिन सेना की सुरक्षा का आसरा लेकर डरके साये में. हमेशा के लिए तो ऐसी परिस्थीती नही रहेंगी. लेकिन कब तक ? यह प्रश्न महत्वपूर्ण है.
  • सामान्य जानकारी जम्मू काश्मीर : 
  • क्षेत्रफल   : २,२२,२३६ वर्ग किलोमीटर
  • राजधानी  : श्रीनगर (ग्रीष्मकालीन), जम्मू (शीतकालीन)
  • जनसँख्या : १,२५,४८,९२६ (२०११ जनगणना)
  • भाषा     : उर्दू, कशमीरी, डोगरी, पहाड़ी, लद्दाखी, पंजाबी 
दिन ४ था २९/६/२०१५ अमृतसर से पत्निटोप 
अमृतसर होटल से यात्रा प्रस्थान 
हमारी यात्रा का वाहन
हमारी यात्रा का प्रथम चरण ‘कश्मीर दर्शन’ आज से शरू हो रहा है. आज सुबह जल्दी तैयार होकर होटेल रेस्टारेंट में पेटभर नास्ता किया. होटेलसे चेक आउट किया, निचे अंबाला (हरियाणा) से आई टेम्पो ट्रावेलर गाड़ी का ड्रावर मनीष खत्री हमारा इंतजार कर रहा था. आगे की २० दिनोकी यात्रा इसी गाड़ी से करनी थी. सामान गाड़ी में जमाकर, भगवद् नाम स्मरण कर सुबह ८.३० बजे पत्निटोप जानेके लिए निकल पड़े. सुबह अमृतसर शहर अभी अंगड़ाई लेकर नीद से उठकर तैयार हो रहा था. हम अमृतसर-बटाला-गुरुदासपुर के रस्ते पठानकोट जा रहे थे. रास्तेके दोनों तरफ नजर पहोंचेने तक हरेभरे खेत खलियान लहलहाते दिखाई देते है. 
    
पंजाबकी आर्थिक समृध्दिमें खेती का बड़ा योगदान है. सतलुज-ब्यासनदी पर बने एशिया के सबसे ऊँचे (७५० फीट) भाखड़ा-नांगल बांध की नहरों से सिंचाई, पंजाबकी मैदानी उपजाऊ जमींन, एवं पंजाबी किशानो की महनेत से पंजाबको भारतका ‘खेत खलियान’ का दर्जा दिलाया है. तिबेट के कैलास मानसरोवर से निकली सतलुज और लाहुल-स्पीतीसे निकली ब्यास नदी का पानी भाखड़ानांगल (गोविंद सागर) से राजस्थान तक के लाखो एकर जमीन को सुजलाम-सुफलाम बनाता है. भाखड़ा-नांगल जैसा आधुनिक तीर्थ पंजाबके आनंदपुर साहिब से ३५ कीमि दूर है. खेती के अलावा पंजाब की समृधिमें महेनतकश प्रजाके हुन्नर कोशल्य आधारित उद्योग ने यहाँ की समृधि बढाई है. लुधियाणामे सायकल, होजियरी, ऊनि वस्त्र, जैसे ऊद्योगका प्रमुख केंद्र है बटालामें लेथ मशीन आधारित इंजीनियरिंग उद्योग व्यापक पैमानेमे है. समृद्ध पंजाब के नागरिक विदेशोमे बसकर वहांसे कमाई हुई बहुमूल्य विदेशी मुद्रा भेजकर भारतकी समृधि में वृधि कर रहे है.

पठानकोट: भोगोलिक द्रष्टि से रावी नदी के किनारे बसा पंजाब का पठानकोट जम्मू-काश्मीर एवं हिमाचलप्रदेश प्रदेशकी खूबसूरत कांगड़ा घाटी का प्रवेशद्वार है. यहाँ भारतीय सेना की महत्वपूर्ण छावनी है. पठानकोट, हिमाचलप्रदेश के धर्मशाला एवं चंबा जिल्ले के डलहौसी जैसे गिरिमथक, तीर्थक्षेत्र एवं पर्वतारोहण जैसे पर्यटन क्षेत्रो का प्रवेशद्वार है. जम्मू काश्मीर में रेल और सड़क मार्गका यह प्रवेशद्वार है. यहाँ से पंजाब का मैदानी विस्तार पूरा होता है. और हिमालय का पर्वतीय विस्तार शरू होता है.    

१०.३० बजे हम पठानकोट पहुंचे, अंबाला से साथ आये मनीष ड्रायवर की बहन और भांजे हमारे साथ ही थे, उनको बस स्टेशन छोड़कर हमने वहां लिम्बू सोडा पिया, मिनरल वोटरका बॉक्स लेकर आगे NH 1 पर आ गये. यह राजमार्ग NH 1A न्युदिल्ही से हरियाणा, पंजाब होते हुए पठानकोटसे जम्मू-श्रीनगर के रस्ते लेह लदाख तक जाता है. पठानकोट से आगे लक्ष्मीपुर (लखीमपुर) में पंजाब जम्मू-कश्मीर की बॉर्डर है. यहाँ गाडीका जम्मू-कश्मीरका रोड टेक्स भरना पड़ता है. जम्मू-काश्मीर राज्यकी सीमामें आंतकवाद से सुरक्षाकी द्रष्टिसे अन्य राज्य के प्री-पेड़ मोबाईल सेवा तात्पुरती बंद की जाती है. केवल पोस्टपेड़ सेवा चालू रहती है. यात्रा दरम्यान परस्पर संपर्क एवं १५ दिनो तक घरवालोंसे संपर्क बनाए रखने हेतु हमने लखीमपुर से जम्मू काश्मीर राज्यके प्री-पेड़ सिमकार्ड खरीदकर तात्कालिक एक्टिवेट करवाए. आधुनिक संचार व्यवस्था यात्रा में सहायक है, इसके फायदे भी है. लेकीन पुरातन तीर्थयात्रामें व्यक्ति, घर-परिवार, व्यपार-व्यवार का बोज घरपर रखकर निश्चिंत होकर तीर्थयात्रा करता था, उसका आध्यात्मिक मूल्य अलग ही था. यहाँ इसकी तात्विक चर्चा व्यर्थ मानी जाएगी. वहां से फलाहार कर हम जम्मुके रास्ते आगे बढे.  

रास्तेमे कथुआ के पास रावी नदी पार कर सांबा के पास NH 1 से पुर्वमे एक रास्ता बड़ी ब्रह्मानन से पहाडियों चढ़कर सीधा उधमपुर निकलता है. हम उस रस्ते पर मुड़े, ड्रायवर मनीष के मुताबिक यह शार्टकट है और रास्तेमे पहाड़ो-नदी-तालाब का प्राकृतिक सौन्दर्य दर्शनीय है. मुख्य राजमार्ग जम्मू-उधमपुरकी तुलनामे उबड़खाबड़ टेड़े-मेढे रास्ता देख हमको मनीषका निर्णय शरुआतमें योग्य नही लगा, और तेज बारिशभी शरू हो चुकी थी, लेकिन जैसे जैसे हम आगे बढ़ते गये रास्ता पहाड़की ऊंचाई पर लगातार बढ़ता गया बारिशभी बडती गई, तब पहाड़ी रास्तेके निचे खाईमें नदी नालेका कुदरती सौन्दर्य देखकर हमें मनीष का निर्णय रोमांच की द्रष्टिसे उचित लगा. क्योकि हिमालय यात्रामे पहाड़ी रास्ते, घाटी, नदी नालेके बिचसे सफ़र ही अन्य प्रदेश से अलग हटकर हमें अंदरसे रोमांचित करता है. हिमालयकी हवाई सफर यह रोमांच नहीं मिलता. हमारे सबके मोबाईल एवं केमेरेमें फोटोग्राफी यही से शरू होचुकी थी. रस्तेमे पर्वतकी गोदमे नयनरम्य जम्मुका पर्यटन स्थल ‘मानसर’ (तलाब) पड़ता है. यहाँ हमने दोपहर २.३० बजे एक ढाबे में, घने बादलो के अंधकारमें, मुशलाधार बारिसमें (बिना लाईट) ‘केंडल लाईट’ गर्मागर्म भोजनका आनंद लिया. यह सारे आनंद शहरों के ५ सितारा होटल में भी दुर्लभ है. यह केवल निसर्गमें ही शक्य है. भोजन पश्चात बारिश धीमी हो चुकी थी. यहाँ से उधमपुर की तरफ आगे बड़े. उधमपुर देविका नदीके किनारे बसा सुंदर पहाड़ी शहर है. नदीके दोनों किनारे सुंदर घाट बांधे है. वर्तमानमे जम्मू से उधमपुर तक रेलवे व्यवार चालू है. उधमपुर से आगे कार्य चालू है. रास्तेमे हरेभरे वृक्ष-वनस्पतिसे आच्छादित पहाड़ोका सौन्दर्य देखते ही बनता है.

उधमपुर के आगे ‘कुद’ मे ऊँचे ऊँचे दुर्गम पहाड़ोमें, विपरीत परिस्थितियों में भारतीय रेलवे के जांबाज इंजीनियर, कारीगर एवं मजदुर आधुनिक मशीनरीसे सुरंग और पुलका निर्माण कर रेल्वेका जाल बिछाकर काश्मीरको भारत से जोडनेका भगीरथ कार्य करते हुए दिखाई देते है. तकनीकी द्रष्टि से यह अत्यंत दुष्कर और चुनोतीपूर्ण कार्य है. वर्तमानमे भारतीय रेलवेने काश्मीर घाटीमें काजीगुंड-अनंतनाग-श्रीनगर से बारामुल्ला के बिच रेलवे लाईन पर यातायात चालू कर विश्वके दुर्गम रेलवे नेटवर्क संचालन में अपना नाम दर्ज करवाया है. भविष्यमे यह नेटवर्क सीमा सुरक्षामें भी अहम भूमिका निभायेंगा, जिसे देखकर हमें गर्व महसूस होता है.

उधमपुर, कूद, पत्निटोप यह गिरिमथक है यहाँ पर्यटकों की सुविधा हेतु होटल की सुविधाए है. प्राप्त जानकारी अनुशार यहाँ से पैदल रास्ते कुद्से डेढ़ कीमि दूर ‘स्वामीकी बाऊली’ नामक झरना है. आगे ८ कीमि दूर गौरीकुंड नामक तीर्थ स्थान है. यहाँ पार्वतीजीका मंदिर है. गौरीकुंड से ५ कीमि दूर शुद्धमहादेव है. देविका नदी किनारेका यह पुण्यतीर्थ है. इस शिवमंदिर से ३ कीमि दूर शहस्त्रधारा नामक स्थान है. जहां पर्वत से एक जलधारा निकलती है. रास्तेमे एक गोकर्ण मंदिर है. शुद्धमहादेव से ५ कीमि दूर मानतलाई नामक स्थान है. यहाँ बहोतसे प्राचीन अवशेष है एक योग संस्था भी यहाँ है. इन सारे स्थलमें तीर्थ, पिकनीक एवं पर्वतारोहण करने पर्यटक बारों महीने आते रहते है. यहाँ रास्ता पहाड़ी धाटी वाला है. चिड देवदार के घटाटॉप वृक्ष वनस्पतियों से हरेभरे पहाड़ से गिरते झरने, निचे गहरी खाई में बहती नदियाँ, ढलान पर सीढ़ीनुमा हरेभरे खेत, पहाड़ी चट्टान काटकर बनाए तेडेमेढे रास्ते से घाटी का द्रश्य रोमांचक लगता है. हमारा आजका रात्रि मुकाम पत्निटोप में था.
पत्निटोप: २०२४ मीटरकी ऊंचाई पर पत्निटोप जम्मू श्रीनगर राजमार्ग पर पहाड़के पठार पर देवदारके हरेभरे सुन्दर वन के बिच जम्मू क्षेत्रका मुख्य गिरिमथक है. २०२४ मीटरकी ऊंचाई पर यहाँ शर्दीयोमे चारो तरफ बर्फ छाई रहती है. यहाँ के विशाल पेडो के बिच बने रास्ते पर चहलकदमी करने का एक अलग ही अनुभव है. यहाँ शालभर सहलानियोका ताँता लगा रहता है. पर्यटकों के लिए पहाडो के  ढलान पर सेंकडो छोटे बड़े होटल बने है. पर्यटन विभागके कोटज की भी सुविधा है. 
 पत्निटोप
पत्निटोप
हम शाम ५.०० बजे पूर्व आरक्षित ‘होटेल फारेस्ट व्यु’ पहुंचे. होटेलका लोकेशन आकर्षक था. यहाँका हवामान ठंडा था ठंडी हवा चल रही थी. होटेलमे चेक इन कर अपने रुममे फ्रेस होकर हमने अल्पाहार एवं चाय पिया. तैयार होकर बहार वातावरणका आंनद उठाने होटेलसे थोड़ी दूर उपरकी तरफ जंगलके बिच बने कुदरती घासके मैदान पर गये. यहां सहलानीयोकि सुविधाओं के साधन, खानपानकी सुविधा युक्त बाज़ार लगी हुई थी. निर्मलाबेन छाभैयाके पैरमे मोचके कारण वह होटेलके रुममे आराम कर रहे थे. हमने यहाँ शैर सपाटा कर फोटोग्राफी की. पर्वतोकी बर्फ ढकी ऊँची चोटियोंके पीछे सूर्य जल्दी छुप जाते है, पर यहाँ प्रकाश अधिक समय तक रहता है. हमारी इस यात्राका यह प्रथम नैसर्गिक तीर्थ है. शामको वातावरण काफी ठंडा हो गया था. कहाँ कल अमृतसर- अटारी बॉर्डर की जुलसा देने वाली उमस भरी गर्मी और कहाँ आज शर्दीयो वाली ठंडी ! वातावरण एवं नैसर्गिक द्रश्यों देख सबके मन प्रफुल्लित बन गये थे. महिलाओको यह सब देखकर पेटभर गया. रात्रि भोजनमे महिलाओने अपनी तृप्ति बताई हम सब पुरुष वर्ग निचे रेस्टारेंटमें जाकर भोजन कीया. अगले दिन का आयोजन कर अपने रुमोमे जा कर मैंने दैनन्दिनी लिखकर आराम किया. 

दिन ५वां दिनाक ३०/६./२०१५ पत्निटोप से श्रीनगर
सुबह उठकर सबसे पहले होटेल रुम के बहार का दृश्य देख मन खुशियों से नाचने लगा अलोकिक द्रश्य था. मैंने पहले कभी पहाड़ो पर बर्फ नहीं देखि थी. सामने बादलो से घिरे बर्फ ढके पहाड़, चारो तरफ घना कोहरा छाया हुआ था. वातावरण ठंडा था. मन प्रसन्न हो गया. मेरी द्र्ष्टिसे निसर्ग यह शुध्द अहम् रहित तीर्थ है, मंदिर है. तिर्थक्षेत्रमे भोग चढ़ानेके पश्चात वितरित होनेवाले प्रसादका महत्व है. भगवद गीता के प्रसाद की व्याख्या अनुशार “प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते” एवं “प्रसादस्तु मन प्रसन्नता” जिससे मनके सारे दु:ख चले जाते हो और मन प्रसन्न हो जाता है यह प्रसाद है. 
 पटनीटॉप सुबह का समय
 पटनीटॉप सुबह का समय
पटनीटॉप सुबह का समय
पटनीटॉप सुबह का समय

मन भरकर निसर्गके दर्शन करने के बाद प्रात:कर्म से निवृत होकर हम नीचे रेस्टारेंटमें पंजाबी नास्ता कर तैयार हुए. आगेकी यात्रा के लिए होटलसे चेक आउट किया. कुछ सथियोने होटेल परिसरमे लगी दुकानोसे गर्म वस्त्रकी खरीदी की. प्रभु नाम स्मरण कर प्रस्थान किया. रास्तेमें प्राचीन नागदेवता मंदिरमें दर्शन किये, आगे एक दर्शन पॉइंट पर जाकर फोटोग्राफी कर श्रीनगरके लिए प्रस्थान किया. कल उधमपुरसे निकलेथे ठीक वैसा ही हरेभरे देवदारके सघन वनका पहाड़ी चढ़ाव आज भी रास्तेमें चालू है. सूर्य प्रकाश से वातावरण में गुलाबी ठंडी थी. उधमपुर से शरु हुए पहाड़ी विस्तारकी एक विशेष बात देखी की यहाँ राजमार्गके पुरे रास्तेके दोनों तरफ पहाड़ोकी ऊँची ढलान पर सीढ़ीनुमा मैदान बनाकर खेती लायक जमीन बनाकर खेती होती है, बाजुमे रहनेका घर है. यहाँका पहाडी जीवन कठिन और संघर्षमय दिखाई पड़ता है.

रास्तेमे ‘बटोट’ नामक स्थान आता है. यह भी एक पर्यटन स्थल है. १५६० मीटर की ऊंचाई से चिनाब घाटी की सुंदरता का रोमांचकारी दर्शय दिखाई देता है. यहाँ से चिनाब नदीके किनारे चलकर रास्ता चिनाब नदीके पुलसे गुजरता है. चिनाब पुल पारकर गाड़ी एक किनारे खड़ी कर चिनाबकी भव्यता देखकर दंग रह जाते है. दोनों तरफ विशाल हरेभरे पहाड़ोके बिचमे प्रचंड गतिसे महानदी चिनाब बहती है. हिमाचल प्रदेशके उत्तरी भाग लाहोल-स्पिति विस्तारमें बारालाचाला पासके निचे ‘चन्द्रताल’ एवं ‘सूर्यताल’ नामक दो सरोवर है. चन्द्रताल से चंद्रा एवं सूर्यतालसे भागा नदी निकलती है. दोनोके संगम पश्चात यह चंद्रभागा याने ‘चिनाब’ नाम पड़ा है. यह चिनाब हिमाचल प्रदेशके पश्चिममें किवलोंग, उदयपुर, टिंडी, और किलाड से बहकर यहाँ जम्मु प्रदेश से बहकर पाकिस्तान में जाती है. यहाँ आगे ‘रामबन’के पास चिनाब नदी पर “बगलीआर” डेम बांधकर पनबिजली पैदा की जाती है. पाकिस्तान इस “बगलीआर” डेमका खतरा बताकर भारतके खिलाफ वर्ल्ड ट्रिब्यूनलमें अपना विरोध जता रहा है.
चिनाब नदी

डेमसे आगे बहोत दुरी तक रास्ता चिनाब के किनारे किनारे चलकर ‘पीरपंजाल’की ऊँचीपर्वत श्रुंखला चढ़ता है. आगे चिनाब नदी पश्चिमकी तरफ रास्ते से दूर हो जाती है. रास्ता ‘रामबन’ ‘बनिहाल’ होकर गुजरता है. पीरपंजाल की ऊँची पहाड़ी अब वृक्ष वनस्पति रहित कोरे पत्थर मिटटी वाली है. यहाँ हरियाली पीछे छुट जाती है. आगे बनिहालसे श्रीनगर रास्ते रेलवे लाइन बनकर तैयार है. बनिहाल घाटके निचे ‘जवाहर टनल’ के १ km पहले, हमें इस अमरनाथ यात्राका पहला भण्डारा दिखाई दिया, दोपहरका समय भी हो चूका था. आज सुबह से ही शरू हुए भण्डारे में हम सबने लंगरका प्रसाद लिया.
    आगे १ km दूर पीरपंजाल के ऊँची पर्वतमाला के निचे सुरंग खोदकर २५०० मीटर लंबी ‘जवाहर टनल’ बनाकर रास्ता निकाला है. आवागमन के लिए अलग अलग बनी जवाहर टनल सैनिक सुरक्षासे संरक्षित है. जम्मू-काश्मीरमें आंतकवाद के कारण उधमपुरसे थोड़ी थोड़ी दुरीपर सैनिक चुस्ततासे पुरे राजमार्ग पर निगरानी करते दिखाई देते है. ‘धरतीके स्वर्ग’ कश्मीरीको आंतकवाद ने खौफसे भर दीया है. भोगोलिक रूपसे पीरपंजाल पर्वतमाला जम्मु और काश्मीर घाटीको जुद्दा करती है. यह जवाहर टनल दोनो प्रदेश को जोड़ने वाली जीवनरेखा समान प्रवेशद्वार है. टनल पार करते ही “टाइटेनिक व्यु” नामक एक दर्शक पॉइंट आता है. वहां सभी पर्यटक वाहन रोक कर यहांसे काश्मीर घाटीका नयनरम्य सौंदर्य का प्रथम दर्शन करते है. यहाँसे माइलो तक हराभरा प्रदेश दिखाई देता है. हमारे सामने एक अलग ही दुनिया है. प्रकृति का एक विशिष्ट सर्जन है. यह सुन्दर द्रश्य देखकर कवीह्रदय मोगल बादशाह जहांगीरके मुखसे शब्द निकल पड़े थे.
“अगर फिरदोस बररुए जमीन्स्त, हमीनस्तो, हमीनस्तो, हमीनस्तो”
यहाँ का नजारा देख हम इतना ही कह सकते है. वाकई में यह अदभुत नजारा है, एक अलग ही दुनिया है. यहां अन्य पर्यटकों के साथ हमने भी फोटोग्राफी की, चाय कोफ़ी पीकर आगे निकले. यहाँ से रास्ता ढलान वाला है. कश्मीर घाटीका मैदानी इलाका यहाँसे शरू होता है. यहांसे मैदानी विस्तार में चावल मक्का, गेऊ आदि खेती दिखाई देती है. वर्तमानमे यहाँ से श्रीनगर तक राजमार्ग का ४ लेन विस्तृतिकरण कार्य प्रगति पर था. संकलित माहिती के आधार पर यहांसे श्रीनगर तक क्रमशः निम्नलिखित दर्शनीय स्थान थोड़ी थोड़ी दुरी पर स्थित है.

जवाहर टनल के बाद टाइटेनिक व्यूह पीरपंजाल पर्वतमाला

जवाहर टनल के बाद टाइटेनिक व्यूह पीरपंजाल पर्वतमाला

वेरीनाग: 
वेरीनाग झेलम नदी का उद्गम स्थल
५कीमि आगे वैरिनागमें पीरपंजाल पर्वतमालासे एक झरना बहता है. इसे ही झेलम का उद्गम स्थान माना गया है. मोगल बादशाह जहाँगीरने यहाँ एक अष्टकोण जलाशय एवं उधान बनाया है. आरामगृहकी दीवाल पर जहाँगीरकी उपरोक्त पंक्तिया “अगर फिरदोस बररुए जमीन्स्त, हमीनस्तो, हमीनस्तो, हमीनस्तो”आलेखित है.

कोकरनाग: 
कोकरनाग
वेरीनाग से श्रीनगर के रास्ते यह स्थल पड़ता है, कोकरनाग सौन्दर्य स्थल है. यहाँ गुलाब का एक सुंदर उधान है. यहाँ का पानी विशिष्ट प्रकारके खनिज द्रव्यों के कारण रोग निवारक माना जाता है.

अच्छ्बल: 
अच्छ्बल: 
एक मनोरम्य उद्यान है. नूरजहाँ को यह स्थान अति प्रिय था. शाहजहाँकी पुत्री जहांआराने ई.स.१६२० में यहाँ एक सुंदर उधानका निर्माण करवाया था. सीढ़ीनुमा उद्यान एवं चारो तरफ चिनार के पेड़ोसे घिरे इस स्थानकी सुंदरता एवं भव्यता अनुपम है.

अंनतनाग:
अंनतनाग शहर
अनंतनाग जम्मू-काश्मीर राज्यका तीसरा बड़ा शहर है एवं जिल्ला मुख्यालय है. यहाँ नागबल नामक एक मंदिर है, एक गर्म पानीका झरना बहता है. अनंतनाग नव कुल नाग में एक नाग का नाम है विष्णु भगवान की आज्ञा से उसने भूमि पर वास किया था. यहाँ से एक रास्ता मार्तंड (मट्टन) होकर पहलगाम जाता है जहाँ से चंदनवाड़ी होते हुए पसिद्ध अमरनाथ गुफा की यात्रा होती है.

अवंतिपुर: 
 अवंतिपुर मंदिर के भग्नावशेष
अवंतिपुर मंदिर के भग्नावशेष

राजा अवन्ती वर्मा ने इस ऐतिहासक शहर की स्थापना ९ वी शताब्दीमें की थी. यह स्थान अवंती वर्मा के शासनकालके दो विशाल मंदिर एक शिवमंदिर अवंतिसारा और दूसरा विष्णुमंदिर अवंतीस्वामी के पुरातन अवशेषोंके लिए प्रसिध्ध है. मुग़ल काल मे कश्मीर में हजारों हिंदु मंदिरों को ध्वस्त किया गया था. इसके अवशेष आज भी यहाँ विद्यमान है.

आगे रस्ते के दोनों तरफ यहाँकी विशिष्ट लकड़ी से निर्मित क्रिकेट के बेट निर्माण के कई कारखाने है. लकड़ी काटनेके आरा मशीन के बहार बेट के नापकी लकड़ी काटकर कुदरती सूर्यप्रकाशमें सुखाकर बेट निर्माण करने का यहाँ बहोत बड़ा उद्योग दिखाई देता है.

पाम्पुर (पाम्पोर): 
 केशर की खेती
केशर की खेती
अवंतिपुर से श्रीनगर के रस्ते श्रीनगरसे १६ कीमि पहले पाम्पुर सुगंधित केसरकी खेती के लिए प्रसिद्ध है. बेशकीमती जायकेदार भारतीय और कश्मीरी व्यंजनोंके लिए केसर सबसे प्रसिद्ध है. विश्वमे स्पेन के अलावा भारतभरमे केवल यहीं केसर की खेती होती है. अत्यंत जतन से यहाँ केसर के पौधे उगाये जाते है. रास्तेके दोनों तरफ केसर बेचनेवाली दुकाने लगी है.

पूर्व आयोजित समयबध्ध यात्रामें रुक रुक कर यह सारे स्थान देखना शक्य नही है, परंतु यात्री अपनी रूचि अनुशार यात्रा का आयोजन कर इन स्थानोके दर्शन एवं सौन्दर्यपान कर सकते है. चलती गाड़ी से ही हमने इन स्थानोको दर्शन कर श्री नगर शहरमे प्रवेश किया. झेलम नदी के किनारे बसे श्रीनगर शहरकी सुंदरता देखते देखते हम दलझील पहोंचे. होटेलका पत्ता पूछकर ५.०० बजे हम ‘होटेल ग्रीन सिटी’ पहोंचे. होटेल शहरके मध्यमे दलझीलके समीपवर्ती है. होटेलमें चेक इन करके रूम में फ्रेस होकर चाय नास्ता कर तैयार हो गये. हमारे साथी शिवदासभाई अपनी पत्नि निर्मलाबेनके पैरका इलाज करवाने होटेल से जानकारी लेकर हॉस्पिटल गये. बाकि हम सब साथी पैदल पैदल दलझील की किनारे पहुंचे.

श्रीनगर: समुद्र सतहसे ४५०० फुट की ऊंचाई पर बसा श्रीनगर काश्मीरकी ग्रीष्मकालीन राजधानी एवं काश्मीर का मुख्य शहर है. झेलम नदीके दोनों किनारे पर बसा यह सुन्दर शहर ‘पूर्वका वेनिस’ माना जाता है. श्री नगरमे वेनिस का जलविहार एवं स्विट्जरलैंड का सौन्दर्य दोनों एक साथ है. आधुनिक सुविधा युक्त यह शहर अति प्राचीन है. इतिहासकार इसे सम्राट अशोक द्वारा निर्मित मानते है. यहाँ राजा कनिष्कने बौध धर्म परिषद बुलाई थी. श्रीनगर का सौन्दर्य वैभव महाराजा प्रवरसेन के समयमे खूब बढा था. झेलम नदीके दोनी किनारे पर यह शहर दूर दूर तक बसा है. हवाई सेवा से भारतके मुख्य शहरों से जुड़ा हुआ है. झेलमका पानी यहाँ स्थिर है इस लिए पर्यटन एवं माल सामान की आवाजाही शक्य बनी है.
दल झील शाम के समय
 दल झील शाम के समय
दल झील शाम के समय
शामके समय दलझीलका सौन्दर्य और भी निखरता है. झीलके किनारे बनी फुटपाथ पर सहलानीयों की चहलकदमी, खानपान की रेकड़ी वालोंका शोरगुल, शिकारेमे बिठाकर घुमानेके लिए सहलानीयो को आकृष्ट करनेकी शिकारे वालोँ की चेष्टा से यहाँ का द्रश्य जिवंत लगता है. पर्यटन विभाग द्वारा दो मंजिला खुल्ली बसमे सहलानीओ को बिठाकर झीलका लम्बा चक्कर लगाने वाली बस घूम रही थी. झीलके सामने दूर तक होटेल, रेस्टारेंट एवं मार्केटकी लाइन है. दलझिल पर शामका यह द्रश्य पर्यटकों के लिए आकर्षण केंद्र है. हालांकी जुनके आखरी दिनों मे पर्यटन का सीजन अंतिम दौरमें रहता है. सहलानीकी संख्या अपेक्षाकृत कम थी, वहां झीलकी पायरी पर बैठकर हम शामका मजा उठा रहे थे. इतनेमे जोरावरनगर गुजरातके हमारे ही समाज बंधू युवान मिल गये उनका परस्पर परिचय हुआ. वह युवान अमरनाथ यात्राके लिए जा रहे थे. इन दिनों यहाँ का वातावरण खुशनुमा रहता है. रात ८.०० बजे वहां से चलकर मनीष द्वारा बताये श्री कृष्णा रेस्टारेंट में जाकर रात्रि भोजन किया. रिक्षासे होटल पर वापस आ गये. शिवदासभाई के लिए भोजन पेक करके लाये थे. निर्मलाबेनके पैरमें X Ray से फेक्चर दिखाई दिया था, डोक्टरने प्लास्टर लगानेकी सलाह दी थी, परंतु यात्रा में असुविधाके कारण क्रेप बेंडेज बंधवाकर तात्पुरता इलाज करवाया था. अगले दिन हमें श्रीनगर शहर में ही घूमना था. सुबह देर से तैयार होकर निकलने का आयोजन कर मैंने दैनिक डायरी लिखकर विश्राम किया.

दिन ६ ठा दिनाक १/७/२०१५ श्रीनगर दर्शन
आज सुबह देर से तैयार हुए, महिलाओने मोका देख सप्ताह भरके कपड़े धोकर होटेलके रुममे सुखाने के लिए लटका दिए थे. रेस्टारेंट में छोला-पूरी का नास्ता कर श्रीनगर दर्शन के लिए गाड़ी में बैठकर भगवद नाम स्मरण करते हुए निकल पड़े. सबसे पहले दलझीलके सामने स्थित शंकराचार्य पहाड़ी गये. पहाड़ी चोटी पर स्थित शंकराचार्य मंदिर पर जाने के लिए निचे सुरक्षा जाँच कर गाड़ी ऊपर ले जानेका पंजीयन करवाना पड़ता है. मंदिर तक जानेके लिए २४० सीढ़ीयाँ चड़ना पड़ता है.
 शंकराचार्य मंदिर 
 शंकराचार्य पहाड़ी से श्रीनगर का विहंगम दृश्य
शंकराचार्य पहाड़ी से श्रीनगर का विहंगम दृश्य
 शंकराचार्य पहाड़ी से श्रीनगर का विहंगम दृश्य
शंकराचार्य पहाड़ी से श्रीनगर का विहंगम दृश्य
शंकराचार्य पहाड़ी: दलझीलके सामने एक हजार फुट ऊँची पहाड़ी है. मुस्लिम इसे तख़्त-ए-सुलेमान कहते है. इस पहाड़ीकी चोटी पर अति पुरातन काले पत्थर से बना सुंदर शिवालय है. ईतिहासकार के मुताबिक यह मंदिर २०० ईशा पूर्व बना है. इसे राजा संदिमानने बनवाया था तत्पश्चात राजा गोपीद्वित्य और सम्राट अशोक पुत्र जयलोकने इसका जीर्णोद्धार करवाया था. पहाड़ी पर जानेका सुंदर मार्ग है. आदि शंकराचार्यने काश्मीरमें हिन्दू धर्म-मूर्तिपूजाकी पुन: प्रतिष्ठा की थी तब यहाँ रहकर कश्मीरी पंडित अभिनव गुप्त जैसे प्रखर धर्मवेता और अन्य पंडितो के साथ शाक्त सम्प्रदाय बाबत शास्त्रार्थ किया था. शिवालय के पासमें शंकराचार्य की तपस्चर्या स्थली और उनकी प्रतिमा है. पहाड़ी की तलेटी में शंकरमठ है. अभ्यासु को यहाँ जरुर जाना चाहिए. यहाँ हम सबने दर्शन कर शंकराचार्य रचित श्री कृष्णाष्टकम् का परायण किया. मंदिर के पीछे गौरीकुंड है. यह मंदिर परिसर मनोरम्य है. यहाँ से चारो तरफ श्रीनगर शहर एवं दलझीलका सुंदर द्रश्य देखा जा शकता है.


 निशांत बाग
 निशांत बाग

 निशांत बाग
 निशांत बाग
 निशांत बाग
 निशांत बाग
 निशांत बाग
 निशांत बाग
 निशांत बाग
 निशांत बाग
 निशांत बाग
निशांत बाग
  निशांत बाग
  निशांत बाग

निशांतबाग: श्रीनगर से १८ कीमि दूर दलझील के सामने काश्मीरके सबसे बड़े मोगल बगीचेका निर्माण नूरजहाँ के भाई और शाहजहाँ के श्वसुर आसफखान ने १६३३ में करवाया था. यह उधान ५४४ मीटर लंबा और ३२८ मीटर चौड़ा है. पहाड़ी ढलान पर दस सीढ़ीनुमा पगथी बांधकर इसकी रचना की गई है. कई तरह के फुल और फलके पौधे लगाए है. चिडके वृक्षोंकी लंबी कतारे पर्यटकोंको अपनी और आकर्षित करती है. पहाड़ी से गिरते पाकृतिक झरनेके प्रवाह को मोड़ कर पत्थर की छोटी छोटी नहरोको कृत्रिम रूपसे मोड़ कर जल प्रपात एवं १२९ फवारे बांधकर यह नंदनवन बनाया है. इन बगीचों का साफ सफाई एवं रखरखाव आजभी चुस्त दुरस्त है. मेरी द्रष्टि यह भी तीर्थ है. हमने यहाँ स्थानिक फोटोग्राफर द्वारा कश्मीरी वेशभूषा पहनकर यादगार फोटोग्राफी करवाई. जिसकी प्रिंट तुरंत मिल जाती है.बगिचेकी सुंदरता अत्यंत मनोहारी है. मैंने अभी तक देखे बाग-बगिचोमे यह सर्वश्रेष्ठ बगीचा लगा. २ घंटे समय व्यतीत कर बगिचेके बहार फ्रूट खाए और कश्मीरी आइसक्रीम फालूदा का आंनद लिया. यहांसे आगे शालीमार गार्डन गये.
 शालीमार बाग: 
 शालीमार बाग: 
शालीमारबाग: 
शालीमारबाग: श्रीनगर से १५ कीमि दूर पर स्थित इस बागको बादशाह जहांगीरने अपनी बेगम नूरजहाँ के लिए बनवाया था. मोगल शैलीके अन्य बाग बगिचेकी तरह यहाँभी पहाड़ीकी ढलानको ४ सीढ़ीनुमा पगथी बांधकर बनाया गया है. यहाँ भी कई तरह के फुल और फलके पौधे लगाए है साथमे चिडके पौधोकी लंबी कतारे पर्यटकोंको अपनी और आकर्षित करती है. रातको प्रतिदिन यहाँ लाईट और साउंड का कार्यक्रम यहाँ आयोजित होता है. यहाँ फोटोग्राफी कर थोड़े समय आराम कर बगिचेके सामने की बाजार से कपड़ो की खरीदी कर आगे चस्मा शाही उधान गये.

चश्माशाही:
चश्माशाही: इसे शाही बाग भी कहते है. प्रमाणमें अन्य मुग़ल उधान में यह छोटा है. इसका निर्माण शाहजहाँने १६३२ में करवाया था यहाँ बगीचे के मध्यमे एक पानीका स्त्रोत है जो इस बागकी सुंदरता दुगनी करता है. इसका पानी पेटकी बिमारिमे असरकारक है. यहाँ लेटकर हमने दोपहरका आराम किया. वहां से  चायपानी करके दलझीलमें शिकारे में बैठकर शैर की.

हजरतबल दरगाह: शहरके भीडभाड वाले इलाके से आगे दलझीलके पश्चिम तट पर यह दरगाह है. सगेमरमर से अरबी वास्तुकलाके आधार पर बनी एक मीनार एवं एक गुम्बद वाली इस दरगाहमें महमद पयगम्बर साहेबका एक बाल सुरक्षित रखा गया है. विशेषकर जुम्मेको यहाँ बड़ी तादादमें नमाज अदा की जाती है. योगानुयोग रमदानका पाक महिना चल रहा था और आज शुक्रवार था भारी भीडभाड थी हम बाहरसे दर्शन कर वापस आगये.

दशनाम अखाडा: परम्परा अनुशार अमरनाथ यात्रा के समय छड़ी यहाँ से निकलकर अमरनाथ जाती है और यात्रा पूरी होनेके बाद छड़ी वापस यहीं रहती है.
इंदिरागांधी ट्यूलिप गार्डन

 इंदिरागांधी ट्यूलिप गार्डन
सिराजबाग “ट्यूलिपगार्डन”: सिराज बाग या इंदिरागाँधी ट्यूलिप गार्डन, दलझीलके किनारे स्थित एशिया का सबसे बड़ा ट्यूलिप फूलो का बगीचा है. इसमें सीज़न के समय ३,५०,००० से अधिक फुल एक साथ खिलते हुए देखनेका अनोखा नजारा देखने मिलता है.

दलझील: 
श्रीनगर शहरके किनारे स्थित दलझील ८ कीमि लंबी और २-४ कीमि चौड़ी है. यह झील झेलम नदी के साथ जुडी हुई है. दालगेट नामक दरवाजे से झेलमका पानी तालाबमे नियंत्रित होता है. इस झीलमें तैरती होटले शिकारे हाउसबोट उपलब्ध है. झील में तैरते बाजार, होटेल,दुकाने, है. मानों झील अपने आपमें एक शहर है.

दल झील
दलझिल शिकारा
 दलझिल शिकारा
दलझिल शिकारा
दलझिल शिकारा
दलझिल शिकारा
हरी पर्वत किल्ला:
हरी पर्वत किल्ला: हरी पर्वत या ‘प्रभु पर्वत’ पर स्थित देवी शारिका, जिसे दुर्गाका रूप माना जाता है, का मंदिर है. जो हिन्दुओका पवित्र स्थल है. यहाँ श्री यंत्रकी पूजा होती है. वर्तमानमे यह किल्ला खँडहर बन गया है.

अन्य स्थालोमे रघुनाथ मंदिर, सर प्रतापसिह म्यूजियम, छट्टी पादशाही गुरुद्वारा, परीमहल, हरवन सरोवर, नगीना सरोवर, असीम बाग, रोझबल, हारवान, आदि छोटे बड़े दर्शनीय स्थल है सहलानी अपनी रूचि अनुशार वहां जाते है. 
          
शामको श्री नगरमें  घूमफिर कर दलझीलके किनारे दिल्ही दरबार नामक रेस्टारेंटमें शाम का भोजन कर होटल वापस आये. अगले दिन गुलमर्ग जा कर वापस लौटना था इसलिए जल्दी तैयार होकर निकलनेका आयोजन कर रुममे विश्राम किया. मैंने यात्रा दरम्यान रातको दैनिक यात्रा वृतांत लिखनेका उपक्रम चालू रखा था.

दिन ७ वा दिनाक २/७/२०१५ 
श्रीनगर-गुलमर्ग-श्रीनगर:
सुबह जल्दी तैयार हो गये आज नास्तेमें फरमाईश से आलूपोहा बनाया था ब्रेड-बटर चाय के साथ नास्ता करके प्रस्थान किया. प्रभु प्राथना कर गुलमर्ग के तरफ निकल पड़े गाड़ी ड्रायवर मनीष खत्री (अम्बाला-हरियाणा), सरल और मिलन सार स्वाभावका हमारे ग्रुपमे साथी बन गया था. हम उसे अपना साथी सदस्य मानकर व्यवार कर रहे थे. युवान रहते हुए भी शांत एवं गंभीरता से पहाड़ीमें गाड़ी चला रहा था. लंबी यात्रामें ऐसा अनुकूल साथी चाहिए जो, भगवद कृपा से हमें मिला था.

सुबह श्रीनगर शहर अभी शांत था. लाला चोक से हम पास हो रहे थे. यह लाल चोक केवल श्रीनगर ही नहीं सारी कश्मीर घाटीका राजनीति एवं जन आंदोलन का केंद्र बिंदु है. आये दिन यहाँ दंगे फसाद, कर्फ्यू लगा रहता है. श्री नगर के मध्यमे व्यापारिक इलाके में स्थित लाला चोक के आजूबाजू कश्मीर घाटीका प्रमुख बाज़ार केंद है. सरकारी ओफ़िस, कोर्ट, कचेरी से भरा यह विस्तार दिन के समय अत्यंत व्यस्त रहता है. झेलमके दोनों किनारे बसे श्रीनगर को १० से अधिक पुलों से जोड़ा गया है. श्री नगर काफी विस्तारमे फैला शहर है. ३०% में दलझील एवं झेलम नदी है. यहाँ शर्दीयोमे बर्फ जमी रहती है. पर्यटन उद्योग के अलावा हस्तकला से निर्मित ऊनि वस्त्र, चीज वस्तु, केसर, पहाड़ी विस्तारसे लायी शिलाजीत, कस्तूरी, अखरोट जैसे सुखामेवा आदि वस्तुओका अन्तरराष्ट्रीय व्यापार यहाँ से होता है. यहाँ की जीवन आवश्यक वस्तु निच्चे जम्मुके बाजारसे आती है. यहाँ की औसतन प्रजा मध्यमसे निम्न वर्ग की पर्यटन उद्योग पर आधारित है. घाटीमें जमीन समतल होनेसे खेती होती है. पहाड़ी विस्तारमे भेड़, बकरी आदि पशुपालन पर ही निर्भरता है.
    
गुलमर्ग श्रीनगरसे ५२ कीमि की दुरी पर स्थित है. गुलमर्ग से १५ कीमि पहले तंगमर्ग से पहाड़ी चढाई शरु होती है. तंगमर्ग से हमने प्रतिव्यक्ति १३०/- के हिसाब से गर्म ओवरकोट और गमबूट किराये से लिए जो १४००० फुट की ऊंचाई पर बर्फमे उपयोगी रहते है. वहां कोफ़ी पीकर आगे बढे. रास्तेकी पहाड़ी ऊंचाईका रास्ता चिड, देवदार के सघन जंगल से गिरा हुआ है. पुरा मार्ग मिलिट्री निगरानिमे सुरक्षित है. गुलमर्ग पहोंच कर गाड़ी पार्किंग में रखी. वहां का वातावरण एवं द्रश्य अलोकिक है. मैदानके बिच छोटी पहाड़ी पर पुरातन शिवमंदिर है. जहाँ पर राजेशखन्ना-मुमताज़ ‘आपकी कसम’ फिल्मकी सूटिंग हुई थी. 
 गुलमर्ग शिवमंदिर
  गुलमर्ग 
  गुलमर्ग शिवमंदिर
गुलमर्ग

गुलमर्ग: ८२०० फुट की ऊंचाई पर फुलोकी घाटी (Meadow)के नाम से प्रख्यात गुलमर्ग का पुरातन नाम “गौरी” था. सं १५८१ में युसूफशाह ने इसका नाम गुलमर्ग कर दिया. वसंत ऋतूमें यह स्थान सर्वत्र फुलोसे आच्छादित हो जाता है. स्वतंत्रता पहले अंग्रेज रेसिडेंट का यह ग्रीष्मकालीन निवास स्थान था. यहाँ उन्होंने मिनी इंग्लेंड खड़ा कर दिया है. यहाँ टेनिस कोर्ट, गोल्फ मैदान, सुविधा युक्त सुंदर मकान गुलमर्ग के पाकृतिक सौन्दर्यमें वृधि करते है. यहाँ शर्दियोमें बर्फ ढके मैदान पर स्कीइंग और बर्फ के अन्य खेल की मजा लेने देश विदेशोसे हजारो पर्यटक उमड़ पड़ते है. यहाँ खिलन मर्ग (४ कीमि), लिईनमर्ग, फिरोजपुर नाला, निन्गल नाला (१० कीमि), अलपाथेर झील (१३ कीमि)आदि अन्य दर्शनीय स्थल है. गुलमर्ग में आधुनिक केबल कार (Gondola) के दो चरण की राइड से १४००० फुट की ऊंचाई पर बर्फ ढकी चोटियों पर जाने की सुविधा है. घुड़सवारी करके पर्वतीय सौन्दर्यका आनंद उठा सकते है.

गुलमर्ग गंडोला
यहाँ से १००/- व्यक्ति घोडासवारी कर गंडोला स्टेशन तक गये, वहां से गंडोला में २ स्टेज की प्रति व्यक्ति टिकिट १४००/- लेकर गोंडाला स्टेशन गये. (प्रथम स्टेज खिलनमर्ग तक ६००/- द्वित्य और अंतिम स्टेज ८००/-) एक गोंडाला में अधिक से अधिक ६ व्यक्ति बैठते है. प्लेटफार्म से ही गोंडाला की सीधी खड़ी चढाई शरू हो जाती है गोंडालाकी प्लास्टिक खिड़की से पहाड़का दर्शय देखना रोमांचकारी अनुभव है. पुरानी केबल कार सर्विस बाजुमे जीर्णशीर्ण अवस्था में है, खिलन मर्ग तक एक स्टेज १०-१५ मिनटमें पूरा होता है. यहाँ बहार निकलकर आजूबाजूका सौन्दर्यपान करके आगे के स्टेज की लिए जा सकते है. दूसरा स्टेज काफी ऊंचाई पर है यहाँ पहाड़ पर पेड़ कम होते हुए चोटी पर बिलकुल नहीं है आखरिमे तो केवल पत्थर ही पत्थर और मिटटी है अंतिम स्टेज १४००० फुट की ऊंचाई पर है.
     
यहाँ पहोचने के बाद का द्रश्य ही बदल जाता है चारो तरफ ऊँचे ऊँचे बर्फ ढकी पर्वतमाला वातावरण नम और ठंडा था, हवाभी पतली थी. पहाड़ थोड़े थोड़े अन्तरालमे काले बादलोसे ढक जाता था. यहाँ ओक्सीजनकी कमी महसूस होती है. यहाँ पर्यटकों की चहलकदमी से बर्फ मिटटी से गंदी दिखती है. यहाँ हमसे पहले आये सेंकडो पर्यटक उपरकी बर्फ ढकी चोटियों पर बर्फका मजा ले रहे थे. यह देख हमारा मन उपर चढनेको उतावला होने लगा.

गंडोला से गुलमर्ग
ओक्सीजन की कमीसे साँस फूलने के कारण और बर्फकी फिसलन से खड़ी चढाई चढना हमारे जैसे अनुभवहीन के लिए अत्यंत कठिन है. यहाँ से और ऊपर जाने के लिए, पहाड़ी गुज्जर मजदुर द्वारा रस्सी से खीचनेवाली लकड़ीकी स्लेज गाड़ी पर बिठाकर ले जाने वाले ५५०/-प्रति व्यक्ति के हिसाब से नक्की किया. स्लेज पर बिठाकर खिचनेवाला कार्य मानवीय द्रष्टि से थोड़ी क्रूरता दिखती है. पर आखिर उनकी आजीविका की बात है, ऐसा मानसिक समाधान मानकर स्लेज पर सवारी की. सीधी और ऊँची चढ़ाई पर मानव बोज खीचकर चलने वाले मजदुरका श्वास भी भर जाता है, वह भी रुक रुक चलता है. बिचमे उसके साथी सवारी के पैरो को पकड़ पीछे से उपरकी और धक्का देकर ऊपर चढाने में मदद करते है. बिच बिचमे अनुभवी मजदुर का पैर भी बर्फमे फिसल जाता है. हमारे साथी निर्मला बेन की स्लेज फिसल गई, पहले से पैरमे फेक्चर तो था ही और दुबारा ऊंचाई से स्लेज और खिचनेवाला के साथ पलटी खाते हुए २०-२५ फुट निचे गिरे. पर यहाँ नर्म बर्फ थी जिससे ज्यादा चोट तो नहीं लगी खंधे पर कुछ अंदरूनी चोट लगी थी. यह संयोगही था की उनके साथ ही यह छोटासा हादसा हुआ. लेकिन हिम्मत से खड़े होकर फिरसे आगे बढे. ख़ैर साहसिक यात्रा में इस तरह के अनुभव अन्य पर्यटकों के साथ भी होते रहते है. आगे थोड़ी ऊंचाई पर प्लास्टिक की तीन रस्सी से कच्ची बाउंडरी बनाई थी जिसे LOC कहकर स्लेजवाले पर्यटकोंको वहांसे आगे जाने से रोकते है. मिलेट्री जवानो को पूछने पर उन्होंने इसे सरासर गलत बताया LOC यहाँ से काफी दूर है. इससे आगेभी स्कीइंग कर पीछे पर्यटक को खड़ा कर और आगे ले जाकर अतिरिक्त कमाई करनेका यह तिकडम खड़ा किया है.

गुलमर्ग बर्फ पर खेल
गुलमर्ग बर्फ पर खेल
गुलमर्ग बर्फ पर खेल
गुलमर्ग बर्फ पर खेल
गुलमर्ग बर्फ पर खेल
 गुलमर्ग बर्फ पर खेल
गुलमर्ग बर्फ पर खेल
व्यक्तिगत मैं ऊनके मना करने के बावजूद भी हिम्मत कर बर्फमे पैर जमा जमाकर वहांसे चोटी तक जाकर आया हु. जहाँ पहले अन्य पर्यटक बर्फका आनंद उठाकर फोटोग्राफी कर रहे थे. मने भी वहां इंस्टेंट फोटोग्राफर से फोटो खिचवाई. उपरसे वाकई में नजारा अदभुत दीखता है चारो तरफ बर्फ ही बर्फ इतनी भारी बर्फके बिच रहनेका यह जीवन का प्रथम अवसर था. हमारे अन्य साथी कच्ची बाउंडरीके पास ही खड़े रहकर बर्फका आनंद ले रहेथे. मैंने यहाँ अन्य पर्यटक ग्रूपके साथ कुत्रिम बर्फबारीका आनंद उठाया. वहांसे ढलानके निचे कुछ भी दिखाई नही पड़ता. यदि यहाँ से फिसले तो सीध्धे निचे गहरी खाई में. यहाँ से मै वापसी उतराई में तिरछे तिरछे पैर जमा कर निचे उतर रहा था. थोडा चलने पर एक स्कीइंग वाला मेरे पीछे आकर कहा चलो आपके साथी वापस लोटनेमे आपका इंतजार कर रहे है. उसने मुझे अपनी कमर पकडवा कर स्की के पीछे खड़ा करवाया बर्फ पर फिसल कर स्कीइंग करनेका यह मेरे प्रथम अनुभव था. स्की से सडसडाट निचे उतराई रोमांचकारी अनुभव है. अन्य साथीओ के अलग यह मेरा विशेष अनुभव था. वहां बाकि साथी वापस लोटने के लिए तैयार थे मेरा इंतजार हो रहा था. स्लेज गाड़ी से ऊपर चलने की अपेक्षा निचे उतरना खतरनाक है बर्फ की ढलान पर स्पीड से स्लेज फिसल कर निचे गिरते जाती है. जिसे सम्हालना भारी खतरनाक है. अक्सर स्लेज वाले ढलान पर गिर जाते है हालाकी बर्फ नर्म रहती है जिससे कोई विशेष मार नहीं लगती. यह भी इस बर्फके खेलका अनोखा आनंद है. जो हम सब उठाकर निचे गोंडाला स्टेशन तक पहुँच गये.

यहाँ पहरा भर रहे फौजी के साथ बातचित कर उनके साथ फोटो खिचवाये. और गोंडाला में बैठ कर वापस निचे उतर आये गोंडाला स्टेशन से पैदल चहलकदमी कर पार्किंग तक आये. यहाँ के रेस्टारेंट में भोजन किया. और यहाँ से वापसी सफ़र के लिए गाड़ी में रवाना हुए. रास्तेमे एक व्यु पॉइंट पर जाकर फोटोग्राफी के लिए रुके. वहां पहले से बैठे शीख परिवारकी बुजर्ग महिला हमें गुजराती में बोलते सुनकर गुजरातीमे हमसे अभिवादन किये. यह सुनकर हमने उनसे बातचीत कर जाना की वह पहले गुजरात के कलोल में सर्विस करते थे वर्तमानमे न्यू जर्शी अमेरिकामें रहते है. 
गुलमर्ग से लौटते समय
गुलमर्ग से लौटते समय

गुलमर्ग के रास्ते दुर्गम पहाड़ो में हमारे अभिवादन का प्रतिवादन करता सुरक्षाकर्मी जवान
गुलमर्ग से लौटते समय तंगमर्ग उनके साथ फोटो खिचवाकर आगे बड़े. तंगमर्ग में किराएसे लिए कपडे और जुत्ते वापस लौटाकर काफी चाय पीकर श्रीनगर के तरफ लौट चले. दिन रहते हम श्रीनगर पहोंच गये थे. श्रीनगर के प्रमुख दर्शनीय स्थल पहले ही देख लिया था. होटेल पहोंच कर आराम किया. शामका भोजन करने की इच्छा नहीं थी. अपने साथका नास्ता कर श्रुधा तृप्ति कर ली. नागपुर से चले ७ युवान आज श्रीनगरमें हमारे साथ मिलकर अमरनाथ की यात्रा करनेवाले थे. वह अन्य होटेलमें पहोंच गये थे. उनका मोबाईल द्वारा संपर्क हुआ. कल सुबह साथमें निकलनेका आयोजन कर हमने अपने रूम में डायरी लिखकर विश्राम किया.

दिन ८वा दिनाक ३/७/२०१५ 
श्रीनगर से बालताल यात्रा केंप:
सुबह ७.३० बजे तैयार होकर सामान गाड़ी में जमाकर नास्ता किया. होटेलसे चेक आउट कर गाड़ी में बैठकर प्रभु स्मरण कर प्रस्थान किया. हमारे साथी युवान सुबह जलदी तैयार होकर निकल गये थे. रास्तेमे मुलकात होंगी अन्यथा बेस केंप में ही मिलंगे इस तरह फोंनसे बात चित हुई. श्रीनगर शहर से राजमार्ग NH 1A से सोनमर्ग होते हुए बालताल का रास्ता है. श्रीनगर शहर से ही अमरनाथ यात्रा की चेकिंग शरू हो जाती है.

खीरभवानी (क्षीरभवानी) मंदिर: 
आगे गांधरबल होकर खीरभवानी का रास्ता है. गांधरबल से ४ कीमि आगे तुला-मुला गाँव में क्षीरभवानी माता का मंदिर है. चावलके हरेभरे खेत, पोपलर, अखरोट, विलो के वृक्षोंके बिच बसे तुला-मुला गाँव के नजदीक झरने के बिच एक छोटेसे द्वीप पर रागिनिया देवी (दुर्गा का एक रूप) माता का मंदिर है. यहाँ झरनेका पानी रंग बदलते रहता है. कभी गुलाबी, कबी दुधिया तो कभी हलका हरा दिखाई देता है. मंदिर परिसरके विशाल वृक्ष, मंदिर की पुरातनता बयाँ करते है. हम गये तब माताजी की आरती चालू थी हम सब आरतीमे जुड़कर माँ के दर्शन कर प्रसाद लिया. यहाँ लंगर में खिरका प्रसाद ग्रहण किया यहाँ माँ को खीर शक्कर, और किसमिस का भोग चढ़ता है. यहाँ रात्रि निवास और भोजन की उत्तम व्यवस्था है. संगमरमर से निर्मित मंदिर का गुम्बद सोनेका है. पवित्र अमरनाथ के बाद काश्मीर में हिन्दुओका पवित्र तीर्थ है.

यहाँ से आगे की यात्रामे गांधरबल-कंगन-सोनमर्ग होकर बालताल पहोंचते है. कंगन तक मैदानी विस्तार है. आगे रास्ता हरीभरी पहाड़ी चढाई वाला है. एक तरफ पर्वतोंकी ऊँची चढाई निचे खाई में तेज गति से बहने वाली सिंध नदी (सिन्धु नहीं) यह नदी पञ्चतरणी से बहकर आती है. बर्फाच्छादित पहाड़ी शिखर पर बर्फ झरनेके रुपमे पिघलकर निचे नदीमे मिलता है. कही कहीं पर बर्फ के ग्लेशियर के निचेसे नदी बहती है. मानों बर्फ का पुल बन गया हो. रास्तेमे सोनमर्ग के पास नदी किनारे होटेल बने है. इनमेसे एक होटेलमे हमें ७ जुलाई को लेह जाते समय रात्रिनिवास करना है.

सोनमर्ग: श्रीनगर से ९० कीमि दुरी पर ८२०० फुटकी ऊंचाई पर बसा सोनमर्ग काश्मीरका एक मनोरम्य सौन्दर्यधाम है. वसंत में खिलने वाले सुवर्णरंगी फुलोके कारण यह सोनमर्ग नाम पड़ा है. यहाँ से १३ कीमि दूर बालताल है. जहाँ से एक पैदल रास्ता अमरनाथ जाता है. बालताल के ऊपर राजमार्ग NH 1A के ऊपर झोजीला घाट शरु होता है. यहाँ से लदाख क्षेत्रमें प्रवेश होता है. श्रीनगर से सोनमर्ग-झोजीला घाट-द्रास-कारगिल-लेह लदाख होकर हिमाचल प्रदेश के मनाली, कुल्लू रास्ता जाता है. अमरनाथ यात्रा के बाद द्वितीय चरण की यात्रा इसी रास्ते से होने वाली है. सोनमर्ग के बाजुमे खजियार हिमनदी दर्शनीय है. सोनमर्ग विशेष पाकृतिक द्रश्य वाला स्थान है. यहाँ बहोतसी पहाड़ी झीले है. यहाँ थाजेवास ग्लेसियर मुख्य आकर्षण केंद्र है. यहाँ पर्यटकों के रहने के लिए कई होटले है. यहाँ शर्दियोमे बर्फ का मजा लेने पर्यटक आते है. 
मर्ग: कश्मीर में बहोतसे स्थान है जिनके नाम अंतमे मर्ग शब्द आता है. जैसेकी गुलमर्ग, सोनमर्ग, खिलनमर्ग, तंगमर्ग आदि. कश्मीरी भाषा में ‘मर्ग’ शब्द का अर्थ है Meadow घास-फूलो से भरा मैदान. घास-फूलो से भरे नयनरम्य मैदानके लिए यहाँ ‘मर्ग’ शब्द वापर है. 
नाग: ऐसे ही बहोतसे स्थान के अंतमे ‘नाग’ शब्द है. वेरीनाग, अनंतनाग, कोसरनाग, कोकरनाग वगेर. कश्मीरी भाषामें ‘नाग’ याने झरना.  उपरोक्त सब जगह सुन्दर झरने है जिससे इनके के लिए नाग शब्द वापरा है.

बल: यहाँ स्थानोके नाके अंतमे ‘बल’ शब्द आता ही. खन्नबल, अछ्बल, मानसबल गांधरबल आदि ‘बल’ याने स्थान वाचक या क्षेत्र वाचक शब्द है. हजरत बल याने हजरत नामक क्षेत्र.
“ला”: यह लदाखी या तिब्बती शब्द है. ‘ला’ याने घाट, पास. बड़े पर्वत पहाड़ को पास करने वाले स्थान को ‘ला’ कहत है. विश्व के १८००० फुट ऊँचाई पर सबसे ऊँचे मोटर यातायात रास्ते लदाख में खार्दुनगला पास, तांगलांगला पास, छांगला पास है.

यहाँ से हमारी यात्रा का द्वित्य चरण ‘अमरनाथ यात्रा’ शरू होता है. सोनमर्ग से आगे बालताल बेस केंप का रास्ता निचे की तरफ राजमार्ग NH 1A से अलग हो जाता है. रास्तेपर बालतालका बोर्ड न होने के कारण हम गलती से ५-६ कीमि आगे की तरफ निकल गये थे, सामने हमारे जैसी गलती करने वाले वापस आ रहे थे. उन्हें पूछकर हमने भी गाडी वापस ली. बालताल यात्रा के बेस केंप के पहले ‘निलगर्थ’ में अमरनाथ यात्रा के लिए उड़ने वाले हेलिकोप्टर का हेलीपेड है. आगे बेस केंप का पार्किंग स्थल बहोत विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है. हमने हमारे युवान साथी से फोन से जानकारी लेकर उनके बताए अनुशार पार्किंग-२ में गाड़ी खड़ी कर उनका इंतजार किया. थोड़ी ही देर में वह २ सामान उठानेवाले २ मजदुर को लेकर हमारे पास आये. यहाँ हमारे पूर्व निश्चित कार्यक्रम अनुशार यात्रा दरम्यान अति आवश्यक सामान १ बेगमे लेना था बाकिका सारा सामान गाडी मे ही रहने वाला था. कल यह गाडी मनीष लेकर ५ जुलाई की सुबह तक वापस श्रीनगर-अनंतनाग होते हुए पहलगाम लेकर जाने वाला था. जहाँ ५ जुलाई की सुबह यात्रा कर हम पञ्चतरणी से पहलगाम पहोचने वाले थे.
    
सुरक्षा की द्रष्टिसे बालताल यात्रा आधार केम्पमे आनेवाली सारी गाड़ीयाँ एवं यात्त्रीओ की कड़ी सुरक्षा जाँच कर केम्पमे प्रवेश दिया जाता  है. हमारी एवं सामान की जाँच करवा कर, युवान साथी द्वारा पहले से ही आरक्षित किये केंप (तम्बू) में गये. यहाँ प्रति व्यक्ति १५०/- के हिसाब से पलंग किराये पर मिलते है. एक तंबू में १०-१२ व्यक्ति की सुविधा हो सकती है. वहां बाकि सारे युवान से मिलकर उनके हाल चाल कुशल मंगल पूछे. दोपहर का भोजन का समय हो गया था. लंगर में भोजन हेतु युवान हमारा रास्ता देख रहे थे. हमभी जलदी से फ्रेस होकर भण्डारे की तरफ चल पड़े. यहाँ अलग अलग सेवा संस्था के भण्डारे लगे हुए थे. हमने अमृतसर पंजाब की सेवा संस्थाके भण्डारेमें  जाकर लंगर प्रसाद लिया.

भण्डारा (लंगर): प्राय सभी धर्म संप्रदायमें अन्न दानका बहोत महत्त्व है. हमारे हिन्दू संप्रदायमें धार्मिक उत्सव, त्यौहार, यात्रा या तीर्थ क्षेत्रमे भोजनदान को पुण्यकार्य माना गया है. नवरात्रिमें माँ के धामों में पैदल यात्रि, हरिद्वारसे गंगाजल ले जाते कावड़िये, शहरोमे राम जन्म, गणेशचतुर्थी कृष्ण जन्म आदि त्योहारमे अन्नदान का महत्व बढ़ रहा है. ठीक इसी तरह अमरनाथ तीर्थयात्रा में अन्नदान या लंगर सेवा, सेवाकीय कार्यमें महत्वपूर्ण कार्य है. हमने देखा की काश्मीर घाटीमें रास्ते के सफ़र पर निश्चित स्थान जहाँ संभवित दोपहर या शाम होनेवाली हो ऐसी जगह यह भंडारे लगे हुए है. जहाँ खानपान का उत्तम प्रबंध रहता है. यात्रा दरम्यान रोड रास्ते वाले स्थान पर भंडारे की सारी व्यवस्था खडी करना संभव लगती है. परन्तु अमरनाथ यात्राके दुर्गम पञ्चतरणी, शेषनाग, पवित्र गुफ्फा के निच्चे अमरगंगा के तट पर बर्फ ढकी जगह पर विपरीत वातावरण में भंडारेकी सुविधा, घोड़े टट्टू पर ले जाकर खडी करना, रात दिन यात्रीओ की प्रेमपूर्वक सेवा करना यह वास्तवमे पुण्यकार्य है. यात्रा समय दरम्यान इन भण्डारो में शादी ब्याह में स्वरुचि भोज से भी अधिक तरहके पकवान, भोजन सामग्री बनती है. जिनमे प्रात:काल चाय-बिस्किट से लेकर सुबह तरह तरह के नास्ते, दोपहर और रातके  भोजनमें विविध पकवान युक्त पूर्ण भोजन सामग्री, इसके अलावा दिन भर गर्म नास्ता चाय, मेडिकल सुविधा, मुखवास. और यह सारी सुविधाए उत्तम से उत्तम क्वालिटी के साथ. और सबसे बड़ी बात यह निशुल्क, निस्वार्थ सेवा दिखावा या प्रदर्शन नही पर अंत:करण से सेवा भाव से हो रही है. प्रतियोगिता के इस युग में सेवा की प्रतियोगिता दिखाई देती है. भोले आओ ! भोले आओ ! भोजन के लिए प्रेमपूर्वक बुलाकर आग्रहपूर्वक यात्री को अपने भंडारे की सेवा लेने हेतु आकृष्ट करनेकी प्रतियोगिता यहाँ दिखाई देती है. प्रतियोगिता के इस युगमे सेवा भी पीछे नही है. यह सेवा केवल बाबा बर्फानी की प्रेरणा और प्रसाद से ही शक्य है. धन्य है यह पुण्यशाली जीव जिसे बाबाकी प्रेरणा से सेवा का अवसर मिलता है. इन भंडारे सेवाकी जितनी तारीफ, कद्र करो इतनी कम है. वह अपना कर्तव्य धर्म बजा रहे है. साथ साथ हम यात्री या सेवा लेने वाले का भी कुछ कर्तव्य धर्म है. तीर्थ का मुफ्त में नही खाना यह हमारा धर्मोपदेश है. स्वच्छता बनाए रखना, यह हम सब अनुशासन और विवेकबुध्धि से पालन करना चाहिए. तब यह सेवा कार्य की सुहास फैलती है.
 शिव भक्ति सेवा लंगर बालटाल
 शिव भक्ति सेवा लंगर बालटाल
 बालताल केंप
 बालताल केंप
 बालताल केंप
 बालताल केंप
 बालताल केंप
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बालताल केंप
इस प्रकारकी लंगर व्यवस्था का प्रसाद लेकर हम हमारे तम्बू में वापस लौटकर पलंग पर वामकुक्षी (दोपहरका आराम) के लिए लेटे. दोपहर ४.०० बजे तम्बू में बनाए कश्मीरी कहावा (मसाला युक्त कालीचाय) पिया. कल सुबह ३.०० बजे तैयार होकर यात्रा के लिए निकलना था तब तक केवल आराम करना था. पूर्वमें यात्रा कर चुके युवान और टेंट वाला अपनी यात्रा का अनुभव सुना रहे थे. जो हमारी यात्रा की पूर्व मानसिक तैयारी के लिए जरुरी था. हिमालय क्षेत्र की दुर्गम पहाड़ी यात्रा पैदल, घोड़े पर या पालखी से होती है. तंबू वाले के घोड़ो से, बालताल से लेकर पवित्र गुफ्फा के पहले २ कीमि तक हमारा सामान घोड़ेवाला उठाकर हमे घोडेस्वारी कराने के प्रति व्यक्ति १५००/- नक्की किये. हिमालय के पर्वतीय यात्राके घोड़े मैदानी विस्तार के घोड़े से अलग होते है. यह घोड़े (Ponney) पहाड़ी खच्चर है. दुर्गम रास्ते पर भारी बोज उठाकर चलते है. कच्ची पहाड़ी पगडंडी से पत्थर पर पैर जमाकर चलने में यह प्राणी माहिर है. इन यात्राओ में हजारो की संख्यामें प्रयुक्त होते है. प्राप्त जानकारी और अनुमान के आधार पर अमरनाथ यात्रा दरम्यान चंदनवाड़ी एवं बालताल मिलाकर २५००० घोड़े यात्रा में प्रयुक्त होते है. यहाँ स्थानिक गुज्जर समुदाय की आजीविका का यह मुख्य साधना है. शालके बाकि दिनों कुछ घोड़े वैष्णोदेवी या अन्य तीर्थक्षेत्रमे चले जाते है.
 बालताल केम्पके सामने ऊँचे पहाड़ो पर NH 1A झोजीला पास होकर गुजरता है यह रास्ते उपरकी और घूम फिर कर चड़ते है यह वह यहाँ से साफ दिखाई देते है. यहाँ का वातावरण साफ है. रातको इन घाटोसे गुजरने वाले वहानो की लाईट कई किलोमीटर दूर से निचेसे साफ दिखाई पड़ती है. कश्मीर और लदाख को जोड़नेवाले झोजीलापास की ऊंचाई ११५७८ फुट है. पश्चिममे हराभरा कश्मीर और पुर्वमे सुका बंजर और सुनसान लदाख है. झोजीला से द्रास नदी निकली है. यहाँ के केंपमें शौचालयकी व्यवस्था तो है लेकिन हमारा भारतीय मानस शौच नहीं है जाहिर व्यवस्था को अपना समजकर वापरना हम नहीं सीखे है. शौचालयकी स्थिति देखकर शौच करने का मन नहीं हुआ. सबने एक दिन प्रात:कर्म से निवृति लेने का मन बना लिया था. 

बालताल केंप
मनोद्वंद: अंधेरा होने पर लंगर क्षेत्र की रौनक बड जाती है. विशेष इलेक्ट्रिक लाईट से सज्जे भंडारेमें चहलकदमी थी यात्री अलग अलग भंडारे में जाकर स्वरुचि से मनभावन भोजनका आंनद ले रहे थे. कहीं पर भक्ति संगीत के ताल पर पैर थिरक रहे थे. ऐसे वातावरण में हमने भी अपनी रूचि अनुशार भोजन लिया, कहीं सुक्के मेवायुक्त गर्मागर्म दुग्धपान किया. आखिरमे मुखवाश की ७०-७५ आयटम मे से मुखवास किया. यह सब देखकर अंतर्मन में द्वंद उठ रहा था की यह भक्ति है ? या भक्ति के नाम से पर्दर्शन ? हालांकी व्यक्ति व्यक्ति इसका मुल्याकन जुदा हो सकता है. खेर जो हो हमें तो उसी प्रवाह में बहना था. लेकिन मन में एक सकारात्मक भाव था की ‘भगवान इस कलीकालमें भी “तूने” लोगो के मन में अपने (भगवान) प्रति भाव, भक्ति एवं विश्वास बनाए रखने के लिए ऐसी आधुनिक सुख सुविधा खड़ी करने की प्रेरणा, और शक्ति प्रदान की है.’ व्यक्तिगत स्वाध्यायी जिव, भक्ति के इस आधुनिक प्रकार को सीध्धे स्वीकारने को तैयार न होते हुए भी. आशावादी अभिगम से, जिव एवं शिव का भावमिलन जैस भी हो, बना रहना चाहिए यह महत्वपूर्ण है. यह मानस बनाकर सब स्वीकार कर प्रवाहमे बहते रहे.

लंगर भंडारा बालताल
आधार केंप में भारतभर से आये यात्री इधर उधर घूमकर समय व्यतीत करते है. कुछ लोग केंप में लगी दुकानोसे यात्रा उपयोगी वस्तुओ की खरीदी करते है. भोजन कर केंप में वापस लौटे. सुबह ३.०० बजे तैयार होकर यात्रा करनी थी सोनेका प्रयास किया लेकिन, यात्राकी उत्सुकता एवं ठंडी के कारण किसीको नीद नहीं आ रही थी. हिमालय पर्वतमाला के मध्यमे हिमाच्छादित पर्वतीय विस्तार, दिनमे सूर्यप्रकाश में ठंडी महशुस नहीं होती पर रातकी ठंडी जमा देने वाली रहती है. कपड़े के निचे गर्म इनर्वेअर ऊपर स्वेटर गर्म कोट हाथ पैरोमे गर्म मौजे मंकी टॉप आदि संपूर्ण गर्म वस्त्र परिधान करने ले बाद, ऊपर टेंट वाले के कंबल और गर्म रजाई ओढकर सोने के पश्चात भी ठंड्का अहसास हो रहा था. डायरी गाड़ी में थी इसलिए लिखना नहीं हुआ. हम जैसे कई यात्रिओके जीवन में ऐसी ठंडी में अस्थाई व्यवस्था में रात गुजारने का यह पहला अनुभव था. अर्धनिंद्रा में रात काटकर ३.०० बजे केवल मुखमार्जन कर कश्मीरी कहावा पीकर, सामान पेक कर तैयार हो गये.

दिन ९वा दिनाक ४/७/२०१५ अमरनाथ यात्रा:
सुबह ३.०० बजे हमारे पूर्व निर्धारित घोड़ेवाले हमें लेने केंप में आ गये थे. सवारी जोड़ी में हो तो घोड़े की भी जोड़ी रहती है. जिससे यात्रा दरम्यान अपना साथी अलग नही पड़ता. हम सबकी जोड़ी मुताबिक घोड़े वालोके साथ चल पड़े. घोडा स्टेंड पर हम को घोडेस्वारी करवाई, यात्राकी सिस्टम मुताबिक घोड़ेवाला अपना पहचान पत्र सवारी के पास जमा करवा देता है. यात्रा दरम्यान कुछ कम ज्यादा हो या घोड़ेवाला यात्री से बदसलूकी करे तो घोड़ेवाले की शीकायत मिलिट्र से कर सकते है. वालजी भाई एवं हम दंपति तीनो आखिर तक साथही चले थे, बाकि साथी  हमारे आगे पीछे थे. मनोमन भगवद नाम स्मरण कर यात्रा के लिए प्रस्थान किया. घोडास्टेंड से ही हलकी चढाई शरू हो जाती है. २ कीमि आगे ‘दोमेल’ नामक मुख्य जाँच चोकी आती है. जहाँ घोड़ेवाला यात्री को अपना सामान देकर उतार देते है. सारे घोड़े चोकी के किनारे से आगे निकलकर अपनी अपनी सवारी के इंतजार में आगे खड़े रहते है. यहाँ पहोचने पर ४.३० बज गये थे. हमने सोचाथा ३.०० उठकर निकलने वाले हम पहले यात्री होंगे पर यहाँ तो हमारे पहले कतार में सेंकडो यात्री लाइन लगा कर खड़े थे. अभी अँधेरा था लेकिन चन्द्र प्रकाश काफी था लंबी लंबी कतारोमें खड़े यात्री सुबह ५.०० बजे गेट खुलने की राह देख कर खड़े थे.

यात्रामार्ग में Access Control Gate
ध्वनी प्रसारण एवं रूबरू आकर पुलिसकर्मी यात्रा परमिटके तीन पास मे से एक को काटकर अलग करने की सुचना दे रहे थे. यहाँ सुरक्षा की द्रष्टि से यात्री तथा उनके सामान को खोलकर कडक जाँच होती है. आंतकवाद के प्रकोप से एवं पिछले समय केदारनाथ में हुई कुदरती आपदा के कारण यात्री परमिट देनेके नियम को कड़क हो गये है. पहले यात्रा परमिट की निश्चित तारीखके एक दो दिन आगे पहोंच गये यात्री को यात्रा की छुट मिल जाती थी. सरकारने बेंको के माध्यम से ओंन लाइन पंजीयन का कोटा निर्धारित किया है यह भी यहाँ आ कर देखने के बाद योग्य ही लगता है. यात्रा के मार्ग या यात्रा स्थल पर एक दिन में कितने यात्रालूओका सुविधाजनक समायोजन हो सकता है. इसका नियंत्रण रखना अत्यंत आवश्यक है. आये दिनों हम देखते है की भगदड़ या अन्य कुदरती आपदा में सहायता या कितनी जानहानी हुई है इसका कोई निश्चित संख्या ही नहीं मिलती.
    
सुबह ठीक ५.०० बजे जाँच प्रक्रिया शरू हुई अलग अलग १५-२० लाइनसे जाँच चालू थी हमारी बारी आधे घंटे बाद आई. मिलेट्री यहाँ केवल सुरक्षा निगरानी करती बाकि जाँच का कार्य जम्मू काश्मीर पुलिसकर्मी करते है. यहाँ की जनसामान्य समज या वर्तन देखकर लगता है की जम्मू काश्मीर पुलिसकर्मी यात्रा हेतु उतने उत्शाही या प्रोत्शाहित नहीं करते, जितनी भारतीय सेना के जवान करते है. सेना चाहती है आम भारतीय काश्मीर में बेरोकटोक घूमता फिरता रहे यात्रा करे. जिससे सेना का मनोबल भी बना रहे. यह बात हमने सम्पूर्ण यात्रा दरम्यान सेना के जवानो से मिलकर उनके मनोभाव जान कर अनुभव की. हमारी जाँच प्रक्रिया निपटा कर आगे बड़े, हमारे घोड़ेवाले ने हम तीनो को भीडसे खोज कर अपने अपने घोड़े पर सवारी करवाई. यहाँ से अमरनाथ यात्रा का असली चढ़ाई एवं मुख्य सफ़र शरू होता है.



          
अरुणोदयसे सूर्यप्रकाश का आगमन हो रहा था, चारो तरफ ऊँचे ऊँचे पहाड़ोकी ढलान काटकर बनाया रास्ता लगातार उपरकी और चढ़ता जाता है. कुछेक पैदल यात्री हमसे आगे थे, उनके आगे हमारे घोड़े चढ़ रहे थे. यात्री परस्पर ‘जय भोले’ या ‘बम बोले’ का अभिवादन करते करते आगे बढ़ते है. अभी प्रात:काल में सामने से यात्रा कर वापस लोटने वाले यात्री नहीं थे. भोला आगे जुक के ! इसतरह यात्री को ‘भोला’ का सम्बोधन कर घोड़े वाले चढाई में घोड़े पर बोज न पड़े और यात्री को भी बैठने में सुविधा हो ऐसी सुचना देते रहते. धीरे धीरे ऊँचे पहाड़ोकी बर्फाच्छादित चोटियों पर सूर्यप्रकाश दिखाई देता है. मानों शिवालयके शिखरोको चाँदी से मढ़ दिया हो.
   
पहाड़ो की खड़ी ढलान काटकर बनाए उबड़खाबड रास्ते पर संतुलन बनाए बैठना मुश्किल बात है. लेकिन सामने वाली ऊँची बर्फाच्छादित शीखर सूर्यप्रकाश से परावर्तित किरणों से चाँदी जैसा आभास, सेंकडो फुट निचे अत्यंत गति से बहती सिंध नदी इन सारे द्र्श्योको यादगार बनाकर केमेरे में क्लिक करने के लिए घोडेस्वारी करके एक हाथ से घोडेकी जिन पकड़कर समतुलता बनाए रखना कठिन काम है पर कोशिश कर एक हाथ से केमेरा पकड़कर फोटोग्राफी का प्रयास चालू रखा. परिणाम ज्यादा उत्साह वर्धक तो नहीं था लेकिन फोटोग्राफी करने का आत्म संतोष जरुर हुआ. इस चक्करमे मैंने अपने दाये हाथका चमड़े का मौजा गुमाया. कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. दूर दूर तक रास्ते पर चलते घोड़े या पैदल यात्री की कतारे चिट्टी समान दिखाई देती है. अब सूर्यप्रकाश से पहाड़ो की परछाई दुसरे पहाड़ पर दिखाई दे रही थी. बालताल की तरफ से सुबह ६.०० बजेसे शरू हुए हेलिकोप्टर, दो पर्वत के बिच हमसे काफी निचे उड़ते दीखते है. धीरे धीरे दोनों तरफ से कई हेलिकोप्टर आवागमन करते दीखते है. अब सामने से पैदल या घोड़े पर वापस लौटते यात्री सामने मिलते है. जय भोला ! या बम बोले की जयघोष रस्तेमे चालू रहती है. पैदल चढाई चड़ते यात्रिओके लिए यह जयघोष उत्साह वर्धक है.

अमरनाथ के रास्ते
अमरनाथ के रास्ते
अमरनाथ के रास्ते
अमरनाथ के रास्ते
अमरनाथ के रास्ते
अमरनाथ के रास्ते
अमरनाथ के रास्ते
लगभग आधे रास्ते मे एक जगह चाय पिने के लिए घोड़ेवाले रुकते है. यहाँ यात्री फ्रेस होकर चायपानी पीते है. यहाँ फोटोग्राफी कर आगे निकले. यहाँ से एक शार्टकट पैदल रास्ता अलग होजाता है. जो पहाड के ऊपर ऊपर होकर जाता है. और घोड़ेवाला रास्ता खडी और उबडखाबड ढलान वाला खतरनाक है. यहाँ यात्रिओ को घोड़े से उतरना पड़ता है. यहाँ संगम नामक स्थान है जहाँ मिलिट्री चोकी है. यहाँ से सामने वाले पहाड़ पर तीव्र खड़ी चढाई है. इसी पहाड़ के उपर पञ्च तरणी होकर आनेवाला रास्ता दिखाई देता है. जो आखरी तक अलग अलग चलकर गुफा की और जाता है. अब सामने वाले पहाड़ पर बालताल से आनेवाला पैदल शार्टकट रास्ता दीखता है.  दोनों के बिच निचे खाईमें बर्फ जमी ग्लेशियरके निचे बहकर बिच बिच में दिखने वाली अमरगंगा नदी बहकर संगम में जाकर सिंध नदीमे मिलती है. यहाँ घोड़े बर्फ पर चलते है. साइड में न कोई गार्ड या न लोहेकी ग्रिल, निचे हजारो फुटकी खाई. यहाँ श्वास अध्धर होजाता है. हमारा जीवन घोड़े के चार पैरो पर ही निर्भर रहता है. बाबा बर्फानी की कृपा थी वातावरण संपूर्ण साफ था धुप भी खिली हुई थी. आखरी मोड़ पार करते ही सुबह ८.०० बजे पवित्र गुफा के दुरसे दर्शन हुए मनों मन बाबा को प्रणाम किये.

घोडा स्टेंड पर हम ८.३० बजे पहोंच गये. यहाँ ग्लेशियर पर टेंट बांधकर अस्थाई प्रसाद बेचने वाली दुकाने लगी है. तंबू दुकान के पीछे ४-५ गद्दे बिछाए रहते है. यहाँ यात्रीओ नहाने के लिए गेस से गर्म किया ५०/- बाल्टी गर्म पानी मिलता है. ऐसे ही एक तंबू में हमारे साथी युवानोने रुकने की व्यवस्था की थी. यहाँ मैंने और शिवदास भाई ने गर्म पानी से स्नान किया. पवित्र गुफा में मोबाईल फोन या केमेरे ले जानेकी मनाई है जो यहाँ तंबूवाले के पास जमा करवाए. साथी युवान मे से तुलशिभाई भावाणी पीछ रह गये थे. उनसे किसी तरह संपर्क बन ही चूका था. वह बहोत पीछ रह गये थे. बाकि युवान उनकी राह देखकर धीरे धरे तैयार हो रहे थे. हमारा ग्रुप तैयार होकर उन्हें बताकर गुफा के दर्शन के लिए निकल पड़ा.
बाबा बर्फ़ानी अमरनाथ गुफा मार्ग
बाबा बर्फ़ानी अमरनाथ गुफा मार्ग
बाबा बर्फ़ानी अमरनाथ गुफा मार्ग
अमरनाथ गुफा की अंतिम चढ़ाई

अमरनाथ गुफा:
अमरनाथ गुफा: श्रीनगर से ११८ कीमि दूर कश्मीर घाटी में ३९६२ मीटर (लगभग १३००० फुट से अधिक) ऊंचाई स्थित यह भगवान शिवजी का पवित्र धाम, हिदुओका परम पावन तीर्थ स्थल है. वैदिक संस्कृतिमें अमरनाथ तीर्थयात्राका विशेष महत्त्व है. प्रतिवर्ष हिमालयके दुर्गम पहाड़ी विस्तारमे, व्यास गुफामें सर्दियोमे कुदरती रूपसे बर्फका शिवलिंग निर्माण होता है. वर्ष के ८-१० माह यहाँ चारो तरफ पर्वत खाईयां नदी नाले भारी बर्फ से ढके रहते है. यहाँ जुलाई-अगष्ट के दरम्यान यात्रा होती है. यह गुफा लगभग ६० फुट लंबी, ३० फुट चौड़ी, एवं अंदरमें ५ फुट ऊँची है. यहाँ श्रावण मास की पूर्णिमा (रक्षाबंधन) के दिन यात्रा का विशेष महत्त्व है. यह यात्रा दुर्गम रास्ते पर अत्यंत कठिन होते हुए भी यात्रा दरम्यान लाखो श्रद्धालु यहाँ दर्शन करने आते है.   
अमरनाथ की पौराणिक कथा: पौराणिक कथा अनुशार राजा दक्ष की पुत्री उमा (पार्वती) से शादी रचाने के बाद भगवान शिवजीने अपनी अर्धाग्नी पार्वतीजीको अमरत्व की कहानी सुनाने के लिए यह व्यास गुफा स्थानका चयन किया था. पार्वतीजीको अमरत्व की कहानीके बिचमे हाँ हाँ कहकर हंकार करने का आदेश दे कर कहानी कहना शरू किया, कहानी दरम्यान पार्वतीजीको नींद लग गई. योगनुयोग उस समय गुफामे एक पोपटके अंडे से ताजे जन्मे बच्चेने पार्वतीजीके जगह हंकार देना चालू रखा, जब सम्पूर्ण कहानी पूर्ण हुई तब महादेवजीने पार्वतीजीसे कहाकि अब तुम अमरत्वकी कहानी सुनकर अमर हो गई हो. तब पार्वतीजीने महादेवजीसे घबराकर कहाकि नाथ में तो कहानिके बिचमे सो गई थी. तब महादेवजीने आजूबाजू देखातो उन्हें तोतेका नवजात बच्चा दिखाई दिया, महादेवजी सब समज गये यह देखकर तोतेका बच्चा वहांसे उड़कर भागने लगा महादेवजी उसे मारनेके लिए पीछे भागे तोता उड़ते उड़ते व्यास मुनिकी पत्नि जो उस समय मुह खोलकर जम्हाई ले रहीथी, उनके मुखमे प्रवेश कर गया महादेवजी वहां आकर रुषी पत्निसे अपना शिकार पेट्से वापस देनेको कहा ऋषी. पत्निने नवजात पंछीकी जान बचाने हेतु बहार निकालने से इनकार करती रही. महादेवजी अपनी जिद पर अड़े रहे. संसारमें देवी देवताओं को महादेवजी के दर्शन दुर्लभ हो गये चारो तरफ त्राहिमाम् मच गया. यह त्राहिमाम् देखकर नारदजी शिवजीके पास गये और उन्हें समजायाकी आपकी अमरत्व की कहानी सुनकर यह तोतेका बचा अमर होगया है आप उस मार नहीं शकते. तब शिवजीने टोतेके बच्चेको अभयताका वरदान देकर रऋषी पत्निके पेट्से बहार बुलाया.

सफ़ेद कबूतरके जोडेकी पौराणिक कथा: एक अन्य पौराणिक कथा अनुशार एक बार शिव-पार्वती आनंद मग्न होकर नृत्य कर रहे थे तब वहां उनके ही दो गण नृत्य देखकर विनोद से खिलखलाकर हसने लगे यह देखकर शिवजीको गुस्सा आया और उन्हें शाप देकर कबूतर बना दिया, यह देखकर माता पार्वतीजीको उनपर दया आगई और शिवजी से उन्हें वापस मानव स्वरूपमे लानेका अनुनय किया, शिवजीने कहा मेरा शाप वापस नहीं ले सकता पर तुम्हारा आग्रह देखकर मै उन्हें अमरत्व प्रदान करता हूँ यह दोनों इस गुफामे रहकर हमारी भक्ति करेंगे और उनका दर्शन करने के पश्चात् ही तीर्थयात्राका पुण्य मिलेंगा. तब से यह सफेद कबुतरका जोड़ा इस गुफामे रहता है और आज भी यात्रियोंको इनके दर्शन होते है

पवित्र अमरनाथ गुफा के पास.
इन पौराणिक कथाका प्रमाणभुत इतिहास नहीं रहता यह पूर्णत: श्रधा का विषय है. व्यक्तिगत मानने नही माननेसे उस तीर्थक्षेत्र की महत्ता या मांगल्यमें कोई फर्क नहीं पड़ता जहां लाखो करोडो की श्रधा जुड़ जाती है वह क्षेत्र श्रधासे पवित्र और पावन बन जाता है. तात्विक एवं वैज्ञानिक  द्रष्टिसे देंखे तो अणु परमाणु चैतन्य से भरा हुआ है. तीर्थक्षेत्रमे तो स्वयं भगवद शक्ति का प्रत्यक्ष रूपसे विधिमान रहती है जिनकी प्रत्यक्ष अनुभूति समर्थ महापुरुष भूतकालसे करते आ रहे है और आजभी कर रहें है हमें तो ऐसे महापुरुषका अनुकरण कर उनके चले-बताये रस्ते पर चलकर जिव का कल्याण करना है.

यहाँ से २किमी लम्बा गुफा का रास्ता बर्फ के ग्लेशियर पर चलकर पार करना पड़ता है जो चढाई और फिसलन वाला है. रास्ते के दोनों किनारे पर दुकाने, भंडारे लगे है. बिच में मुश्किल से १० फुट का बर्फ वाला रास्ता है. समहालकर चलने के बादभी यात्री फिसल ही जाते है. पैदल यात्री के अलावा डोलीवाले भी इसी रास्ते पर चढाई चड़ते है. आगे अमरगंगा के किनारे पहाड़ी के ऊपर रास्ता चड़ता है. यहाँ से गुफा तक चढाई ही चढ़ाई है. ओक्सीजन की कमी के कारण यहाँ से आगे चढना अत्यंत कठिन है. परन्तु मनोमन भोले बाबा का नाम स्मरण कर बिच बिच में आराम करते करते हम गुफा के अंतिम चरण तक पहोंच गये अब यहाँ से ४०० सीढियां चड़ना है. यह अंतिम सीढ़ी चढनेमें दम निकल जाता है. दमा-अस्थमा या हार्ट पेसंट के लिए यह चढाई असंभव ही है, उनके लिए तो पालखी की सवारी ही ठीक है. यहाँ से १०-१५ पगथी चढ़कर आराम करते करते हम लगभग १२ बजे के आसपास गुफा के मुहाने पहुंचे. हमारे चरणदासको जोड़ाघर में विश्राम कराके. हम दर्शन की कतारमे खड़े हो गये. यहाँ सिंगल कतार नही है पर रोक रोक कर अमुक यात्रिओ के जत्थे को दर्शन हेतु छोड़ा जाता है. हम दर्शन के लिए कतार में खड़े हुए थे, इतने में एक महिला ओक्सीजन की कमी या हर्दय रोग से पीड़ित होकर बेहोश हो गई, यहाँ खड़े पुलिसकर्मी ने उसे बाजु में बेंच पर लिटाकर मेरी पत्नी माया की मदद से महिला की छाती दबाकर पंपिंग करवाया, कुछ हरकत हुई इतनेमे यहाँ यात्रिओकी सेवा देनेवाले डोक्टर आ गये. और महिला को वहाँ के अस्थाई मेडिकल केंप में ले गये. इस कठिन यात्रा में ऐसी घटना होती रहती है. और इसके इलाज के लिए सुविधा भी है.   

हम जहां खड़े थे वहाँ से शिवलिंग के दर्शन तो नहीं होते, पर संपूर्ण गुफा के दर्शन होते है. गुफामे शिवलिंग के समक्ष सीमेंट कंक्रीट का पक्का चबूतरा बना है. शिवलिंग के सामने का भाग लोहे की जाली से कवर है. यात्री फुल, पूजा सामग्री फेककर शिवलिंग को क्षति न पहोंचाये इसके लिए यह सुरक्षा जाली है. जाली में से शिवलिंग के दर्शन स्पष्ट रूप से होते है. यहाँ पोलिस व्यवस्था में बारी बारी यात्रिओको दर्शन कराये जाते है.
    
आखिर हमारी दर्शन करने की बारी आ ही गई, यहाँ पहोंचकर चित भावविभोर, आनंद विभोर हो गया. क्यों न हो बरसो से मन में सपने संजोयेथे, और महीनो से उसे साकार करने के प्रयत्नों के बाद जब वह क्षण, वह तीर्थ, वह मूर्ति सामने दिखे तब उस क्षण का वर्णन शब्दातीत है. उस समय सब कुछ भूल कर बस चिदानंद रूप शिवोहम् शिवोहम्. यहाँ अन्य तीर्थ क्षेत्र के प्रमाण में १५-२० फुट दूर से ध्यानपूर्वक शिवलिंगके दर्शन होते है. हमने पूजन सामग्री चढ़ाने के बाद शिवलिंग के सामने रस्सी से आरक्षित स्थान में बैठकर मनोमन परिवार, इष्ट, मित्र को याद कर शिव-महिमन स्तोत्र का परायण किया.
तव तत्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादृशोऽसि महादेव ता दृशाय नमो नम:॥
    बाबा समक्ष मनोभाव से कहा बाबा, आपसे क्या कामना करूं ? हमारा भला कैसा होंगा ? यह भी हम कहाँ जानते है ? पर हमें सम्पूर्ण विश्वाष है की “तू” हमारे लिए जो करेंगा वह हमारे लिए कल्याणकारी, मंगलकारी ही होंगा.
हरी ॐ तत्सत् इदं न मम्
“प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते” एवं “प्रसादस्तु मन प्रसन्नता”

इस वर्षकी अमरनाथ यात्रा शरू हुए आज तीसरा दिन था, निर्गुण निराकार चिदघन शक्ति के सगुण साकार स्वरूप (शिवलिंग) के पूर्णरूपके दर्शन हुए. समस्त शारीरिक आदि, व्याधि, उपादी दूर हो गई थी क्योकि मानशिक प्रसाद जो मिला था.

यहाँ सुरक्षा कर्मी यात्रियों को अधिक समय बैठने नहीं देते. संतोषजनक दर्शन बाद गुफा में बैठकर स्थूल प्रसाद ग्रहण किया. पौराणिक कथा अनुशार जोड़े के रुपमे तो नहीं परन्तु एक कबूतर के दर्शन गुफाके बकोल के अन्दर हुए. बाबा बर्फानी के स्थूल शिवलिंग के दर्शन करके मन में भाव जागा की बाबा “तू“ केवल यहीं बसा है ? तो हमें नागपुर से लेकर यहाँ तक कौन लाया ? किसकी शक्ति और कृपासे से यह कठिन यात्रा सुगम सहज बनी है ? आदि प्रश्नों के उत्तर में हमें तेरे बन चुके ज्ञानी भक्तो रामानुजाचार्य, निम्बकाचार्य, और शंकराचार्य के शब्दों पर पूर्ण श्रधा है.
    तेन त्वं असी  (भगवान तेरे से ही निर्मित सारा संसार है)
    तस्य त्वं असी (भगवान यह द्रश्य, अद्रश्य जगत सब कुछ तेरा ही है.)
    तत् त्वं असी (तत्वमसि) (भगवान केवल तू ही, तू ही, तू ही)
    इदम् न मम्
इस भाव से दर्शन कर, निचे उतर कर हमारे चरणदास को पुन: उनकी सेवामे लगाकर हम वापस निचे हमारे अस्थाई पड़ाव (तंबू) की तरफ प्रस्थान किया. निचे का उतार इतना कठिन नहीं लगता. हमारी हिंदु संस्कृति के मुख्य तीर्थ क्षेत्र, ज्योतिर्लिंग आदि बहोत ऊंचाई पर कठिन यात्रा वाले क्यों है ? सामान्यो को लगता है भगवान इतने दूर क्यों बैठे है ? ऐसे प्रश्नों के उत्तर में समर्थ महापुरुष से समज मिली है की भगवान (निर्गुण निराकार चिदघन शक्ति) के पास पहुचना इतना सरल सहज नही है. यह कठिन पुरुषार्थ वाला कार्य है. इसके लिए सामान्य जीवन व्यवार से ऊपर उठाना पड़ेगा. ज्ञान, कर्म, भक्ति, ध्यान, वैराग्य, तितिक्षा, आदि अनेक पगथी चढ़कर जीवन को उर्ध्वगामी बनाने का यह धयोतक है. यह स्थूल तीर्थयात्रा रूपक (लक्षणा) है. विश्वाष रखो, चढ़ते रहो, कठिनाई सहन कर यात्रा करने के पश्चात बाबा मिलते ही है. अमरनाथ यात्रा के अलग अलग रास्ते है अलग अलग साधन भी है. इसी तरह जीवन विकास के रास्ते अलग अलग लंबे छोटे हो सकते है. यह साधक की योग्यता पर निर्भर करता है. इस प्रकार मनोमंथन करते करते हम निचे पड़ाव तक पहोंच गये. यहाँ करनाल (हरियाणा) भंडारे में  लंगर का प्रसाद गृहण कर, हमारे तम्बू पर पहोंचे.

यहाँ कुछ समय विश्राम किया, हमारे साथी युवान अभी दर्शन कर के लौटे नहीं थे. उनका संपर्क कर वापसी पञ्च तरणी यात्रा के लिए हमारा प्रस्थान करने का पोग्राम बताकर निकल पड़े. यहाँ से पञ्चतरणी ५-६ कीमि दूर है घोड़े वाले से ५००/- प्रतिव्यक्ति ठहरा कर दोपहर २.०० बजे वापसी प्रस्थान किया यहाँ से पञ्चतरणी का मार्ग बालताल मार्ग से अलग होकर निकलता है शरुआत में चढाई है. आगे सीधा ढलान वाला उबडखाबड मार्ग है. इस रास्ते पर धुल मिटटी उडती है. जो यात्रीओ के नाक में धुसकर अस्वस्थ बना देती है. यह मार्ग बालताल मार्ग से कठिन है. वैसे भी वापसी यात्रा में उत्साह और उत्सुकता की कमी से मन भी थक जाता है यह स्वाभाविक है. निचे पञ्चतरणी विस्तार दिखाई देता है चारो तरफ बर्फ ढके ऊँचे ऊँचे पहाड़ो के बिच पांच धारा के रुपमे बहकर सिंध नदी का यह पट विस्तार विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है. यहाँ यात्राका मध्य केंप है. यहाँ पहलगाम और निलगर्थ (बालताल) से आने जाने वाले यात्री हेलिकोप्टर का हेलीपेड है. यहाँ हम १ घंटे की यात्रा कर ३.०० बजे पहोंच गये.

यहाँ के भंडारे में चाय पानी पिया. यहाँ से हमारी आगामी यात्रा हेलिकोप्टर द्वारा ५/७/२०१५ को बुक थी.. हमने हमारी ‘हिमालय हेलिकोप्टर सेवा” के काउंटर पर जा कर इन्क्वारी किया, की यदि आज ४/७/२०१५ को हमें ले जाय तो हमे यहाँ पञ्च तरणी में रात्रि मुकाम न करना पड़े. लेकिन यह अश्कय था. यात्रा कल ही होने वाली थी. हमने वहां पर केंप में ३७५/- प्रति व्यक्ति के हिसाब से पलंग बुक किये. एक रजाई के अतिरिक्त गर्म कम्बल का किराया अलग देना पड़ता है. पञ्चतरणी केंप रास्ते से जुड़ा नहीं है यहाँ सारी व्यवस्था घोड़े पर लादकर लानी पडती है. इसलिए यहाँ की व्यवस्था बालताल से प्रमाण में कम और महंगी है.

रात का जागरण और वापसी यात्रा में धुल मिटटी के कारण सबको अस्वस्थता लग रही थी, तंबू में आकर सबने आराम किया. शाम को हमारे साथी युवान भी यहाँ पहोंच गये. अमरनाथ से पञ्चतरणी वापस लौटने में उनके और हमारे बिच समजने में कुछ गलत फहमी के चलते उन्होंने हमसे मिलकर नाराजी व्यक्त की. जो परस्पर समजने - समजाने के बाद दूर हुई. आज सुबहकी प्रात: शौचकर्म की विधि अभी बाकि थी, यहाँ केंपमें शौचालयकी व्यवस्था केंप से दूर, बालताल जैसी ही थी. हमने सेना के जवान को समजा कर पञ्चतरणी के खुल्ले विस्तारमे जाकर निपटा कर फ्रेश हो गये. जिससे थोड़ी रहात महसूस हुई. मुझे आज रात्रि भोजन की इच्छा नहीं थी थोडा बुखार जैसा लग रहा था, दवाई खा कर आराम किया. हिमालय पर्वत के आंतरिक विस्तार होने के कारण यहाँ रात का वातावरण अत्यंत ठंडा हो जाता है. लगभग शून्य के आसपास के वतावरण में रात बिताई. सुबह केवल मुख मार्जन कर भंडारे में चाय बिस्किट खाकर हेलिकोप्टर सवारी के लिए तैयार हो गये.

दिन १०वा दिनाक ५/७/२०१५: पञ्चतरणी से पहलगाम
पञ्चतरणी हेलीपेड
पञ्चतरणी
आज हम पूर्व आरक्षित हेलिकोप्टर सर्विस द्वारा पञ्चतरणी से पहलगाम यात्रा करने वाले थे. इस यात्रा में पहले आवो स्थान पाओ की पध्धति से हेलीपेड पर जाकर हमारा चेक इन कराके अपनी बारी का इंतजार करते बैठे रहे. यह हेलिकोप्टर सर्विस की आवाजाही, यात्री और सामान के चडाने उतारने में बहोत ही कम समय लगता है, ३-४ प्राइवेट कंपनी के हेलिकोप्टर सेवा इस क्षेत्र में चलती है. यात्री के बजन के अनुशार हेलिकोप्टर में ५-६ व्यक्तिओ को बिठाया जाता है. सुरक्षा या तकनिकी कारणों से हेलिकोप्टर यात्रा दरम्यान फोटोग्राफी की मनाई है.
पंचतरणी हेलीपेड
पंचतरणी पहलगाम हेलीकॉप्टर यात्रा
सुबह ९.०० बजे हमारी बारी आने पर क्रमानुसार हमें हेलिकोप्टर में बिठाया गया, साइड वाले यात्री को सुरक्षा पट्टा बांधा जाता है. हवाई सफर तो पहले कर चुके है. पर यह हेलिकोप्टर सफर का प्रथम अनुभव था, मनोमन भगवद नाम स्मरण किया. उडान भरते ही हेलिकोप्टर सीधे अपनी गंतव्य दिशामे उपरकी और उड़ते हुए जरूरी ऊंचाई हासिल कर लेता है. ऊंचाई से निचे देखने पर गति कम लगती हैलेकिन वास्तव में ऐसा नही है. दोनों तरफ बर्फाच्छादित पहाड़ो के बिच महागुनास टॉप (१४५०० फुट)के उपर से उडान भरते समय निचे पैदल और घोडेस्वार यात्रिओ की लंबी कतार दिखाई पड़ती है, शेषनाग में भंडारे, रहने के लिए तंबू उपरसे दिखाई देते है. यहाँ की दुर्गम परिस्थिति में भंडारे लगा के सेवा करना सामान्य सोच से परे है. शेषनाग झील का मनोरम्य द्रश्य दिखाई देता है. पहलगाम के बाजुमे पहाड्की एक ढलान बर्फ से ढकी दिखती है. और दूसरी ढलान पर चिड देवदार के शंकु आकर के घने वृक्ष दिखाई देते है. निसर्ग का यह विहंगावलोकन अदभुत और रोमांचक है. पञ्चतरणी से पहलगामकी यह आकाशीय दुरी हेलिकोप्टर से १५ मिनिट में पार कर पहलगाम पहोंच गये. हम ११ साथी ३ अलग हेलिकोप्टर की यादगार सफ़र कर आधे घंटे में पहलगाम पहोंच गये. हमारे एक युवान प्रकास पजवाणी ने अपनी हेलिकोप्टर टिकिट होते हुए भी पैदल रास्ते का रोमांचक सफ़र किया था. यात्रिओ के अनुभव के आधार पर इस रूट से भारी बर्फ पर पैदल या घोड़े से यात्रा कर सौन्दर्य पान करने का अपना अलग ही आनंद है. हमारे युवा साथी सुबह ६.०० बजे पञ्चतरणी से निकलकर घोडेस्वारी कर दोपहर ३.०० बजे पहलगाम पहोंच गये थे.
  
हमारे पूर्व निर्धारित आयोजन अनुशार मनीष बालताल से ४/७/२०१५ को गाड़ी से चलकर श्रीनगर - अनंतनाग के रास्ते आज सुबह पहेलगाम पहोंच गया था. वह हमें लेने हेलीपेड पर आ गया था. हेलीपेड के सामने लीदर नदी के पहली पार मुख्य बाजार में हमारा ‘होटल आइस रॉक’ में आरक्षण था. यहाँ होटेल के ५ रुम हमारी व्यवस्था हुई. होटेल का स्तर अपेक्षाकृत सामान्य था लेकिन अलग अलग रूम मिलनेसे हमें संतोष हुआ. गत दो दिनों से नहाना धोना नही हुआ था, पहले चाय पिया, यहाँ दो रात का मुकाम था, सबने अपने मैले कपड़े धोबी को धोने दिए और आराम से ना धोकर तैयार हुए.

पहलगाम: 
श्रीनगर से ९६ कीमि की दूरी पर २१९५ मीटर की ऊंचाई पर स्थित पहलगाम कश्मीरका एक बहोत ही मनोहारी पर्यटन स्थल है. यह पर्वतारोहण का आधार केंद्र है. यहाँ का पानी बहोत ही ठंडा है. पहलगाम चारो तरफ ऊँचे ऊँचे बर्फाच्छादित पहाड़ो के बिच बसा है. अमरनाथ गुफा की वार्षिक यात्रा यहाँ से प्रारंभ होती है. यहाँ शर्दियो में पर्यटक बर्फ आनंद लेने के लिए आते है.
 होटेल आइस रॉक पहलगाम
 लीडर नदी के किनारे पहलगाम
  लीडर नदी के किनारे पहलगाम
 लीडर नदी के किनारे पहलगाम
पुरातन ‘माम्लेश्वर’ मंदिर
बाईसारण (बेईझारन) ‘मिनी स्विट्जरलैंड’: पहलगाम से ५ कीमि दूर  ऊँचे पहाड पर एक सुन्दर संकड़ी घाटी है. इस घाटी हिमाच्छादित शिखरों एवं  देवदार एवं चिड के पेड़ो से आच्छादित जंगलों के बिच हराभरा घास का मैदान है. स्थानिक लोग इसे ‘मिनी स्विट्जरलैंड’ कहते है. 
नुवान मिलिट्री केम्प स्थित लंगर
नुवान मिलिट्री केम्प स्थित लंगर
दोपहर १२.०० बजे तैयार हो कर हम गाड़ी में बैठके पहलगाम स्थित लीडर नदी के सामने ‘नुंवान मिलेट्री केंप’ गये. यहाँ अस्थाई रूप से अमरनाथ यात्रा का आधार केंप लगाया जाता है. यहाँ यात्रा परमिट बताकर पवेश मिलता है. यहाँ जितनी बार प्रवेश करो हर वख्त सरक्षा जाँच होती है. अन्दर दुकाने, भंडारे, दवाखाना आदि बालताल जैसी यात्री सुविधाए है. यहाँ अमृतसर वालो के भंडारेमें जाकर लंगर प्रसाद ग्रहण किया. यहाँ रास्ते के दोनों तरफ आमने सामने २० जितेने भंडारे लगे है. यात्रा अधिकतर पहलगाम से शरू होती है इसलिए यहाँ बालताल से अधिक रोनक और चहलकदमी दिखाई देती है. दुकानों में चीज वस्तु की गुणवता और वैविध्यता यहाँ दिखती है. पहलगाम में दो दिन के दरम्यान ५ समय केंप में भोजन और नास्ता किया था. और हर बार कोई न कोई साथी ने खरीदी की थी. मध्याहन भोजन कर होटेल वापस लौट कर आराम किया.
   पहलगाम मिलेट्री केंप स्थित शिवालय
शाम को होटेल से चाय पीकर निचे आये, यहाँ से चहलकदमी करते करते मुख्य बाजार में गये. यहाँ हमें हमारे युवा साथी मिल गये, जो ३.०० बजे पहलगाम पहुंचे थे. यहाँ से पैदल माल रोड पर चहलकदमी करते आगे मिलेट्री केंप स्थित शिवालय गये. यहाँ दर्शन करके यहाँ के प्रांगण में लगे भंडारे में इडली सांबार का लंगर प्रसाद चखा. बाजुमे गुरुद्वारा है, सामने नहेरु गार्डन है. यहाँ से वापस माल रोड होकर वापस लौटे. इस समय पर्यटनका सीजन पूर्ण हो चूका था. इसलिए माल रोड की दुकाने ग्राहक के इंतजार में खाली खाली दिख रही थी. यहाँ के टेक्षी स्टेंड पर जाकर चंदनवाड़ी-बेताब वेली आने जाने की जानकारी ली. यहाँ स्थानिक टेक्षी ही इन पॉइंट पर चलती है. यहाँ से चलकर लीडर नदी पर बने बगीचे में फोटोग्राफी कर यहाँ के सौन्दर्य का आनंद लिया. हम चार लोग सामने पहाड़ी पर चढ़कर पुरातन ‘माम्लेश्वर’ मंदिर जाकर दर्शन किये, निचे हेलीपेड है. यहाँ से पहलगाम का चारोतरफ का द्रश्य नयनरम्य है. यहाँ से ढलती शामका द्रश्य मनोहारी है. यहाँ से मनीष को फोन करके होटेल से बुलाकर आधार केंप गये. यहाँ स्वरुचि अनुशार अलग अलग भंडारे में जा कर लंगर प्रसाद चखा. यहाँ एकमात्र गुजरात अमदावाद का भण्डारा लगा है. यहाँ बहोत दिनों के बाद खिचड़ी कढ़ी का गुजराती भोजन प्रसाद लिया. शामको दोपहर से अधिक रोनक और चहलकदमी रहती है. यहाँ से होटेल आकर २-३ दिन के अंतराल के बाद डायरी लिखकर विश्राम किया.
     
दिन ११वा दिनाक ६/७/२०१५ पहलगाम दर्शन
सुबह जल्दी तैयार होकर होटेलमे आलू पराठा का नास्ता किया. होटेल से मिनी स्विट्जरलैंड (बाईसारण) जाने के लिए ५५०/- प्रति व्यक्ति घोड़े नक्की किये. यह पहाड़ हमारी होटेल के पीछे ३-४ हजार फुट ऊंचाई पर है. ऊपर जाने का रास्ता होटेल के पीछे से ही था. यहाँ रास्ता नही है, भेड बकरियों के चरने की पगडंडी है. पेड़ो के मूल में पैर फसा कर घोड़े एकदम तीव्र खड़ी चढाई चड़ते है, यहाँ घोड़े पर सम्हाल के बैठना भी भी मुश्किल है. एक दो साथी घोड़े की जिन ढीली होनेके कारण संतुलन बिगड़ ने से गिरते गिरते बचे थे. यहाँ घोडेस्वारी अमरनाथ यात्रा से भी खतरनाक है. घोड़े पर चमड़े की जिन पर बैठना चुभन भरा अनुभव है. पिछले सप्ताह दो तीन बार घोड़े पर बैठने के कारण घोडेस्वारी का अनुभव यहाँ थोडा बहोत काम आ रहा था. ऊपर चढ़ते घोड़े को रास्तेमे दो तिन पॉइंट पर विश्राम कराते वख्त हम फोटोग्राफी कर यात्रा यादगार बना रहे थे. लगभग डेढ़ घंटे का कठिन चढाई चढ़ हम घास के हरेभरे मैदान पर पहोंचे.
बाईसारण (बेईझारन) ‘मिनी स्विट्जरलैंड’ के रास्ते
यहाँ का द्रश्य अलौकिक और मनोहारी था इसे देख मिनी स्विट्जरलैंड की उपमा योग्य लगती है. पुरानी फिल्मो में देखि यह जगह नजरों नजर देखकर आनंद आ गया. हम यहाँ का आंनंद ले रहेथे इतने में हमारे युवा साथी वहां मिल गये. सैलानी की संख्या अपेक्षाकृत कम थी, हम दोनोने यहाँ हवा भरे बड़े गुबारे में बैठकर मैदान के ढलान की तरफ लुढकने के खेलका आनंद लिया. इसे देख युवान खुश हो गये. यहाँ एकाद घंटा सबने साथ मिलकर फोटोग्राफी की, यहाँ का मजा लिया, यहाँ के रेस्टारेंट में चाय कोफ़ी का आनंद लेकर वापस निचे की तरफ उतरने लगे. उतरने का रास्ता अलग था, यहाँ उतरना चढने से भी ज्यादा खतरनाक है कहीं कहीं पर तो घोड़े दो दो तीन तिन फुट निचे पैर डालकर झटके से निचे उतरते है जो सवारी का संतुलन बिगाड़ देते है. यहाँ हम पर भगवत कृपा थी की हमें कुछ नही हुआ और निचे उतर गये. आजकी घोडेस्वारी का अनुभव यादगार रहेंगा. लगभग दोपहर १२.०० बजे तक होटेल में वापस आ गये. आज बेस केंप में भोजन प्रसाद की इच्छा नहीं थी सबने अपने रूम में साथका नास्ता कर आराम किया.
  बाईसारण ‘मिनी स्विट्जरलैंड
 बाईसारण ‘मिनी स्विट्जरलैंड’
 बाईसारण ‘मिनी स्विट्जरलैंड’ बलून रोलिंग

 बाईसारण ‘मिनी स्विट्जरलैंड’
 बाईसारण ‘मिनी स्विट्जरलैंड’ बलून रोलिंग
 बाईसारण ‘मिनी स्विट्जरलैंड’ नागपुर
अमरनाथ यात्रा ग्रुप

बाईसारण ‘मिनी स्विट्जरलैंड’

दोपहर बाद चाय पीकर होटेल के पास वाले टेक्षी यूनियन स्टेंड से चंदनवाड़ी-बेताबवेली के लिए तवेरा गाड़ी ले कर हम चंदनवाडी गये यह पहाड़ी चढ़ाई वाला रास्ता है. रास्ते के एक तरफ लीडर नदी अत्यंत गति से बहती है मानों दूध की नदी बह रही हो. चंदनवाडी, अमरनाथ यात्रा का प्रवेशद्वार है. पहलगाम से प्रति व्यक्ति भाड़े के हिसाब से यूनियन की टेक्षी में ही यात्रा करनी पड़ती. चंदनवाड़ी यह एक जगह का नाम है. यहाँ कोई गाँव नहीं है. यात्रा की मुख्य जाँच चोकी यहाँ है. एक जगह शेषनाग नदी पर बर्फका पुल बन गया है.
 ग्लेशियर ब्रिज चंदनवाड़ी
 चंदनवाड़ी
 चंदनवाड़ी
 बेताब वैली चंदनवाड़ी
 बेताब वैली चंदनवाड़ी
चंदनवाड़ी
यह द्रश्य अनुपम है प्रचंड वेग से बहती नदी पर पाकृतिक रूपमें शदियों से पुल (ग्लेशियर) बना है. यहाँ सैलानी, ढलान पर फिसलन की मजा लेते है. यहाँ हमने मक्कई के गरमा गर्म भुट्टे का आनंद लिया. यहाँ से वापस निचे बेताब वेली (हंगनवाडी) गये. यहाँ नदी को कृत्रिम नहर बांधकर आजूबाजू बाग बगीचे बनाकर पर्यटन केंद बनाया है. यहाँ ‘बेताब’ फिल्म की सूटिंग हुई थी तब से यह जगह ‘बेताब वेली’ के नाम से जानि जाती है. यहाँ कुछ देर बैठ कर नदी किनारे फोटोग्राफी कर वापस लौटे. आधार केंप जाकर रात्रि भोजन प्रसाद लेकर होटेल में दैनन्दिनी लिखकर आराम किया.


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हमारी यात्रा का द्वित्य चरण ‘अमरनाथ यात्रा’ यहाँ पूर्ण हो कर, यहाँ से कल यात्रा का तृतीय चरण ‘काश्मीर लेह लदाख यात्रा’ शरू हो रहा था. सामान्यत: लेह लद्दाख की यात्रा कठीन मानी जाती है. यहाँ केवल साहसिक यात्रा के दीवाने ही यहाँ की दुर्गम यात्रा करते है.

१० वी सदी पहले लद्दाख तिबेट साम्राज्यका हिस्सा था. १० वी सदी में तिबेट साम्राज्य के बाद लद्दाख स्वतंत्र राज्य बना. १६ वी सदी तक लद्दाख में अनेक राजाओं ने राज्य किया. १६ वी सदी के बाद मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा अनेक समृद्ध बौध गोम्पा लुटे गये, मूर्तियों को तोडा, पुस्तके जलाई और अनेक खानाखराबी हुई. ई.स.१८३४ में कश्मीर के महाराजा गुलाबसिंह के सेनापति जनरल जोरावरसिंह ने आक्रमण कर लद्दाखको जित लिया. तब से लद्दाख काश्मीरमें शामिल हुआ है. स्वातंत्र्य के बाद काश्मीर भारत में जुड़ने से लद्दाख भारत में शामिल हुआ.
    
लदाख का क्षेत्रफल ९७८७२ कीमि है. परंतु विस्तारके प्रमाणमें जनसंख्या बहोत कम है. लद्दाख मुख्यतः सुखा, ठंडा, और पहाड़ी प्रदेश है. कम बारिश घिरने के बादभी यहाँ की नदियाँ और झरने शालभर बहते रहते है. क्योकि इनके मूल हिमाच्छादित शिखरों में है. सिंधु, सुरु, झंस्कार, द्रास और श्योक लद्दाखकी मुख्य नदी है. नदीयों की घाटी में थोड़ी बहोत हरियाली दिखती है. बाकि खारे पानीकी झीले है.
    
लद्दाख का मुख्यधर्म बौध है. मात्र कारगिलमें मुस्लिम बस्ती है. सांस्कृतिक और धार्मिक द्रष्टि से लद्दाख तिबेट के साथ सदियोंसे जुड़ा हुआ है. बौद्ध प्रजा दलाईलामाको अपना धर्मपुरुष मानती है. और ल्हासाको अपना प्रधान केंद्र मानते है.
    
१९६२ में चीनके साथ युद्धके बाद लद्दाखमें पक्के रास्ते का निर्माण हुआ है. कुलू मनाली से रोहतांगपास होकर लाहुल-स्पीति विस्तार से एक रास्ता लेह आता है और लेह से कारगिल झोजिला होकर श्रीनगर तक यह रास्ता आता है. और यही लद्दाखका मुख्य रास्ता है. शर्दीयों में इस रास्ते का बहोतसा हिस्सा हिमाच्छादित होकर बंध हो जाता है.

दिन १२वा दिनाक ७/७/२०१५ पहलगाम से सोनमर्ग:
सुबह तैयार होकर होटेल से चेक आउट कर सामान गाडी में जमाकर नास्ते के लिए आधार केंप गये. यहाँ स्वरुचि अनुशार नास्ता किया. प्रभु स्मरण कर आगे की यात्रा के लिए प्रस्थान किया. हमारी यात्रा का प्रथम चरण ‘अमरनाथ यात्रा’ यहाँ पूर्ण हो कर यहाँ से यात्रा का द्वित्य चरण लेह लदाख यात्रा शरू हो रहा था. आज का हमारा रात्रि मुकाम सोनमर्ग में था. यहाँ से  अनंतनाग-श्रीनगर होते हुए सोनमर्ग १९० कीमि दूर है. पहलगाम से अनंतनाग के बिच मार्तंड नामक जगह आती है. वर्तमान में मार्तंड का अपभ्रंस होकर मट्टन बन गया है.
 सूर्य मंदिर मार्तंड के भग्नावशेष
सूर्य मंदिर मार्तंड के भग्नावशेष

मार्तण्ड: श्री नगर से ६४ कीमि दूर मार्तण्ड, अनंतनाग से ३ कीमि दूर एक पठार पर स्थित ऐतिहासिक, प्रभावशाली प्राचीन खंडहर है. राजा ललितादित्य मुख्तापिद द्वारा (७-८वी शदीमे) सूर्यमंदिर बनाया गया था. जो भारत के कई सूर्यमंदिर में से एक है. यह मंदिर मध्यकालिन वास्तुकला का महत्वपूर्ण उदाहरण है. यह स्थान अपनी पाकृतिक सुंदरता एवं स्वच्छ वातावरण के लिए प्रसिद्ध है.
    
अनंतनाग होकर श्रीनगर से आगे निकलते समय हमारे साथी इश्वरलाल को अचानक उल्टियां होने लगी. गत रात पेटकी गड़बड़ी के कारण भोजन नही किया था. आज सुबह नास्ता किया था, रास्तेमे केले खाए थे. एकदम सामान्य थे. हमें लगा उलटी हो गई सब ठीक हो जायेगा आगे बड़े. लेकिन उन्हें पेटमे आराम नही लगा उल्टा दर्द बढ़ते गया, रास्ते में हमने गंदरेबल में स्थानिक मेडिकल शॉप में केमिस्ट से प्राथमिक इलाज करवाया, यहाँ थोड़ी देर रुक कर आगे बड़े फिर भी आराम नहीं लगा. आगे कंगन में स्वास्थ्य केंद्र में लेकर गये यहाँ मध्यम प्रकारकी चिकित्सा सुविधाए थी. डोक्टर ने चेक कर, हार्ट ECG, पेट का X RAY, खून जाँच वगेरे रिपोर्ट करवाए, हालांकी ब्लड सुगर बढ़ा हुआ था, डोक्टर गूलकोस के डोज़ चढ़ाकर दर्दशामक इंजेक्सन दिए. यहाँ ३-४ घंटे का इलाज करने के बाद कुछ राहत महसूस हुई. डोक्टरने अलगसे दर्दनाशक दवाएं साथमे दी. डोक्टर के अनुशार विशेष खतरा नही है, फिर से एक बार हार्टका ECG किया वह भी नार्मल था. अभी भी पूर्ण राहत तो नहीं थी. आगे दर्द कम हो जायेगा  इस तरह मानसिक समाधान मानकर हम सोनमर्ग के लिए रवाना हुए.

सोनमर्ग होटल
‘होटेल स्नो हाईट’

‘होटेल स्नो हाईट’

‘होटेल स्नो हाई'
यहाँ एक बात विशेष उलेखनीय बात है की कश्मीर घाटी में जनता या शासन अमरनाथ यात्रियों और सहलानियो के साथ का व्यवार सकारात्मक है. हमारे पूर्व निर्धारित आयोजन से ४ घंटे की देरी से शाम ७ ०० बजे हम सोनमर्ग की ‘होटेल स्नो हाईट’ पहोंचे. सोनमर्गमें मुख्य राजमार्ग पर होटेल का लोकेशन सिंध नदी के किनारे अत्यंत आकर्षक था, सामने ऊँचे हिमाच्छादित पहाड़ की गोदमे बहने वाली सिंध नदी के उपरी किनारे पर स्थित होटेल में चेक इन करके फ्रेश हो गये. इश्वरलाल का पेट दर्द पहले से कम था, लेकिन पूर्ण राहत अभी भी नहीं थी. रातको हमने होटेल के निचे एक ढाबे में जाकर भोजन किया. इश्वरलालने होटेल में ही हल्का भोजन किया. लेकिन खाते ही उलटी हो जाती थी. इनका यह दर्द देखकर हम सब बाकि साथी विचार में पड गये थे. वास्तविक दर्द का निदान अभी तक नही हुआ था की तकलीफ क्या और कहाँ है ? आगे और दर्द रहा तो क्या करना ? आखिर इन सारी बातों का विचार कर हमने नागपुर इश्वरलाल के बड़े भाई लक्ष्मीदास से मोबाईल पर चर्चा कर परिस्थिति बताई, उन्होंने कहा की यदि आराम नही हो तो उन दोनों को श्रीनगर से हवाई मार्ग द्वारा दिल्ही या नागपुर भिजवानेका प्रबंध करो आगे हम सम्हाल लेंगे. आनेवाली सुबह कैसी परिस्थिति रहती है यह देखकर आगे निर्णय करेंगे. ऐसा निर्णय कर हम अपने कमरे में आकर रोजनीस लिखकर विश्राम करने गये.
    
रात २.०० बजे इश्वरलाल को तकलीफ बढ गई. हम सबने साथ मिलकर विचार कर निश्चित किया की उन्हें श्रीनगर में जरूरी इलाज करवा के जल्द से जल्द हवाईमार्ग से नागपुर पहुचाना चाहिए. इनका सामान वापसी यात्रा के लिए पेक किया. इंटरनेट पर चेक करके देखा की इंडिगो एयरलाइन्स की श्रीनगर से नागपुर दैनिक हवाई सेवा है. इन दिनों पर्यटन सीजन पूर्ण हो जाने से टिकिट भी उपलब्ध थी. होटेल मैनेजर से श्रीनगर शहर में हॉस्पिटल के बारे में जानकारी लिया. बाकि सब ने मिलकर निर्णय लिया की, इतनी रात सबको हेरान परेशान होने की जरूरत नहीं है. मै और शिवदासभाई दंपतिको गाड़ीमें लेकर जायेंगे और वहां परिस्थिति अनुशार आपसी चर्चा विचारणा कर आगेके लिए योग्य निर्णय करेंगे. हमने मनीष को फोन करके नींद से जगाया और परिस्थिति बताई. वह बिना प्रश्न किये तुरंत तैयार हो गया.
    
सुबह ३.०० बजे सामान गाड़ी में लादकर हम ४ साथी भगवद नाम स्मरण कर सोनमर्ग से श्रीनगर की और रवाना हुए. रस्तेमे गाड़ी के हलनचलन से भी उन्हें तकलीफ हो रही थी. सुबह ४.३० बजे श्रीनगर शहर से पहले ‘शोरा’ विस्तार में, शेर ए काश्मीर इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस (स्कीम्स)’ का पत्ता पूछते पूछते पहोंचे. जम्मू काश्मीर राज्य की यह सबसे विशाल एवं आधुनिक सुविधायुक्त हॉस्पिटल है. हॉस्पिटल बहोत बड़े विस्तार में फैली हुई है
    
यहाँ के आपातकालिन विभाग में इश्वरलालको ले कर गये. हॉस्पिटल आधुनिक ढंग से बनाई है. लेकिन अंदर के हालात देख निराशा हुई. यहाँ रेलवे स्टेशन जैसा द्रश्य था २५-३० इमरजंसी मरीज को १ नाईट डयूटी डोक्टर और १ नर्स इलाज कर रहे थे. यहाँ हमें अमरनाथ यात्री समज प्राथमिकता जरुर मिली लेकिन यह संतोषजनक नहीं थी, नाईट डयूटी डोक्टर ने पहले के मेडिकल रिपोर्ट देखकर फिर से एक बार हार्ट ECG करवाया, यह रिपोर्ट नार्मल आया. बहारी जाँच से डोक्टर को inकुछ समज में नही आ रहा था. वास्तविक दर्द का निदान अल्ट्रासाउंड सोनोग्राफी टेस्ट, या एंडोस्कोपी से ही शक्य था. यह डिपार्टमेंट सुबह ८-९ बजेके बाद खुलनेवाले थे. हमने डोक्टर को सारी परिस्थिति समजाई. डोक्टर ने दर्दशामक इंजेक्सन के साथ कुछ अन्य इंजेक्सन लिख दिए, यह इंजेक्सन हॉस्पिटल के स्टोर में नही मिले. अनजानी जगह सुबह डेढ़ दो कीमि पैदल चलकर मैंने और शिवदास भाई ने अलग अलग मेडिकल स्टोर खोजकर १-१ इंजेक्सन लाये. तब तक नाईट डयूटी डोक्टर चला गया था. नर्स को समजा कर इंजेक्सन लगवाये. यहाँ सुविधाए तो थी पर अनजानी जगह, सरकारी हॉस्पिटल वाली गेरव्यव्स्था, परोढ़ का समय, और हमें प्राथमिक इलाज करवाना था आगे का पूर्ण इलाज नागपुर जाकर ही करवाना था. इंजेक्सन का प्रभाव परिणाम होने तक राह देखनी थी. यह सारी परिस्थिति देख कर इश्वरलाल बाजु में पड़ी मोबाईल स्टेचर पर लिटाकर खुले में आराम करवाया.

दिन १३वा दिनाक ८/७/२०१५ श्रीनगर – सोनमर्ग – कारगिल: 
सुबह हो चुकी थी. होस्पिटल के बहार चाय पिया. इस बिच हमने नागपुर सम्पर्क कर इन दोनोकी श्रीनगर से नागपुर की इंडिगो एयरलाइन्स की ओंन लाइन टिकट आरक्षित करवाया. यह फ्लाईट व्हाया दिल्ही और इन्दोर होकर नागपुर शाम ७.३० को पहोंचती है. इसबिच एक डेढ़ घंटे के बाद इंजेक्सन का कुछ प्रभाव दिखाई पड़ा. उन्होंने सामने से बताया की अब ठीक लग रहा है. हम वहां से चलकर शहर में सप्ताह पूर्व प्रथम चरण की यात्रा वाली ‘होटेल ग्रीन सिटी’ में गये. यहाँ हमने निचे के रूममें आराम कराया. यहाँ थोडा सुस्ता कर हम भी तैयार हो गये. दो घंटे आराम मिलने से इश्वरलाल को पहले से कुछ आराम महसूस हो रहा था, वह भी ना धोकर तैयार हो गये यह देखकर हमे भी थोड़ी राहत महसूस हुई. इस बिच नागपुर और सोनमर्ग के बिच हमारा संपर्क चालू था. हम दोनों को छोड़ आगे की यात्रा यथावत चालू रखनेका आग्रह इश्वरलाल हमे पहले से कर रहे थे. परंतु अब हमने परिस्थित संतोषजनक देखकर सोनमर्ग में रुके अन्य साथिओको यहाँ की परिस्थिति से अवगत कराया, सोनमर्ग में हमारी होटेल बुकिंग दोपहर तक थी. हमने उन्हें चेक आउट कर खाना खाकर आगे लेह लदाख यात्रा के लिए तैयार रहने को कहा, हम इन्हें एअरपोर्ट छोड़कर ३.०० बजे तक सोनमर्ग पहोचने का आयोजन बताया.

होटेल से एअरपोर्ट रास्ते में, मेरे ई मेल से टिकट का प्रिंट आउट निकाल कर दोपहर १२.०० बजे शहर के बहार स्थित एअरपोर्टमें अंदर तक सकुशल छोड़कर हम श्रीनगर शहर के बायपास रोड से सोनमर्ग की और निकले. रास्ते में डीजल भरवाकर हम ३.०० बजे सोनमर्ग पहोंच गये. रस्तेमे इश्वरलाल के सकुशल प्लेन के अंदर बैठने तक फ़ोन से वार्तालाप चालु था. सोनमर्ग में हमारे साथी हमारा इंतजार करते बैठे थे. सामान गाड़ी में लादकर, हम तीनो होटेल में खाना खाकर तैयार हो गये.
    
दोपहर ४.०० बजे भगवद नाम स्मरण कर सोनमर्ग से कारगिल के लिए प्रस्थान किया. यात्रा के दुसरे चरण में हमारे दो साथिको नादुरस्त स्वास्थ्य के कारण यात्रा बिच से आधी छोड़कर वापस घर जाना पड़ा था. इसका रंज सभीके मन पर छाया था. लेकिन इसमे भी भगवान कुछ अच्छा करने वाले होंगे ऐसा मानसिक समाधान मानकर इश्वरलाल के स्वास्थ्य रक्षा हेतु हनुमान चालीसा का परायण कर हम आगे बढे.

सोनमर्ग के रास्ते
 सोनमर्ग 
सोनमर्ग
सोनमर्ग के रास्ते 
 झोजिला पास से निचे बालताल आधार केंप
 झोजिला पास से निचे बालताल आधार केंप


झोजिला पास से निचे बालताल आधार केंप

रास्ते में सोनमर्ग का सौन्दर्य देखते देखते आगे बढे. NH1A से ५ दिन पहले बालताल होकर अमरनाथ यात्रा की थी. रास्ते में वही द्रश्य देखते देखते बालताल के ऊपर, राजमार्ग से आगे बढ़ रहे थे निचे बालताल का आधार केंप अब खिलोने की तरह छोटा छोटा दिखाई देता है. यह रास्ता साप की तरह ५-६ मोड़ लेकर उपरकी तरफ चढ़ते जाता है. एक खाली जगह गाड़ी खड़ी कर यहाँ से निचे बालताल की फोटोग्राफी की. यहाँ से अमरनाथ यात्रा हेलिकोप्टर की आवाजाही दिखाई दे रही थी. जो यहाँ से बहोत निचे उड़ते दिख रहे थे. उपरसे हेलीपेड स्पष्ट दिखाई देता है. यहाँ की ऊंचाई से निचे देखने पर कमजोर हर्दय वालो को चक्कर आजाये ऐसी निचे खड़ी खाई है. ५ दीन पहले बालताल में बैठे बैठे इस ‘झोजीलापास’ के रास्ते की ऊंचाई देखकर उसके बारे में सोच रहे थे कैसा होगा यह घाट ? आज वही रास्ते यात्रा कर रोमांच अनुभव कर रहे थे. ऊपर रास्ते उबड़खाबड़ पत्थर मट्टी वाले है. कश्मीर घाटी से लेह लदाख को जोड़ने वाला यह एकमात्र रास्ता होनेके कारण यहाँ भारी यातायात रहता है. पुरे रस्ते पर धुल मिटटी उड़ते रहती है. यह पहाड़ मिटटी के बने है, यहाँ पहाड़ो पर भूस्खलन होते रहता है. यहाँ सदियों की जमी बर्फ पर मिटटी के पहाड़ बन गये है. मार्ग में कही जगह यह द्रश्य ताजे भूस्खलन के पश्चात दिखाई देते है. झोजीलापास के पहले कई किलोमीटर तक एक तरफ ऊँची ऊँची पहाड़ी चढाई और दूसरी तरफ निचे खाई में बालताल आधार केंप, सिंध नदी, और अमरनाथ यात्रा वाले बर्फाच्छादित पर्वत श्रुंखला, यह द्रश्य भाव विभोर कर देता है. आगे रास्ता झोजीलापास पहोंचता है. यहाँ से यातायात के लिए रास्ता खोजकर बनाना यह वास्तवमे चुनोती पूर्ण कार्य है. यह कार्य हमारी भारतीय सेना के ‘सीमा सड़क संस्था’ Border Road Organization BRO ने कर दिखाया है.

झोजीलापास
झोजीलापास श्रीनगर लेह राजमार्ग

झोजीलापास श्रीनगर लेह राजमार्ग
झोजीलापास: झोजीला यह एक घाट का नाम है. काश्मीर लदाख को जोड़ने वाला राजमार्ग NH 1A यहाँ से प्रसार होता है. इसकी ऊंचाई ११५७८ फुट है. इसके पश्चिम दिशा में हराभरा काश्मीर है और पूर्व में सुका और सुमसाम बंजर लदाख प्रदेश है. झोजीलापास के बाजु से द्रास नदी निकली है. झोजीलामें १९९९ की लड़ाई में देशके लिए सहादत देनेवाले वीरयोद्धाओं का स्मारक “ZOJILA WAR MEMORIEL” है. यहाँ ठंडी हवा चलती है. इतनी ऊंचाई पर पहाड़ो पर वृक्ष वनस्पति नहीं उगती. स्थानिक गुज्जर की छुटपुट बस्तियां रास्ते में दिखाई देती है. उनकी भेड़ो के लिए थोड़ी बहोत घास उगी हुई दिखती है. या वह घास के आजूबाजू अपनी कच्ची बस्ती बनाकर रहते है.
ZOJILA WAR MEMORIEL
ZOJILA WAR MEMORIEL
विश्व का दूसरा सबसे ज्यादा ठंडा स्थान द्रास
द्रास: द्रास नदीके किनारे बसा हुआ छोटा गाँव है. यह श्रीनगर मार्ग से लदाख का गेट वे है. यहाँ आजुबाजुमे थोड़ी खेती होती है. द्रास अत्यंत ठंडा ठिकाना है. द्रास दुनिया का दुसरे नंबर का ठंडा स्थान है. शर्दियोमे यहाँका तापमान -३५ से -४५ सेंटीग्रेड तक पहोंच जाता है. शर्दियोमे यहाँ जीवन अशक्य बन जाता है. शर्दियो में स्त्री, बच्चो और वृधो को स्थानान्तरण करके निचे मैदानी विस्तार में बसाया जाता है. बाकि बचे सशक्त पुरुषो को सीमा सुरक्षा की द्रष्टि से इनको यहाँ मिलेट्री सहायता से बसाये रखना आवश्यक है.
कारगिल युद्ध स्मारक प्रवेशद्वार
कारगिल युद्ध स्मारक: द्रास से थोड़े आगे NH1A पर “KARGIL WAR MEMORIEL” बना है. १९९९ में भारत-पाकिस्तानी युद्ध के शहीदों की याद में यह स्मारक बनाया गया है. इस रोड पर मुख्य आकर्षण केंद्र है. हम शामको अँधेरे के १ घंटे पहले यहाँ पहोंच गये थे. यहाँ सेना के जवान, ऑफिसर मुलाकातीओ के साथ में घुमकर स्मारक दिखाते है. हमने १६ वे कारगिल विजय दिन के १५ दिन पहले अमर जवान ज्योत एवं वीर भूमि पर जाकर हमारे भावपूर्ण श्रधा सुमन अर्पण कर, दो पलकी मूक श्रधान्जली अर्पण की. यह स्मारक स्थल में युद्ध के फोटोग्राफ, पाकिस्तानी सेना के जब्त किए हथियार वगेरे की प्रदर्शनी है. हमारे समयाभाव के कारण यहाँ बताई जाने वाली युद्धकी दस्तावेजी फिल्म हम नहीं देख पाए जिसका हमे रंज है. इस युद्ध में प्रयुक्त हुए वायुसेना के एक लड़ाकू विमान के बाजु में खड़े रहकर फोटोग्राफी की. यहाँ हमें डयूटी देने वाले गुजरात भावनगर के जवान से मुलाकात हुई. यह स्मारक देखते देखते अँधेरा हो गया था यहाँ से कारगिल ५० कीमि दूर था, अनजाना पहाड़ी रास्ते के कारण यहाँ से जल्दी निकल गये. हमारे आज के मूल आयोजन से हम लगभग ८ घंटा देरी से चल रहे थे. इस बिच नागपुर एअरपोर्ट से घर जाते रास्ते में सकुशल पहोंच ने का इश्वरलाल फोन सुनकर सभी साथीओने राहत की साँस लिया. 
 “KARGIL WAR MEMORIEL” @ द्रास
 “KARGIL WAR MEMORIEL” @ द्रास
“KARGIL WAR MEMORIEL” @ द्रास 
 “KARGIL WAR MEMORIEL” @ द्रास
 “KARGIL WAR MEMORIEL” @ द्रास
 “KARGIL WAR MEMORIEL” @ द्रास
 “KARGIL WAR MEMORIEL” @ द्रास
 “KARGIL WAR MEMORIEL” @ द्रास
“KARGIL WAR MEMORIEL” @ द्रास
    
यहाँ से कारगिल तक का रास्ता पहाड़ी मैदान विस्तार वाला है. BRO द्वारा निर्मित इस रास्ते का ताजा डांबरीकरण हुआ था. रास्ते के दोनों तरफ गाइड बार में रेडियम पट्टी के कारण रात्रि प्रकाश में रास्ता दूर तक स्पष्ट दिखाई देता है. कारगिल के पहले पहले फीर से घाट सेक्सन शुरू होता है. लेकिन रास्ता अत्यंत सुन्दर है. एक तरफ भारी गति से बहती द्रास नदी का शोर सुनाई पड़ता है. रातको १०.०० बजे हम कारगिल शहर में पहोंचे. यहाँ थोड़ी थोड़ी बारिश चालू थी. शहर में एक जगह आगे नदी के कटाव में रास्ता बह जाने के कारण मुख्य रास्ते से ट्राफिक डायवर्ट की गई थी. एवं शहरमे पिछले २ दिनों से लाईट सप्लाई बंध होने के कारण हमें हमारी आरक्षित होटेल खोजने में समय लग गया. यहाँ हमारा मुकाम होटेलमें था. रात ११.०० बजे होटेल पहोंचे जनरेटर की लाईट में फ्रेश होकर रात्रि भोजन रात १२.०० बजे किया. हमारी संपूर्ण यात्रा में आज हम कारण वश लेट हुए थे. भोजन करके सो गये. आज लाईट न होने के कारण दैनन्दिनी लिखना नही हुआ.

दिन १४वा दिनाक ९/७/२०१५ कारगिल से लेह:
सुबह देर से उठे अभी तक लाईट नहीं आई थी. खिड़की से कारगिल शहर का द्रश्य देख दिल खुश हो गया. रातके अँधेरे में शहर की भोगोलिक स्थिति समज मे नहीं आई थी. यहाँ अधिकतर पन बिजलीघर से इलेक्ट्रिक सप्लाय होती है. होटेल मेनेजर के बताए अनुशार यहाँ  गर्मी में बर्फ पिघलने से पन बिजलीघर में अधिक पानी भर जाने से टरबाइनमें मिटटी फस जाने से बिगड़ जाते है. जिससे इलेक्ट्रिक सप्लाय बाधित होती है. खेर जो सत्य हो. बिना बिजली गर्म पानी नहीं मिलने के कारण, केवल मुखमार्जन कर ,हाथ पैर धोकर तैयार हो गये. वैसे भी ठंडी जगह पसीना नहीं बहने से एकाद दिन न नहाने से कोई फर्क नहीं पड़ता. नास्ता चाय पानी पीकर तैयार हो गये. यहाँ कारगिल के आजूबाजू द्रश्य देखने के लिए लोकल टेक्षी यूनियन की गाड़ी बैठकर निकले. रास्ता शहर के बिचसे बहने वाली शुरू नदी के पहली पार है. पहाड़ी ढलान पर बसा कारगिल शहर खुबसुरत है. हरीभरी झांस्कर वेली में खुबानी फलके बगीचे लगे है.

कारगिल: ९५०० फुट की ऊंचाई पर सुरु नदी के किनारे बसा कारगिल लदाख का दुसरे नंबर का बड़ा शहर है. यह प्राचीन रेशम मार्ग Silk Rout अफगानिस्तान, तिब्बत, मध्य एशिया, सिंकियांग, कश्मीर और हिमाचलप्रदेश को जोडनेवाले मार्गो का जंक्शन था. आजभी कारगिल की संकरी ऊँची नीची सडको और बाजारमे हमें बाल्टी शिया मुस्लिम संस्कृति अतीत की याद दिलाती है. यहाँ तुर्की शैली में निर्मित मस्जिद दर्शनीय है. कारगिल, सुरुघाटी में जांस्कर और नून-कुन के पहाड़ी क्षेत्रो में पर्वतारोहण का मुख्य आधार है. यहाँ खुबानी फल के लिए जाना जाता है. पहाड़ो की तलहटी में बने बागानों में मई महीने में पूरी बहार आने पर शहर की सुंदरता का निखार बढ़ जाता है. कारगिल श्रीनगर-लेह के मध्य बिंदु पर स्थित है. श्रीनगरसे लेह तक चलने वाली बसें यहाँ रात्रि मुकाम करती है. कारगिल जिल्ला मुख्यालय है.
 होटेल से कारगिल दर्शन
 हुंदरमा गांव 
 सीमा पर आखरी मोटरमार्ग चौकी
 चौकी पर खच्चर द्वारा सर्दियों के लिए केरोसिन पहुचाना
 १९९९ कारगिल युद्ध पहाड़ी फोटो में सफेद दिख रही सैनिक चौकी
  जंस्कार वैली कारगिल
 जंस्कार वैली कारगिल
झांस्कर वेली कारगिल शहर
झांस्कर वेली: कारगिल के निचे, जम्मू काश्मीर की पूर्व दिशामे लाहुल से ऊपर के विस्तार को झांसकर वेली कहते है. पर्वतारोहण एवं साहसिक प्रवासी के लिए यह आकर्षक स्थान है. कारगिल से पदुम होकर इस वेली में प्रवेश होता है. यहाँ बर्फ पिघलने से पानीकी प्रचुरतासे वर्ष में २ फसलों की उपज होती है. घाटी की ऊँचीपर्वत चोटी नून (७१३५ मीटर) कुन (७०३५ मीटर) पर्वतारोहण की पसंदीदा जगह है. यहाँ पुरे क्षेत्रका नजारा अनूठा है.   
    
सुरू नदी के दोनों किनारे ऊँची पहाड़ी ढलान पर बसा कारगिल सुन्दर शहर है. बिचमें अत्यंत तेज गति से बहने वाली सुरु नदीका पानी काला दिखाई देता है. हम नदीका पुल पार कर सामने की दिशा में ऊँचे ऊँचे पहाड़ चढकर १९९९ में भारत - पाक युद्ध वाली ‘टाइगर हिल’ और ‘टोलोलिंग’ पहाड़ी की दिशा में जा रहे थे, जहाँ लड़ाई के वखत पाक सेना को भारतीय जवानो ने मार भगाया था. कारगिल से १५ कीमि  दूर १४,००० फुट ऊँचे पहाड़ पर “हुंदरमा’ गाँव तक गाड़ी जाती है. आगे सेना की चोकी है. यहाँ से POK पाक अधिकृत काश्मीर की बोर्डर का मानव रहित गाँव दिखाई देता है. यहाँ के फोटोग्राफी की. भारतीय सीमा का आखरी गाँव “हुंदरमा’ है यह भी खाली कराया गया है. चोकी में जवानो से बातचीत करने पर, सोमलवाडा नागपुर में रहने वाले भोयर नामक सेना अधिकारी है. जो सामने वाली ऊँची पहाड़ी चोकी पर पहरा भर रहे थे. उनसे रेडिओ फोन द्वारा बात करवाई उनके अनुशार वह हमे ऊपर से देख रहे थे. पर हमें वह नहीं दिखाई देते थे. सेना के जवान ने दूरबीन लाकर हमें उनकी चोकी बतलाई. जो हमारे से लगभग ६-७ कीमि फासले पर थी. काश्मीर की यात्रा दरम्यान हमारा अनुभव है की सेना के जवान नागरिको को मिलकर खुश होते है. खास कर दुर्गम विस्तार में पहरा भरने वाले सैनिक. कारगिल शहर में ‘मराठा रेजिमेंट’ की छावनी है. पाक सेना भारतीय विस्तार घुस आई थी, इसके निसान स्वरूप यहाँ पत्थर की कच्ची दीवार बनाकर रखी है. इस यात्रा दरम्यान हर दिन हमें नए और अनोखे द्रश्य और अनुभव हो रहे थे. कारगिल लौटे कर कारगिल संस्कृति म्यूजियम देखने गये. यहाँ से होटेल जाकर ११.०० बजे चेक आउट कर लेह के लिए प्रस्थान किया.
   
कारगिल से लेह का रास्ता साहसिको के लिए उतेजित करने वाला है. साहसिक यात्री मनाली या श्रीनगर से सायकल, मोटर साइकल या चौपहिया वाहन से विपरीत परिस्थीती में सेंकडो किमी का सफ़र कर जीवन के यादगार क्षण संजोते है. हालाकी विशाल क्षेत्र में फैले, कश्मीर घाटी की हरियाली के विपरीत इस सुक्के बंजर लेह लदाख में, बौध गोम्पा (Monastery) के शिवाय अन्य मानव निर्मित दर्शनीय स्थल या हिल स्टेशन (गिरिमथक) नहीं है. जो है वह काश्मीर और लदाख के बिचमे फैली हिमालय की ‘लदाख रेंज’ और उतरमे फैली ‘काराकोरम’ की पर्वत श्रुंखला. पाकृतिक रूपसे बने अलग अलग रंग, रूप, आकर, प्रकार के पहाड़, हजारो फुट ऊँचे बर्फाच्छादित घाट वाले पास (ला), खाईयाँ, झीलों, नदियोको घाटियों में बसी जनजाति सभ्यता. और इन सारे दुर्गम विस्तार से प्रसार होने वाले उबड़ खाबड़ रास्ते पर विपरीत वातावरण में पर्वतारोहण, रिवर राफ्टिंग और साहसिक सफर आदि रोमांचक साहस प्रतिवर्ष देश विदेशोके हजारो साहसिको को यहाँ खिंच लाता है.
    
वर्षो से लदाख के भोगोलिक विस्तार के बारे में पढ़ सुनकर, Discovery channel पर ‘World’s Extreme Roads’ साहसिक यात्रा जैसे कार्यक्रम देखकर और अन्य पूर्व साहसिक यात्रिओके अनुभव सुनकर, हमारा इस द्वितीय चरण की यात्रा करने का प्रोग्राम बना है. जिसका मुख्य उदेश्य साहस ही है. हालाकी उम्र की द्रष्टि से हम सारे व्यक्ति वरिष्ठ नागरिक थे. यहाँ हमें इस सफर में यात्रा करते देख युवा वर्ग को आश्चर्यजनक लगता था.

कारगिल से लेह के रास्ते के बिच दर्शनीय स्थल:

 मैत्रेय बुद्ध
मैत्रेय बुद्ध
मुलबेख: लेह सड़क मार्ग पर वाखा नदी की हरीभरी घाटी में बसा सुंदर बौध गाँव है. यहाँ का मुख्य आकर्षण सड़क किनारे पत्थर की चट्टान से बनी ९ मीटर ऊँची खड़ी मुद्रा वाली मैत्रेय बुद्ध (भविष्यके बुद्ध) की प्रतिमा. यह ८वीं शदी में बनी है. यहाँ घाटी की एक ऊँची पहाड़ी पर मुलबेख गोम्पा है. जहाँ से पूरी घाटी का मनोरम्य द्रश्य दिखाई देता है. कारगिल से ३० कीमि यहाँ तक के क्षेत्र में कहीं कहीं खेती होती है. यहाँ हमने मैत्रेय बुद्धके दर्शन कर चाय कोफ़ी पिया.

१३४७९’ फुट ऊँचा फातुला पास: श्रीनगर लेह मार्ग पर सबसे ऊँचे ‘फातुला’ घाट की ऊंचाई १३४७९ फुट है. यहाँ बारिस नही गिरती है. जिसके कारण यहाँ भूस्खलन कम होता है. यहाँ प्रमाण में रास्ता ठीक है. प्रत्येक पहाड़ का रंग, रूप, आकर, प्रकार भिन्न भिन्न है. कश्मीर घाटी में हरेभरे चिड देवदार से भरे पहाड़ो का अपना सौंदर्य है. लेकिन यहाँ लदाख में केवल मट्टी पत्थर चट्टान से बने पहाड़ो का अपना अलग ही सौंदर्य है. एक ही विस्तार में वैविध्यपूर्ण निसर्ग की रचना अवर्णनीय है. मानों भगवान ने बड़े केनवास पेंटिंगकी हो.
फातुला पास
श्रीनगर लेह मार्ग पर 13479' फिट सबसे ऊंचा फातुला पास 
लामायारू: लेह मार्ग पर लामायारू एक बहोत प्राचीन बौध गोम्पा है. समग्र लदाख में यह सब से प्राचीन गोम्पा है. इसका निर्माण १०वी शदी में हुआ है. तत्कालीन यहाँ पर ४०० से अधिक बौध लामा रहते थे. इस गोम्पा में अत्यंत सुंदर बुद्ध प्रतिमा और रेशमी कपड़े पर बनाए धार्मिक ‘थंका’ का विरल संग्रह है. इस गोम्पा के बाजुमे पर्वत चट्टान काटकर गुफा है. यहाँ के बौधो की आज भी श्रधा है की यहाँ इस चट्टान पर बैठकर कोई महान लामा ने तपश्चर्या की थी उनके ताप के प्रभाव से आजभी यहाँ की चट्टान तोड़ने पर स्वयं मूर्ति का आकार बन जाता है. यहाँ मार्ग पर ढाबे में हमने मध्याहन भोजन लिया.था.
 लामायुरू गोम्पा
लामायुरू गोम्पा
 लामायुरू गोम्पा

लामायुरू गोम्पा
लामायारू: से आगे बढ़ते खालसी से थोड़ी दूर जुलिचेन में बौध भिक्षुणीयों का बौधमठ और रीझांगका बौधमठ आता है. यहाँ से आगे.
लिरिक गोम्पा: यहाँ १२वी शदिमे स्थापित लिरिक गोम्पा लदाखका पहला शाही गोम्पा अलची गोम्पा के पास है. यहाँ अलग अलग मुद्राओ में बनी भगवान बुद्ध की अनेक मुर्तिओका संग्रह है.

पत्थर साहेब गुरुद्वारा लेह: 
लेह से २८ कीमि पहले मार्ग पर यह गुरुद्वारा बना है. पहाड़ी पर बने इस गुरुद्वारा में दर्शन किये. यहाँ लिखे इतिहास अनुशार तिब्बत की यात्रा दरम्यान गुरु नानकदेवजी ने यहाँ ई.स. १५१७ में यहाँ तपश्चर्या की थी. तत्कालीन एक राक्षस यहाँ की प्रजा को दुःख पहोंचा रहा था. गुरु नानकदेवजी ने उनकी मदद करने हेतु नदी किनारे आसन जमाया. यह देखकर राक्षस ने गुरु नानकदेवजी को मारने के लिए पहाड़ी एक शिला गिराई. गुरु नानकदेवजी ने गिरते पत्थर को अपनी पीठ से सम्हाला था. यह देखकर राक्षस गुस्से में आकर पत्थर को लात मारी, राक्षस का पैर पत्थर में फस गया. यह देखकर राक्षस समज गयाकि यह कोई साधारण मानव नहीं ईश्वरीय शक्ति है. उसने अपनी भूल स्वीकार कर गुरु नानकदेवजी का आश्रय स्वीकार किया. तब से गुरुद्वारा में ग्रन्थ साहेब के पीछे रखे इस पत्थर को पूजा जाता है और पत्थरसाहेब गुरुद्वारा के नाम से इसे जाना जाता है. सेना के जवानो द्वारा संचालित लंगर में सेव बूंदी, एवं चाय का का प्रसाद लिया. यहाँ से चारो तरफ सुक्का, बंजर रेगिस्तानी इलाका है. लेह तक मार्ग मैदानी विस्तार वाला है.
  पत्थरसाहेब गुरुद्वारा लेह लदाख
  पत्थरसाहेब गुरुद्वारा लेह लदाख
 पत्थरसाहेब गुरुद्वारा लेह लदाख

  पत्थरसाहेब गुरुद्वारा लेह लदाख
  पत्थरसाहेब गुरुद्वारा लेह लदाख
 पत्थरसाहेब गुरुद्वारा लेह लदाख

पत्थरसाहेब गुरुद्वारा
लेह: ३३५० मीटर (११,२०० फुट)की ऊंचाई पर स्थित लेह प्राचीन कालमें लेह लदाख की राजधानी थी. प्राचीन समय में मध्य एशिया, सिकियांग, तिबेट, काश्मीर, पंजाब, और हिमाचल प्रदेश को जोड़ने वाला यह जंक्सन था. पुराने रेशम मार्ग Silky Rout का यह विश्राम केंद्र था. चारो औरसे बर्फाच्छादित ऊँचे पहाड़ो से घिरे इस शहर की अपनी ही सुंदरता है. लेह बौध मंदिरों एवं मठ के लिए प्रसिद्ध है.जो शहरके चप्पे चप्पे पर दिखाई देते है. वास्तव में यह बौध मंदिर पुराने धार्मिक दस्तावेजों एवं थंका चित्रों को सुरक्षित रखने के स्थान है. लेह बौध धर्म का केंद्र है. विश्वभर के साहसिक पर्यटकों का आकर्षक केंद है. लेह जिल्ला मुख्यालय है. शहर के पहले पहले मिलेट्री छावनी आती है. हिमालय के उत्तर में भोगोलिक द्रष्टि से यह सड़क, हवाईमार्ग से जुडी महत्वपूर्ण अंतिम छावनी है. यहाँ मिलेट्री संचालित लेहका एअरपोर्ट है. सम्पूर्ण लदाख विस्तार केवल यहीं से दिल्ही, चंडीगढ़, जम्मू, श्रीनगर जैसे शहरों से हवाई मार्ग से जुड़ा है.
 लेह महल

 लेह महल

लेहमहल: लेह महल प्रवासीयों का प्रमुख आकर्षण केंद्र है. नव मंजिला विशाल राजसी महलका निर्माण लद्दाख के शासक सिंगे नामग्याल द्वारा १७वी शदी के शुरू में करवाया था. लेह महल, ल्हासा (तिबेट) के प्रसिद्ध पटोला पैलेस की आवृति समान है. वर्तमानमे पुरातत्व विभाग ने जीर्णशीर्ण इस महल का पुन:निर्माण करवाया है.यहाँ पुरातन चित्रों की प्रदर्शनी है. महल के ऊपर से पूरे लेह शहर एवं आजुबाजुका प्रदेश का द्रश्य मनोहारी लगता है.

 लेह महल के ऊपर तेस्मो नामग्याल गोम्पा


तेस्मो नामग्याल गोम्पा: लेह महल के पीछे पहाड़ के ऊपर स्थित यह गोम्पा तिन मंजिला ऊँची बुद्ध की बैठी मुद्रा वाली महाकाय मूर्ति के लिए जाना जाता है. इसका निर्माण १४३० ई.स. में हुआ है.

शांति स्तूप लेह

शांति स्तूप: शहर से ४ कीमि दूर गोल आकर में निर्मित यह शानदार स्तूप या शांति शिवालय शहर के पश्चिम में एक पहाड़ी पर स्थित है. जापान की मदद से १९८० में यह स्तूप बनाया गया है.



जामा मस्जिद लेह मार्केट
लेह मस्जिद: लेह के मुख्य बाजार में स्थित यह भव्य मस्जिद, तुर्की, ईरानी वास्तुकला का एक उत्कृष्ट द्रष्टांत है, इसका निर्माण शासक देलदन नामग्याल ने १७वी शदिमे अपनी मुस्लिम माँ की स्मृति में करवाया था.

स्पितुक गोम्पा
स्पितुक गोम्पा: लेह से १० कीमि दूर सिंधु नदीके नजदीक एक छोटी पहाड़ी पर यह गोम्पा है. यह १००० वर्ष पुराना गोम्पा है. यहासे सिन्धु नदी का हरियाला द्रश्य सुन्दर दीखता है. इस गोम्पा से ऊंचाई पर एक मंदिर है. गर्भगृह में देवि तारा (काली) की विशाल प्रतिमा है. देवी की मुखमुद्रा अत्यंत भयानक है. इसलिए उनका मुख ढक कर रखा जाता है.
 पवित्र सिंधु नदी लेेेहह
पवित्र सिंधु नदी लेह

सिंधु नदी: लेह पवित्र सिन्धु नदी के किनारे बसा है. सिन्धु नदी लदाख का प्राण है. पवित्र मानसरोवर से निकली सिन्धु नदी के कारण लेहमे थोड़ी बहोत हरियाली दिखाई देती है. शर्दी में यहाँ बर्फ जमी सिंधु नदी के प्रवाह के ऊपर गाड़ी दौडती है. लदाख क्षेत्र की जांसकार, श्योक, नुब्रा आदि छोटी बड़ी नदियाँ आखिर सिंधु नदी में मिलकर यह पुर्वसे पश्चिम की और बहती हुई पाकिस्तान में जाती है. आगे पंजाब की सतलुज, ब्यास, झेलम, चिनाब रावी आदि नदियाँ सिन्धु में मिलकर इस महानदी सिंधु बनाती है. जो पाकिस्तान का प्राण है. पाकिस्तान के सिंध प्रांत में सिंधु नदी अरब सागर में विलीन हो जाती है.

वर्तमान लदाख केंद शासित प्रदेश का प्रशासनिक ' लेह ' शहर

 वर्तमान लदाख केंद शासित प्रदेश का प्रशासनिक ' लेह ' शहर
 वर्तमान लदाख केंद शासित प्रदेश का प्रशासनिक ' लेह ' शहर
 वर्तमान लदाख केंद शासित प्रदेश का प्रशासनिक ' लेह ' शहर
 वर्तमान लदाख केंद शासित प्रदेश का प्रशासनिक ' लेह ' शहर
मार्केट लेह शहर
वर्तमान लदाख केंद शासित प्रदेश का प्रशासनिक ' लेह ' शहर

           थिकसे गोम्पा लेह लदाख
थिकसे गोम्पा: लेह से १७ कीमि दुरी पर सुंदर पहाड़ी पर बना १५वी शदी में निर्मित अति मनोरम्य गोम्पा है. यहाँ १२ मीटर ऊँची भगवान बुद्ध की महाकाय प्रतिमा है. इस १२ मंजिला गोम्पा में ८ मठ है.


 हेमिस गोम्पा लदाख
 हेमिस गोम्पा लदाख

हेमिस गोम्पा: लेह से ४५ कीमि दूर सुंदर पहाड़ी पर बना तिबेट के बहार, लद्दाख का सबसे बड़ा, सबसे धनी और महत्वपूर्ण गोम्पा है. इस मठ में बेशकीमती नंगो से जुडी सोने की मुर्तिया एवं स्तूप है. सिंगे नामग्याल के शासनकाल दौरान १६३० ई.स. में बना यह मठ अपनी भव्यता के लिए जाना जाता है. असंख्य धुप दीपों से सुहासित पवित्र वातावरण में इस गोम्पा में “ॐ मणी पद्मे हूं ह्री” इस मंत्र का जप करते सेंकडो लामा दिखाई देते है. जून के अंत या जुलाई के शरू में यहाँ प्रति वर्ष लामा धर्म के संस्थापक गुरु पद्मसंभव के जन्मदिन पर बहोत भव्य धार्मिक उत्सव मनाया जाता है. २ दिनो के इस उत्सव में  रंगबिरंगे विचित्र मुखोटे और वस्त्र पहन कर नृत्य होते है. जीवन में कम से कम एकबार हेमिस गोम्पा की यात्रा करना लामा धर्म माननेवाले बौधो के लिए आवश्यक माना जाता है. हेमिस मठ में मनाया जाने वाला “त्से चू” त्यौहार शायद सबसे अच्छा मठ त्यौहार है. इसमें गुरु पद्मसंभव के तांत्रिक करतबों का प्रदर्शन कार्य नृत्यों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है. प्रति १२ वर्ष में एकबार धार्मिक थंका चित्रों की प्रदर्शनी होती है. (अंतिम प्रदर्शनी २००४ में हुई थी.)


 लद्दाख महोत्सव
 लद्दाख महोत्सव
 लद्दाख महोत्सव

लद्दाख महोत्सव
लद्दाख महोत्सव: जम्मू व कश्मीर पर्यटन विभाग एवं स्थानीय समुदायों द्वारा लेह व कारगिल जिला प्रशासन मिलकर भव्य पर्यटक मेला १ सितम्बर से १५ सितम्बर तक आयोजित किया जाता है. यह मेले के द्वारा इस क्षेत्र की समृध्ध सांस्कृतिक विरासत को दिखाया जाता है. और यह तेजी से लद्दाख के मुख्य आकर्षण के रूप में उभर रहा है. विभिन्न सांस्कृतिक मंडलियो द्वारा लेह में जुलुश के साथ एक भव्य उद्घाटन समारोह आयोजित किया जाता है. और सभी गाँव वाले समारोहिक पोषक पहनते है व गीत गाते गाते पारंपरिक संगीत के ताल पर विभिन्न प्रकार के नृत्य करते है. यह समारोह पोलो मैदान में जाकर खतम होता है, जहां विभिन्न प्रकार के लोक एवं प्रसिद्ध नृत्यों का प्रदर्शन किया जाता है. इस समय यहाँ लामाओ द्वारा मुखोटा नृत्य, संगीतसंध्या समारोह, ब्रोका आदिवासीयों द्वारा नकली शादी कार्यक्रम, तीरंदाजी प्रतियोगीता और एक बड़ी पोलो प्रतियोगिता होती है.जिसे ‘लद्दाख महोत्सव कप’ कहा जाता है. ऐसे ही महोत्सव कारगिल जिले के अन्य भागो मे भी मनाये जाते है. 


 गोम्पा महोत्सव लदाख
 गोम्पा महोत्सव लदाख
 गोम्पा महोत्सव लदाख
गोम्पा महोत्सव लदाख गोम्पा महोत्सव: यहाँ के शानदार मठ अपने रंगीन त्यौहार के लिए जाने जाते है. मठो की समृध्ध संस्कृति एवं कला इस समय पुरे शबाब पर होती है. मठवाशियों के इस शानदार समारोह में चैम, पवित्र मुखोटा, जरी वस्त्र और जीवंत मास्क में सजे भिक्षुओ (लामा) का नृत्य प्रदर्शन किया जाता है. लम्बे सिंग उड़ाने और झांझ की टक्कर के साथ बौध महाकाव्यों से विभिन्न कहानियां सुन्दर नृत्य के माध्यम से प्रदर्शित करते है.

पत्थरसाहेब गुरुद्वारा के दर्शन कर लेह शहर में दोपहर बाद ५.०० बजे होटेल ‘माउन्ट केस्टल’ पर पहोंचे. होटेल लेह महल के पासमे ढलान पर स्थित है. ३-४ महीने के पर्यटन सीजन के हिशाब से यहाँ अधिकतर १०-१२-१५ रूम वाली छोटी होटले है. यहाँ की होटेलो में विशेष रूप से मोटर साइकलिंग, पर्वतारोहण, करने वाले युवायात्री दिखाई देते है. होटेल में ४ रूममें चेक इन किया, फ्रेश होकर चाय पिए. यात्रा के पूर्व निर्धारित कार्यक्रम अनुशार कल की यात्रा स्थानिक टेक्षी यूनियन की गाड़ी से लेह से नुब्रावेली की करनी थी, वहांपर रात्री मुकाम ‘हुंदर’ में था. लेकिन यहाँ आकर यात्रा आयोजक एजेंट द्वारा जानकारी मिली की कल वहांका रास्ता भूस्खलन के कारण बंध है.
   
भूस्खलन के कारण रास्ते बंद हो जाना यहाँ के लिए सामान्य बात है. यहाँ टेक्षी यूनियन को इस बात की जानकारी रेडिओ से मिल जाती है. लद्दाखमें ३-४ महीने के पर्यटन सीजन के कारण अंदरूनी क्षेत्र में यूनियन की टेक्षी से ही यात्रा करनी पड़ती है. यह खर्च हमारे यात्रा में पहले से ही शामिल था. इसके विकल्प रुपमे एजंट ने बाद वाली पेंगगोंग लेक की यात्रा कल करने का नक्की किया. लेकिन कल पेंगगोंग लेक से घूमकर वापस लेह होटेल में आकर रुकना था. लेकिन पूर्व आयोजन अनुशार कल यहाँ होटेलके रूम पहले से बुक हो गये थे. यहाँ ऐसी स्थिति आती रहती है. यहाँ होटेल वाले सहयोगी है. होटेल मेनेजर ने कहा आप फिकर न करे केवल एक रात की बात है, परस्पर सहयोग से व्यवस्था हो जाएगी, कल आप निश्चिंत होकर पेंगगोंग लेक घुमकर आओ. मेनेजर से आश्वस्त होकर हम शामको पैदल पैदल निचे लेह की बाज़ार में चक्कर लगाया. पर्यटन सीजन पूर्ण होने के कारण यहाँ अधिक चहलकदमी नहीं थी. यहाँ की बाजार में पुरातन वस्तु की दुकाने, लद्दाखी पश्मीना बुनाईके वस्त्र की दुकाने विशेष रूपसे दिखाई देती है. मनाली के माल रोड की तर्ज पर यहाँ भी कार्य चालू था.
   
शाम ढलते हम होटेल पहोंचे गये. होटेलमे रात्रि भोजन किया. यहाँ का वातावरण सुहाना था. हम पिछले सप्ताह काश्मीर-अमरनाथ यात्रा के कारण यहाँ के कम ओक्सीजन वाले क्षेत्र से अभ्यस्त हो चुके थे. इसलिए हमें यहाँ के वातावरण योग्य बनने में ज्यादा समय नही लगा. हवाईमार्ग से आनेवाले पर्यटकों को यहाँ के वातावरण के योग्य होने के लिए एक दो दिनका समय लगता है. दैनन्दिनी लिखकर सुबह जलदी निकलने का पोग्राम कर विश्राम किया.

दिन १५ वा १०/७/२०१५ लेह-पेंगगोंग-लेह:
सुबह ६.०० बजे प्रात:कर्म से निवृत होकर तैयार हो गये. स्थानिक टेम्पो ट्रावेलर गाड़ी में बैठकर भगवद नाम स्मरण के साथ पेंगगोंग झील रवाना हुए. लेह मनाली रोड पर २० कीमि दूर ‘कारू’से पेंगगोंग लेक का रास्ता अलग हो जाता है. कारू तक रास्ता सिंधु नदी के किनारे किनारे जाता है. ४-५ वर्ष पहले बादल फटने के कारण आई भारी बारिश के कारण तबाह हुए लेह शहर का यह विस्तार नया बस रहा है. कारू में पेंगगोंग जाने के लिए पर्यटनहेतु रजिस्ट्रेसन कराना पड़ता है. बिच रास्ते में आने वाले अभयारण्य का टिकट यहाँ से लेनी पड़ती है. कारू के आगे ‘सक्ति’ गाँव तक रास्ता मैदानी विस्तार से गुजरता है. सक्ति से आगे ऊँचे पहाड़ो पर चढाई शरू होती है. आगे पहाड़ पर रास्ता उबड़खाबड़ और सीधी चढाई वाला है. यहाँ से ऊपर की तरफ दूर दूर बर्फाच्छादित शिखर दिखाई पड़ते है. यह रास्ता पहाड़ो पर घूमता फिरता उन शिखरों पर जाते हुए दीखता है. निचे देखने पर सब कुछ छोटा छोटा दीखता है. यहाँ ज्यादा आवागमन नहीं है सेना या पर्यटक वाहन की आवजाही दिखती है. आगे बर्फाच्छादित पहाड़ की चोटी पर ‘चांगला पास’ है. यहाँ का रास्ता अत्यंत खतरनाक है. घाट के ऊपर छोटा मोटा भूस्खलन होते ही रहता है. पहाड़ोकी चोटीसे बर्फ पिघलकर झरने रोड पर बहते है. इससे रोड पर की मिट्टी धुलकर निचे बह जाती है. घाट के दोनों तरफ हर समय बुलडोजर सडक मरम्मत के लिए तैयार ही रहते है.

चांगला पास: लद्दाख रेंज की ऊँची ऊँची बर्फाच्छादित चोटियों में से एक चोटी पर यह ‘चांगला पास’ ५३६० मीटर (१७५८६ फुट) ऊँचा है. यह विश्व का तीसरा सबसे ऊँचा सड़क परिवहन मार्ग है. यह वर्ष भर बर्फाच्छादित रहता है. जुलाई ऑक्टोबर के बिच पर्यटन सीज़न में इसे बर्फ हटाने वाली मशीनों से साफ कर वाहनों के लिए चालू रखा जाता है.
   
घाट के पहले २-३ किलोमीटर की अंतिम चढाई अत्यंत खतरनाक है. एक तरफ बर्फाच्छादित पहाड़ की खड़ी दीवाल तो दूसरी तरफ खडी खाईहै. सामने से आते वाहन को साइड देने के समय गाड़ी रेंगते रेंगते पार करना पड़ता है. अंदर बैठे यात्री डर के मारे निचे की और देख नही पाते. बर्फ एवं पानी की मार से रास्ता धुल जाता है. यह आखरी की चढाई पार करने में आधा पौन घंटा लग जाता है. आखिर हमें घाट का मध्य बिंदु चांगला पास दिखाई दिया. यहाँ पहले से १०-१२ गाड़ियां, अनेक मोटर बाइक और साइकले दिखाई दी. पर्यटक यहाँ बर्फाच्छादित घाट पर बर्फ का मजा लेते दिखाई दिए. हम भी गाड़ी से उतरकर उनके साथ मजा उठाने लगे. यहाँ रात को हुई ताजा बर्फबारी दिखाई दे रही थी. नर्म नर्म बर्फ हाथ में लेकर एक दुसरे पर फेकने का आनंद ही कुछ अलग है. यहाँ हवा पतली हो जाती है. अस्थमा के मरीज को यहाँ भारी तकलीफ होती है. हमने नागपुर से पूर्व तयारी करके इन घाटो पर होनेवाली ओक्सीजन की कमी से बचने के लिए हमारे फेमेली डॉ. कमलेश कोठारी से होमियोपैथी दवाई का डोज़ दो दिन पहले से लेना चालू कर दिया था. जिसके कारण हमें तो कोई तकलीफ नही हुई इतना ही नहीं हमने वहां अन्य पर्यटकों को यह दवाई देकर राहत दिलवाई थी.

चांगला पास 5,360 Mt (17,688') ऊंचाई विश्वका 3rd Heighest वाहन व्यवहार वाला मार्ग


 चांगला पास 
 चांगला पास 
चांगला पास 
 चांगला पास 
चांगला पास 
यहाँ टूरिज्म डिपार्टमेंट द्वारा संचालित केफेटेरिया में गर्मागर्म कोफ़ी का मज़ा लिया. यहाँ हमें कच्छ मांडवीका फौजी अजय सोढा मिल गया उनके साथ BRO Well comes you to Mighty Chhangla 17,688' Altitude वाले सिमाचिंह के आगे खड़े रहकर फोटोग्राफी की. इस पेंगगोंग झील यात्रा में जितना महत्व पेंगगोंग झील देखनेका है ठीक इतनाही महत्व इस महाकाय ‘चांगला पास’ देखने और मजा उठाने का है. यहाँ ओक्सीजन की कमी के कारण सेना के जवान अधिक समय रुकने नही देते. यहाँ का मजा उठाकर हम आगे बड़े. यहाँ से निचे उतराई है. कई किलोमीटर तक बर्फ रोड के किनारे पर दिखाई देती है.
रुप्सू: लेह से ल्हासा के रास्ते लेह से पूर्व दिशाका यह प्रदेश रुपसू नाम से जाना जाता है. चारो तरफ अलग अलग रंग, रूप, आकार, प्रकार के ऊँची ऊँची पर्वतमालाओ से घिरा यह रुपसू एकदम बंजर और वीरान प्रदेश है. यहाँ मानव बस्ती नहीं के बराबर है. यहाँ पेंगगोंग सो, सो मोरीरी झील (Tso त्सो = झील) जैसी खारे पानी के अनेक विशाल झीले है. यहाँ एक महत्वपूर्ण कारजोक गोम्पा है. एक समय में कारजोक इस विस्तार का प्रशासन केंद्र था. लेह-ल्हासा मार्ग पर यह विश्राम स्थान था.
दर्द जनजाति: यहाँ दर्द नामक लद्दाखी जाती है. यह जनजाति आजभी अत्यंत प्राथमिक अवस्था में जी रही है. दर्द जाती के लोग जीवन में कभी भी स्नान नहीं करते. इनके मान्यता है की यदि हम स्नान में पानी बिगाड़ेगे तो देवता नाराज हो जायेंगे. फिर हमें पिने के लिए पानी भी नहीं देंगे. यह जनजाती रातको देवताके डरसे दिए भी नही जलाते. इनलोगों को गाय और मुर्गी से नफरत है. इसलिए गाय का दूध और अंडे को खानापीना तो ठीक पर स्पर्श तक नहीं करते. वह याक, भेड, बकरों के साथ रातको एक रूम में ही  सोते है. इस रस्ते पर याक, भेड, बकरी आदि पशु चरते हुए दिखाई देते है. लद्दाख में याक पालतू जानवर है. इसका उपियोग गाय बैल के रुपमे खेती के लिए भी होता है.
    
यहाँ से आगे रास्ता घाट उतरकर डार्बुक में स्योक नदी के तट में से होकर चलता है. यहाँ स्योक नदी का तट अत्यंत विशाल है. स्योक नदी यहाँ से उत्तर पश्चिम की और बहकर आगे उत्तरी लद्दाखमें ‘दिसकीत’ के पास नुब्रा नदी को मिलती है. डार्बुक से एक पहाड़ी रास्ता नुब्रा वेल्ली जाते समय खालसर के पास मुख्यमार्ग को मिलता है. आगे ‘तांगस्ते’ से फिर चढाई शरू होकर ‘लुकुंग’ के पास पेंगगोंग झील दूर से दिखाई देती है. यह विस्तार चांगचेमो पर्वतीय क्षेत्र के नाम से जाना जाता है.

पेंगगोंग सो झील: यह एशिया की सबसे बड़ी खारे पानीकी झील है. इसकी लम्बाई १६० किमी और चौड़ाई २ से १० किमी है. ४२६७ मीटर (१४०८८ फुट) की ऊंचाई पर स्थित यह बड़ी झील भीतरी भूभाग पर समुद्र की तरह लगती है. इसका डबल से जयादा हिस्सा तिब्बेतमें (चीन) स्थित है. नील हरे रंग का पानी, पुरे चांगचेमो पर्वतीय क्षेत्र के दृश्य को परावर्तित कर अत्यधिक मनभावन बनाता है. यह झील लेह से १५० किमी दुरी पर है.  इस खुबसुरत झील के किनारे मसहुर 3 Idiot पिक्चर की सूटिंग हुई थी. तब से यहाँ पर्यटकों की संख्या में वृधि हो रही है.
पेंगोंग लेक
पेंगोंग लेक
पेंगोंग लेक
पेंगोंग लेक
पेंगोंग लेक
पेंगोंग लेक
पेंगोंग लेक
पेंगोंग लेक

पेंगोंग लेक
इस तरह हम दोपहर एशिया की खारे पानी की सबसे बड़ी एवं सुंदर पेंगगोंग झील पर पहोंचे. यहाँ हमारे पहले कई पर्यटक पेंगगोंग झील का मजा उठाते देखे. हम भी झील किनारे गए झील का पानी एकदम स्वच्छ है. आज सुबह से आकाश में बादल छाए हुए थे. ड्रायवर ने रास्ते में ही हमें बताया था की यदि कडक धुप नही होंगी तो पेंगगोंग झील का नजारा देखने का इतना मजा नहीं आएगा जितना सूर्य प्रकाश में आता है. बिच बिच में सूर्य बादल से मानो हमारे लिए अपना प्रकाश झील में डालकर हमें झील की रौनक बता कर रोमांचित कर रहा था. यहाँ हमने अलग अलग अंदाज में फोटोग्राफी कर इसे जीवन के यादगार पलोमे संजोया है. ड्रायवर के अनुशार 3 Idiot पिक्चर की सूटिंग यहाँ से ४० कि.मी. आगे हुई थी. यहाँ से आगे हम आधे तक जा जाकर झील के अंदर तक का दृश्य देखकर आये. यहाँ हमने झील के किनारे साथ मे लाये नास्ते का आनंद लिया.

वापसी सफ़र में बारिस चालू हो गई थी. चांगला पास तक पुरे रास्ते बारिस गिरती रही. चांगला पास पहोंचते पहोंचते बारिस बढ गई थी यहाँ के घाट के पहले उबड़खाबड़ रस्ते ने नदी नाले का रूप ले लिया था. एक जगह रोड पर घुटने तक पानी बह रहा था. सामने से ३-४ मोटर बाइक वाले युवान आ रहे थे उन्हें साइड देने के लिए हमारे ड्रायवर ने गाड़ी रोक दी थी. हमारे देखते देखते एक मोटर बाइक पानिमे फिसल कर घिरगई ड्राईवरभी निचे घिर गया. पीछे वाले साथी और अन्य बाइक वालो ने उसे सम्हाल लिया ३-४ जनों ने मिलकर गाड़ी पानी से बहार निकाल लिया. लद्दाख में इस तरह की घटनाए सामान्य है. घाट में यहाँ से आगे ऊंचाई पर बर्फबारी होने लगी थी. जाते समय हम रुके थे उस केफेटेरिया के सामने का भाग पूरा बर्फ से ढक गया था हमने यहाँ निचे उतर कर जीवन की पहली बर्फबारी का आनंद उठाया. कपास से भी नर्म बर्फबारी का यह हमारे लिए प्रथम अनुभव था. यह सारे क्षण हमने केमरे में कैद कर लिए है. यहाँ थोड़ी देर खड़े रहे तो गाड़ी के कांच पर बर्फ की सतह जम गई थी. ड्रायवर के अनुशार घाट के उपरी हिस्से पर हमेशा बर्फबारी होती रहती है. हम सब साथी के जीवन में यह प्रथम अनुभव था यह देखकर सब खुश हो गये. घाट की उतराई पर पानी बढ गया था जाते समय भी तकलीफ हो रही थी. अब तो पानी जयादा था, हमारे अनुभवी ड्रायवर ने रास्तेका अनुमान लगा कर खतरनाक रास्ते से हमें सम्हाल कर गाड़ी चलाकर निचे उतार दिया. निचे उतरते समय बारिस बंद हो गई थी. घाट के रास्ते में बारिस का अनुभव देखकर लगा की यहाँ के टेक्षी यूनियन का निर्णय सही है. भले यहाँ अलग गाड़ी के किराये का खर्चा बढता है. लेकिन सुरक्षा की द्रष्टि से अनुभवी ड्रायवर से यात्रा करना योग्य है. आजकी यात्रा में विश्वके ऊँचे सडक वाले घाट पर बर्फबारी का आनंद विश्वप्रसिद्ध पेंगगोंग झील का अनुपम सौन्दर्य  यह सब जीवन के अनोखे आनंद की अनुभूति थी.

वापसी यात्रा में लेह शहरकी तिब्बेत मार्केट के सामने उतर गये, यहाँ गर्म कपड़े का बाजार देखकर वहाँ से पैदल घूमते घूमते होटल पहोंच गए. यहाँ आज हमें इस होटल में दो रूम और बाजु की होटल में एक रूम में समायोजन करना था. हमारे मूल आयोजन अनुशार आज की रात हमे नुब्रावेलीमें रुकना था. इसलिए यहाँ के रूममें अन्य यात्रीओ की बुकिंग थी. हमारी होटल माउंट केस्टल में योगनुयोग सारे यात्री महाराष्ट्र पुणे, मुंबईके ही थे. यहाँ एक ६२ शाल के महाराष्ट्रीयन सद्गृहस्थ से मुलाकात हुई वह मनाली से ५०० कीमी साइकल चलाकर आज लेह पहोंचे थे. यह उनकी तीसरी साइकल यात्रा थी. और यहासे पेंगगोंग झील और नुब्रा वेली का ३५० किमी का सफ़र भी साइकल से करने वाले थे. यह सुनकर हमे आश्चर्य हुआ की गाड़ी में बैठकर सफर करते करते हमारी हालत बिगड़ रही है. जबकि इतनी सारी चढाई और वह भी साइकल पर हमे तो यह बात असंभवसी लगती थी. लेकिन वास्तविकता हमारे सामने थी. हम सब ने उन ६२ शाल के नवयुवान साहसिक के साथ फोटोग्राफी कर उनकी यादे कैद कर ली. रात को भोजन कर कल सुबह नुब्रा वेली जाने का आयोजन कर रूम में दैनन्दिनी लिखकर विश्राम किया.
 62 वर्षीय सायकल सवार पुणेकर के साथ होटल में

दिन १६ वा दिनाक ११/७/२०१५ लेह – नुब्रा वेली
सुबह नास्ता करके गाड़ी का इंतजार कर रहे थे. आज नई गाड़ी आने वाली थी. ९.०० बजे ड्रायवर मिर्जा अपनी टेम्पो ट्रवेलर लेकर होटेल पर गया. आज हमारे साथ मनीष भी हमारा साथी बनकर यात्रा करने वाला था. रात्रि मुकाम के लिए जरुरी सामान साथमें रख लिया था. लेह शहरसे नुब्रा वेली यात्राका परमिट फॉर्म भरकर तैयार रखा था. नुब्रा वेलीके लिए लेह होटेलसे ही चढ़ाई शरू हो जाती है. लेहसे शंकर गोम्पा होते हुए रास्ता ‘खार्दुंगला पास’ जाता है. पुरे लद्दाख विस्तारमें एकाद जगह को छोड़कर कहीं २५-३० फुट से अधिक सीधा और समतल सडक नहीं है. लेहसे ३५ कीमि  दूर ‘खार्दुंगला पास’ का रास्ता लेहसे खड़ी और तीव्र चढाई वाला है. पहाड़की खड़ी ढलानको काट कर रास्ता बनाया गया है. यह पहाड़ अधिकतर भुरभूरी मिटटी पत्थरके बने हुए है. यहाँ उपर से मिटटी पत्थर घिरते रहना सामान्य बात है. चालू सफरमे पर यह दृश्य दिखाई देते है. जब कोई बडे भूस्खलन रास्ता बाधित हो जाये तब रास्ता बंध करनेकी घोषणा होती है. यहाँ एक जगह पर पहलेसे भरकर तैयार फॉर्म से खार्दुंगला पाससे नुब्रावेली आने जाने का निशुल्क यात्री परमिट मिलता है. सुरक्षा की द्रष्टि से यह योग्य है. 

खार्दुंगला पास के १० कीमि पहले की चढाई बर्फाच्छादित पहाड़े की बिचमें से है. हमारे लिए यह अनोखा और रोमांचक अनुभव था. यहाँ रास्ता या घाट पर जितनी भी फोटोग्राफी करो यह कम ही है. मोटर बाइक चालक अपने हेलमेट पर विडिओ केमेरा लगाकर पुरे रास्ते की विडियो सूटिंग करते है. हम हमारे केमरे, मोबाईल में पूरी यात्रा की सूटिंग करते आ रहे है. सब के मेमोरी कार्ड भर गये है. लेह से नये कार्ड खरीदे है. यह रास्ता भी कल वाले ‘चांगलापास’ जैसा ही है. विशेष कर घाट की ऊंचाई पर बारिस एवं बर्फबारीके कारण रास्ते धुल जाते है. यहाँ बुलडोजर हमेंशा तैयार ही रहते है. लेकिन प्रकृतिके सामने मानव बौना पड़ता है. रास्ते की हालत और निचे खाई देखकर भय एवं रोमांच की अनुभूति होती है.

आज सुबह गाड़ी के इंतजार में एक घंटा लेट गाड़ी आने के बाद, अगले दिन इस गाड़ी में केरोसिन छलकने से बास आ रहि थी. हालांकी ड्रायवर ने सुबह गाड़ी धोया था लेकिन अभी भी बास आ रही थी. जो महिलाओ को अशहय हो रही थी. शिर दुखने लगा था. आजकी सफर में कल से भी ऊँचे घाट वाला रास्ता पार करना था. दो दिन पहले, कारगिलसे लेह पहोंचते पहोंचते हमारे साथी में से कुछ की हालत खराब हो रही थी. १५ दिनों से बहार का भारी भोजन, लगातार यात्रा की थकान, पहाड़ी रास्ते पर गाड़ी का सफर और इन सबके साथ लद्दाख विस्तार में मानशीक तैयारी किये बगर यात्रा, मानव रहित विरान बंजर पहाड़ी विस्तार देख देखकर शारीरिक और मानशिक कमजोरी आना स्वाभाविक ही था. साथो साथ इश्वरलाल दंपतिको यात्राके आगामी चरण छोड़कर वापस जाना पड़ा था, इतना ही नही उनकी रक्त वाहिनी के ब्लोक हो जाने के कारण खून की कमी से खराब हुई छोटी आंत को ओप्रेसन से काटने का समाचार आदि सब कारण साथ मिलकर हमारे उत्साहको ठंडा कर रहे थे. हम उन्हें मानशिक आश्वासन और हिम्मत देकर जोश तो दिला रहे थे. परंतु कल चांगला पास का दृश्य, बर्फबारी और पेंगगोंग झील मनोरम्य दृश्य देखकर सबके मनमे कुदरत ने उत्शाह भर दिया था. जो आज काम आ रहा था.

१८३८० फुट विश्व का सबसे ऊँचा यातायात मार्ग खारदुंगला पास
खारदुंगला पास 
खारदुंगला पास
खारदुंगला पास

खारदुंगला पास
खार्दुंगला पास: लेह से उत्तर दिशा में लद्दाख रेंज की ऊँची बर्फाच्छादित चोटी पर ‘खार्दुंगला पास’ ५३८५ मीटर (१८३८० फुट)की ऊंचाई पर स्थित है. यह ‘खार्दुंगला पास’ विश्व का सबसे ऊँचा सड़क परिवहन मार्ग है. यह वर्ष भर बर्फ से ढका रहता है. जुलाई ऑक्टोबर के बिच पर्यटन सीज़न में इसे बर्फ हटाने वाली मशीनों से साफ कर वाहनों के लिए चालू रखा जाता है. सुरक्षा द्रष्टि से यह महत्वपूर्ण मार्ग है. उत्तरमे काराकोरम स्थित सियाचिन विस्तार में भारतीय सेना की छावनी में आपूर्ति का एक मात्र मार्ग है. पर्यटक इस घाट मार्ग से ‘नुब्रावेली, और पानामिक तक जा सकते है. इतनी ऊंचाई के कारण यहाँ ओक्सीजन की कमी बनी रहती है. लद्दाख विस्तार के ऊँचे घाटो पर मिलेट्री केंप में ओक्सीजन चढ़ाने की सुविधा

१८३८० फुट विश्व का सबसे ऊँचा यातायात मार्ग खारदुंगला पास यहाँ घाट पर पहुँचकर देश विदेश के अन्य पर्यटकों के साथ हमने भी बर्फ का आनंद लिया. उनके साथ फोटोग्राफ लिए. यहाँ के टूरिज्म डिपार्टमेंट द्वारा संचालित केफेटेरिया में गरमा गर्म कोफ़ी का मज़ा लिया. यहाँ से नजर पहोचने तक केवल बर्फ ही बर्फ नजर आता है. “विश्वका सबसे ऊँचा सडक मार्ग” साइनबोर्ड के सामने खड़े रहकर फोटोग्राफ लिए. इस उम्र में हमारे जैसे वरिष्ठ नागरिक इतनी ऊंचाई पर सहजता से चहलकदमी कर बर्फ का आनंद उठा रहे थे यह बात इन फोटोग्राफ से प्रमाणित होने वाली थी. बर्फाच्छादित इस घाट का दृश्य, यहाँ की अनुभूति हम तन मन में भर रहे थे. जो जीवन की यादगार क्षण में सुमार होनेवाली थी. महिलाओ को शिरदर्द यहाँ के आनंद से ख़तम हो गया था. सब यहाँ मजा लेकर प्रफुलित हो गये.

“प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते” एवं “प्रसादस्तु मन प्रसन्नता”

निसर्ग का आनंद ही ऐसा है. जो प्रसाद (प्रतिसाद) देता है. यह प्रसाद से तरोताजा होकर हम आगे के सफ़रके लिए निकल पड़े. यहाँ घाटके दोनों तरफ ढलान पर किलोमीटर तक बर्फ छाई रहती है. यहाँ से आगे ‘खार्दुंग’ गाँव तक उतराई वाला रास्ता है. खार्दुंग में मिलेट्री ट्रांजिट केम्प है. घाट पर भूस्खलन या भारी बर्फबारी से सड़क यातायात बाधित होजाने पर, यहाँ ट्रक या पर्यटक को आपातकालीन रहने, खानेपिने की सुविधा ही सकती है. खार्दुंगके आगे फिरसे चढाई ही चढाई है. यहाँ के पर्वत केवल मट्टी पत्थरके चित्रविचित्र रंग रूप आकर, प्रकारके बिना पेड़ पौधोके नंगे पर्वत देखकर विचित्र और भयानक लगते है. ऐसा लगता है की बड़े केनवास पर निसर्ग ने चित्रविचित्र आकृति खिंची हो. यहाँ आगे श्योक नदीकी अत्यंत विशाल घाटी दिखाई देती है. जिसमे हजारो फुट निचे बहती श्योक नदी दिखाई देती है. पाकृतिक द्र्श्योको शब्दों से वर्णित करना हमारे जैसे सामान्यो के लिए कठिन बात है. फिरभी जैसे तैसे कहे, सुने, पढ़े शब्दों के सहारे काश्मीरका वर्णन एक बार शक्य हो सकता है. लेकिन लद्दाखके पाकृतिक द्र्श्योको वर्णित करके शब्दों से अनुभूति व्यक्त कराना हमारे लिए तो असंभव ही है. यहाँकी अनुभूति शब्दातीत है. इसके लिए तो यहाँ स्वयं जाना पड़ेंगा. हम इतनाही कह शकते है. अदभुत ! अदभुत !

पूर्व लद्दाखमें पेंगगोंग झीलके रास्ते डार्बुक से बहकर आई श्योक नदी जो कल हमने देखी थी वह यहाँ बहकर आती है और आगे नुब्रावेलीमें नुब्रानदी से मिलजाती है. डार्बुक से श्योक नदी के किनारे से आनेवाला रास्ता खालसर में इस मार्ग को मिलजाता है. आगे खालसर में दो रास्ते अलग हो जाते है. एक रास्ता ‘सुमुर’ से पानामिक को जाता है. पानामिक में गर्म पानी के झरने है. और आगे उत्तर में चीन की बॉर्डर तक मिलेट्री आधार केंप तक जाता है. दूसरा रास्ता श्योक नदीके तट में चलकर दिसकिट गोम्पा, हुंदर होते हुए चालुन्का तक जाता है.

श्योक वेली
श्योक वेली
श्योक नदी के किनारे भोजन
श्योक नदीके किनारे इस रोड के जंक्सन पर बैठ कर हमने निसर्ग भोजन का आनंद लिया. यहाँ सेना के जवान के साथ बातचीत करने से जानकारी मिली की पामानिक जाने वाले रास्ते पर यह आखरी गाँव है. इसके आगे सेना के वाहन जा सकते है. आखरी छावनी के बाद रास्ता नही है. यहाँ काराकोरम की पर्वतमाला में वहां से सीमा तक १५० कीमि पैदल या खच्चर के सहारे राशन पहुचाना या आनाजाना करना पड़ता है. उनको वहां के अनुभव के बारे में पूछने पर बताया की वहां की २ वर्ष की डयूटी हमारे लिए सजा जैसी है. वहाँ हम डयूटी बजाने जा रहे है. सीमा सुरक्षा की किमत क्या है ? यह उनको सुनकर हमने महसूस किया. यहाँ से हमारा गंतव्य श्योक नदी के तट में चलता है. यहाँ हवा की गति अधिक रहती है. लगातार तेज गतिसे बहने वाली हवाकी मारसे पहाड़की मट्टी और कच्ची चट्टाने पिस कर बारीक़ बालू बन गई है. यह बारीक़ रेत यहाँ चारो तरफ उड़ते रहती है.  इससे यहाँ रेगिस्तान जैसा रेत के टील्ले बन गये है. आगे श्योक और नुब्रा नदी का संगम है. यह संगम ४-५ कीमि चौड़ा है. पानी १०% में बहता है. यहाँ नुब्रा वेली का दृश्य मनोरम्य है. चारो तरफ ऊँचे ऊँचे बर्फाच्छादित पर्वतों के बिच नुब्रा एवं श्योक नदी की घाटी दूर दूर तक दिखाई देती है. यहाँ हरियाली तो जयादा नहीं पर दोनों नदियोंकी घाटी की भव्यता देखने जैसी है.
दिसकिट गोम्पा: यहाँ से थोडा आगे पहाड़ पर दिसकीट गोम्पा है. इस विस्तार का यह मुख्य गोम्पा है. गोम्पा के निचे वाली पहाड़ी पर भगवान बुद्ध की बैठी मुद्रा वाली १०० फुटसे भी ऊँची मूर्ति है. यह लद्दाख की सबसे बड़ी मूर्ति है. जो एक विशाल चबूतरे पर बनी है. मानव वस्ती रहित इस दुर्गम विस्तारमें इतनी ऊंचाई पर विशाल प्रतिमा देख आश्चर्य ल्ग्तःई. मूर्ति के आगे विशाल खुली जगह है. यहाँ से सम्पूर्ण नुब्रा वेली का दृश्य दिखाई देता है.

दिसकिट गोम्पा भगवान बुद्ध
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 दिसकिट गोम्पा भगवान बुद्ध
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 दिसकिट गोम्पा नुबरा वैली
  दिसकिट गोम्पा नुबरा वैली
 नुबरा वेली हुन्दर विलेज

दिसकिट गाँव से सशुल्क एंट्री टिकिट लेकर इस मूर्ति तक गाड़ी में बैठकर जा सकते है. गाड़ी आखरी तक जाती है. इस भव्य मूर्ति के सामने बैठकर हमने फोटोग्राफी की. यहाँ हवाकी गति अत्यधिक है. इन दिनों दिसकीट गोम्पा में त्योहार की तैयारियां शुरू थी स्वागत द्वार बनाए जा रहे थे. गाँव के रास्ते साफ किये जा रहे थे. यहाँ कुछ समय बैठ कर हम हमारे गंतव्य की और आगे बड़े यहाँ से नुब्रा वेली का हुंदर गाँव ८ कीमि दूर है. नुब्राघाटी में रेगिस्तान जैसे रेत के टिल्ले दिखाई देते है. मानो हम राजस्थान के जैस्लमर में आगये हो. हालांकि यहाँ की रेत हलके काले कलर की है. इन टिल्लो पर पर्यटक घूम फिर रहे थे. हम पहले सीधे होटल ‘डेजेर्ट ओआसिस’ गए जो हुंदर गाँव के आखरी छोर पर स्थित है. यहाँ वर्ष में केवल ३-४ महीने पर्यटक आते है. इसलिए पक्के होटल की जगह टेंट रूम जयादा है.
  होटल ‘डेजेर्ट ओआसिस’ हुन्दर, नुबरा
 सेंड ड्यून हुन्दर नुबरा
 सेंड ड्यून केमल सफारी हुन्दर नुबरा
 सेंड ड्यून हुन्दर नुबरा
हमने पक्के रूम में चेक इन किया. फ्रेश होकर खुले वातवरण में बैठकर चाय कोफ़ी का आनंद उठाया. यहाँ का मेनेजर उतरांचल का राजपूत था. उसकी बनाई चाय के स्वादसे हमें रात के खाने का टेस्ट समज में आ गया. यहाँ से हम नुब्रावेली का मजा लेने के लिए रेत के टिल्लेके पास गये. यहाँकी केमल सफारीमें १ कीमि चक्कर का २००/- से यहाँ केमल राइडींग हो रही थी. यहाँ हमने ऊंट सवारी की. यह भी हमारे जीवन का प्रथम अनुभव था. आगे रेत के टिल्ले पर कोई फिल्म की सूटिंग चालू थी. बम ब्लास्ट कर रेत उड़ाने के सिन की सूटिंग चालू थी. वहाँ पुलिसकर्मी आगे जाने से रोक रहे थे. हमने एक जगह बैठकर अलग अलग अंदाज से फोटोग्राफी की. एक जगह कपडे के परदे बांधकर बनाए अस्थाई तंबू के अंदर स्थानिक महिलाए लद्दाखी वस्त्र पहनकर लद्दाखी संगीत पर लद्दाखी नृत्य कर रही थी. पर्यटक यहाँ पैसे देकर लद्दाखी नृत्य का आनंद लेते हुए लद्दाखी वस्त्र पहन कर उनके साथ नृत्य करते हुए फोटोग्राफी एवं विडिओ खिचवा रहे थे. २-३ घंटे यहाँ का आनंद लेकर वापस होटल गये. रास्ता हुंदर गाँव के बिच से गुजरता है. यहाँ पर कोई त्यौहार की तैयारी के हिसाब से सामूहिक स्वच्छता अभियान चालू था. यहाँ की प्रजा  उत्सव प्रिय, धर्मभीरु और शांत है. लद्दाखमें प्रत्येक गोम्पा का अपना अलग त्यौहार केलेंडर है.


     
होटेल पहोंचकर हम बगीचे में बैठकर रात्री भोजन तैयार होने का इंतजार कर रहे थे. यहाँ रात में तापमान एकदम गिर गया था. सबने गर्म कपडे पहन रखे थे. उत्तर कश्मीर का यह अंतिम पर्यटक क्षेत्र है. इस मार्ग पर आखरी मानव वस्ति वाला गाँव चालुन्का है जो यहाँ से ६० कीमि दूर है. ऐसा लग रहा था मानो हम भारत के अंतिम छोर पर पहोंच गए है. यात्रा दरम्यान हमारा नागपुर परिजनों से आनंद मंगल का आदानप्रदान चालू था. इश्वरलाल के ओपरेशन की खबर जानकर सबको सदमा पहुंचा था. यहाँ हम सबने हनुमान चालीसा का परायण कर उनके जलद स्वस्थ होने की प्राथना की. रात को ९.०० बजे भोजन के लिए रेस्टारेंट से बुलावा आया. यहाँ के होटेलमें यात्रियोंके पैकेजमें भोजन शामिल रहता है. सबसे पहले ठंडे वातवरण में गर्मागर्म सूप पिया, यहाँ हमे पूर्व अनुमान के बिलकुल विपरीत इस यात्रा का सबसे अच्छे और स्वादिष्ट भोजन का आनंद मिला. जिसका अहसास हमे चाय के स्वाद से ही मिल गया था. खाना खाकर थोडा घूम फिर कर अपने रुमोमें  आकर दैनन्दिनी लिखकर रात्री विश्राम किया. भारतके उत्तर दिशाके अंतिम छोर पर पाकृतिक वातावरणमें रात के एकांत में अंतर्मुख होने का अहसास शब्दातीत है

दिन १७वां १२/७/२०१५ नुब्रा वेली लेह:
सुबह देर से तैयार होकर चाय नास्ता कर होटेलसे चेक आउट कर भगवद नाम स्मरण करते वापस लेह के लिए प्रस्थान किया. रातको हलकी बारिश हुई थी. अभी भी बादल छाये हुए थे और हलकी बूंदाबांदी हो रही थी. रास्ते में दिसकीट में त्यौहार की तैयारी जोरो से होती दिखाई दे  रही थी. फिरसे वह ऊँचेनिचे पहाडी रास्तेसे चलकर वापस जा रहे थे. रास्ते में बारिश चालू थी. खार्दुंग मिलेट्री ट्रांजिट केम्प में गर्मागर्म ‘कहावा’ पिया. यहाँसे खार्दुंगलापास की चढ़ाई है. 
नॉर्थ पोलु से बर्फछादीत खारदुंगला पास की चढ़ाई
 वापसी यात्रामें खारदुंगला पास में बर्फ का आनंद
 वापसी यात्रामें खारदुंगला पास में बर्फ का आनंद
 वापसी यात्रामें खारदुंगला पास में बर्फ का आनंद
 वापसी यात्रामें खारदुंगला पास में बर्फ का आनंद
 खारदुंगला में विदेशी पर्यटकों के साथ
 खारदुंगला में विदेशी पर्यटकों के साथ

जैसे जैसे ऊपर चढ़ रहे थे बारिश बढती जा रही थी, दूरसे दिखने वाले घाटके रास्ते पर आज अधिक मोटी बर्फ की चादर बिछी दिख रही थी. रातसे बर्फ़बारी चालू थी, जैसे जैसे हम घाट पर आगे बढ़ रहे थे हमें बर्फ़बारी होते हुए दिखाई दी. बारिश के कारण रोड पर पानी बहकर रोडको धो दिया था. जिसके कारण रोड पर पत्थर खुल्ले हो गये थे, ऐसेमे गाड़ी चलाना मुश्किल होजाता है. मोटर बाइक वाले फिसल कर गिर रहेथे. लद्दाखके घाट पार करने में यह कठिनाई तो है ही. यह तो इन के लिए साहसिक चुनौती है. खार्दुंगलापास पर बर्फ़बारी चालू थी, ताजा बर्फ कपास जैसी हलकी और नर्म होती है. यहाँ हमने गाड़ी से उतरकर बर्फ़बारीमें एक दुसरे पर बर्फ फेंककर मारने का आनंद उठाया. हमें खेलते देख अन्य पर्यटक गाड़ी रोककर बर्फबारी का आनंद लेने लगे थे. यहाँ से यह मजा लेकर हम धीरे धीरे घाट उतरकर लेह वापस लौटे. होटेल पहोंचते १.३० बज गये थे. होटल पहोंच कर अपने रुमो में नास्ता कर आराम किया.
 लेह महल से लेह शहर दर्शन
 लेह महल
 लेह महल
लेह महल से लेह शहर दर्शन

लेह महल से लेह शहर दर्शन 
लेह महल से लेह शहर दर्शन 
   विदेशी पर्यटकों के साथ
दोपहर बाद ४.३० बजे चाय पीकर पैदल चलकर होटल के बाजु में स्थित लेह महल देखने गए. १० मंजिला लेह महल पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है. लेह आने वाले पर्यटकों का यह मुख्य आकर्षण केंद्र है. चुना मट्टी से निर्मित इस महल अपने अतीत को संजोये हुए आज वीरान सा लगता है. निचे के ४ मंजिल पर्यटकों के लिए बंध है. महल के पीछे के प्रवेश द्वार से सीधे ५वीं मंजिल से उपर जा सकते है. उपरी मंजिलो पर केवल चित्र प्रदर्शनी ही दिखती है. राज घराने की कीमती चीज वस्तुए कही दिखाई नही देती. महेल की अंतिम छत से पूरा लेह शहर दिखाई देता है. यहाँ हमें यूरोप के पर्वतारोही दल से मुलाकात हुई. उनके साथ फोटोग्राफी की कुछ समय यहाँ बैठकर ढलती शाम का आनंद लेकर वापस होटल लौटे.
   
यात्रा एजेंट वासिमभाई ने होटेल में आकर आनेवाली कलके प्रोग्राम में हुए फेरबदल के बारेमे बताया की मूल प्लान के मुताबिक कल ‘सरचू’ में केम्प(तंबू) में रात्रिनिवास करना था. लेकिन इन तंबू होटेलके बदले कोई कारणसे अब सरचू से ९० कीमि आगे ‘जिस्पा’में पक्के होटेल रूममें रुकना है. लदाखमें ९० कीमि रास्ता पार करने में ४-५ घंटे का समय लग जाता है. इसलिए कल सुबह यहाँ से ६.०० बजे निकलना पड़ेंगा. तब शाम तक जिस्पा पहोचना होंगा. 
   
आज यहाँ आकाश में बिजली चमक रही थी. बारिश सरीखा मौसम यहाँ भी बन गया था. कल यहाँ से हमें वापसी सफ़र कर हमें सरचू - जिस्पा रुककर मनाली जाना था. होटेल की छत पर हमें मुंबई से आये पर्यटक से मुलाकात हुई. कल वह पेंगगोंग जाने वाले थे लेकिन खराब मौसम और भूस्खलन के कारण दोनों रोड बंद होने की घोषणा कुछ देर पहले ही हो गई थी. ऐसे में उन्हें कल लेह में ही रुकना पड़ेंगा. बातचीत से पहचान निकली वह हमारे स्वाध्यायी बंधू निकले. फिर तो बहोत खुलकर यात्रा और अन्य विषय में बातचीत हुई. इस बिच यहाँ मुशलाधार बारिश शरू हो चुकी थी. लगभग दो घंटे तक जोरदार बारिश हुई. होटल स्टाफ और मेनेजर ने बताया की ४ वर्ष पूर्व यहाँ बादल फटने से लेह में तबाही हुई थी इसके बाद आज इतने जोरों से बारिश हुई है. होटेल ढलान पर स्थित है. लेह पेलेस और तेस्मो गोम्पा वाली पहाड़ी से बहकर आने वाला पानी होटेल के सामने ढलान वाले रास्ते से बहकर आजूबाजू के घरो में घुसने लगा. होटेल के सामने खड़ी गाड़ी को हटाकर ऊंचाई वाली जगह पर खडी करना पडा. ऊपर से लाईट भी चली गई. होटल में तो जनरेटर से बिजली चालू हुई. सामान्यत: लेह में बारिश नही के बराबर होती है. इसलिए कोई पूर्व तैयारी भी नही रहती. बारिश रुकने के बाद भी उपरका पानी बहकर निचे घरो में घुस रहा था. थोड़ी देर की बारिश ने होटेल स्टाफ और यहाँ के पास पड़ोसी को हेरान परेसान कर दिया. इस चक्कर में हमारा भोजन २ घंटा देरी से तैयार हुआ. रात को भोजन कर हम कल यात्रा के चतुर्थ और अंतिम चरण हिमाचल प्रदेश दर्शन यात्रा की तैयारी करने लगे. सुबह ४.०० बजे उठकर तैयार होने का पोग्राम बनाकर विश्राम किया. आज लाईट नही होने से दैनन्दिनी लिखना नही हुआ.

हिमाचल प्रदेश का प्राचीन नाम जलंधर खंड है. हिमाचल के उत्तरमे जम्मू-काश्मीर, पुर्वमे तिबेट, दक्षिण में उत्तर प्रदेश और हरियाणा और पश्चिम में पंजाब है. यह सम्पूर्ण हिमालयीन पर्वतीय राज्य है. पंजाब की पांच नदियों मेसे जेलम छोडकर चार नदियाँ हिमाचल प्रदेश में से बहती है.सतलज कैलाश मानसरोवरका पानी लेकर तिबेट से बहकर आती है. सतलज पर बना महान भाकरा नांगल डेम हिमाचलप्रदेश में है. बाकि की तीन नदीयोंका उद्गम स्थान हिमाचल में ही है. रावी धौलाधार पर्वतमाला से नकली है. ब्यास का मूल रोहतांग पास के उपर व्यास कुंड में है. चिनाब नदी लाहुल प्रदेश के चंद्रताल और सूरजताल से निकली है. कुलु कांगड़ा जैसी नयनरम्य घाटियाँ, किन्नर प्रदेश जैसा अति विशिष्ट प्रदेश, शिमला,मनाली जैसे गिरिमथक और लाहुल स्पीती जैसा सुका पहाड़ी प्रदेश इस राज्य में है. यहाँ मानिकरण, त्रिलोकीनाथ, ज्वालामुखी, बैजनाथ, नरमांड, सरहान, रेणुकाताल, रेवालसर पांओटा साहेब जैसे तीर्थक्षेत्र इस राज्य में है.
   
हिमाचलप्रदेश अपेक्षाकृत नया राज्य है. आजादी के समय यहाँ छोटे बड़े अनेक रजवाड़े थे. इनका एकीकरण कर १५ अप्रेल १९४८ के दिन  हिमाचलप्रदेश राज्य का गठन हुआ है. उस समय राज्य का क्षेत्रफल २७००० किलोमीटर था.१९५४ में १२०० किलोमीटर क्षेत्रफल वाला बिलासपुर जिल्ला जुड़ा १ नवेम्बर १९६६ को  पंजाब हरियाणा अलग राज्य बने तब कुलु, कांगड़ा, लाहुल-स्पीती और शिमला विस्तार हिमाचलप्रदेशमें जुड़कर राज्य का विस्तार डबल से भी अधिक हो गया और पूर्ण राज्यका दर्जा मिला.
   
हिमाचलप्रदेश के पास प्रचुर मात्रा में जल एवं वन संपति है. और इससे विध्युत संपतिभी प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होती है. यहाँ १५००० फुट से अधिक ऊंचाई के १३० पर्वत शिखर है. यहाँ देव-देविओ के अनेक मंदिर है. देव-देविओ के उत्सव मेले, यात्राओं के कारण हिमाचलप्रदेश को देवभूमि माना जाता है. यहाँ की मूल प्रजा हिन्दू है. उत्तर में बौद्ध धर्मी प्रजा रहती है. यहाँ के लोग उत्सव प्रेमी, मौजिले और नाचगान के खूब शोखीन है. गौरवर्णी और सुंदर प्रजा है. 

दिन १८वां दिनाक १३/७/२०१५ लेह सरचू रास्ते मनाली
रात भर हलकी बारिश चालू थी. लाईट अभी तक नही आई थी. गर्म पानी नही मिलने से मुखमार्जन और हाथ पैर धोकर तैयार हुए. आज सुबह जलदी नास्ता मिल गया. होटेलसे चेक आउट कर गाड़ीमें सामान जमाकर, प्रभु स्मरण कर सुबह ६.०० बजे वापसी यात्राके लिए मनाली रोड से निकल पड़े. रास्तेमें बूंदाबांदी चालू थी. जगह जगह रास्तेमें पानी भर गया था. लेह से २० कीमि आगे कारू में गाड़ी में डीज़ल भरवाया और प्लास्टिक केन में अतिरिक्त डीज़ल भरकर रखा. आगे ५०० कीमि मनाली तक कोई फ्युएल स्टेशन नही है. 

उपशी में ट्राफिक जाम था. आगे भूस्खलन के कारण यहाँ ट्राफिक रोका गया था. उपशी से एक रोड पूर्व लद्दाखके अंतराल विस्तारके गाँव में जाता है. यहाँ आधे घंटे के बाद रोड खुल गया. उपशीके बाद चढ़ाई शरू होजाती है. कारूमें भरे डीज़लमें मिलावटके कारण घाट चड़ने पर गाडीके पिकअपमें फर्क दिखाई दे रहा था. मनीष ने अपनी सुजबुज से इसका हल निकाल लिया. हालांकी यहाँ रास्ता प्रमाण में बहोत अच्छा है. आगे रास्ता “तांगलांगला पास” होकर गुजरता है.

“तांगलांगला पास”: 
लेह मनाली मार्ग पर यह ५३२८ मीटर (१७५८२ फुट) ऊँचा विश्वका दुसरे नंबर का सबसे ऊँचा यातायात वाला मार्ग है. यहाँ खार्दुंगला एवं चांगला पास( लद्दाख स्थित विश्व के प्रथम और तृतीय नंबर के सबसे ऊँचे पास घाट) के अनुपात में बहोत ही अच्छा रोड है. यहाँ रातकी गिरी हुई ताजा बर्फ अन्य दो घाटो से भी अधिक मात्रा में दिखाई दे रही थी.
तांगलांगला पास
तांगलांगला पास
तांगलांगला पास
कश्मीर में पिछले १० दिनों में अलगअलग जगह देखी बर्फके मुकाबले यहाँ की बर्फ अत्यंत मुलायम, हलकी और मट्टी रहित एकदम शुभ्र थी. यह बर्फ Snow कहलाती है. यही बर्फ जमकर Ice  बन जाती है. यहाँ पर भी हमने ताजे बर्फ का मजा लिया, यहाँ के क्षणों को केमेंरे में कैद कर लिए. इसी यात्रा दरम्यान हमने पहली बार बर्फबारी, और जमी हुई बर्फका मजा उठाया है. जुलाई महीने में इतने भारी बर्फ के आनंद की हमने कल्पना ही नही की थी. मानो भगवान हमे इस यात्रा में प्रत्येक आनंद की अनुभूति करा रहे है. यहाँ से हटने का मन ही नहीं होता लेकिन यात्रा आखिर यात्रा ही है. “चरैवेति चरैवेति” चलते ही रहना यह यात्रा का सिद्धांत है.
   
लेहसे १५० कीमि आगे पांग (१५००० फुट) तक रास्ता अच्छा है. पांग में मिलेट्री ट्रांजिट केंप है. यहाँ हम चाय पिने के लिए रुके. हमारी गाड़ीमें पीछेले टायरसे हवा लिक हो रही थी. यह देखकर ड्रायवर हमें यहाँ छोड़कर पंचर बनाने गया. यहाँसे मनालीके तरफ रास्ता बहोत खराब स्थिति में है. यहाँ पंचर होना सहज बात है. मनाली के तरफ से आनेवाले मोटरबाइक और अन्य गाड़ियोंमें पंचर सुधारनेवाले ज्यादा थे. और पंचर सुधारनेवाला एक ही था. यहाँ हमें दो घंटेका अतिरिक्त समय लग गया. हालांकी एक टायर तो स्पेयर में था. लेकिन रास्ते की स्थिति जानकर हमने पंचर बना लिया. हमारी संपूर्ण काश्मीर, हिमाचलप्रदेश यात्रा दरम्यान (४००० कीमि) गाड़ी से केवल इतनी ही परेशानी हुई थी. यह भी भगवद कृपा ही थी.
पांग १५०००' फुट पर
    पांग १५०००' फुट पर टायर का पंक्चर सुधारते हुए
पांग के आगे रास्ता एकदम दुर्गम और उबड़खाबड़ है. यह प्रदेश झंस्कारवेली से बहने वाली ईझराप लिंगती नदी का घाटी विस्तार है. यह मानव वस्ति रहित यह सुनसान पहाड़ी विस्तार है. यहाँ विकट भोगोलिक स्थिति में रास्ते की मरमत करना कठिन लगता है. इस रास्ते इन्डियन ओइलके टेंकर अंबाला (हरियाणा) से पेट्रोलियम भरकर लेह चलते है. केवल ४ महीनो में शाल भरका पेट्रोलियम जत्था एकमात्र इसी रास्ते पहोचाना रहता है. इस मार्ग पर सबसे अधिक ट्राफिक इन टेंकरों की ही है. रास्ते की स्थिति देखकर इन टेंकर ड्रायवरो की महेनत और होशियारी की मनोमन कद्र करनी पडती है की धन्यवाद तो इन्हें है जो भारत के उत्तर भाग के दुर्गम इलाके को ऊर्जावान बनाये रखने में और हमारी सीमाओको सुरक्षित रखनेमे अपना अहम योगदान प्रदान करते है. यह बात प्रत्यक्ष देखे बिना समजमें नही आती. राशन या अन्य जीवनावश्यक चीज वस्तुए भी यहाँ से ही पहोंचाई जाती है. विशेषत: पेट्रोलियम प्रोडक्ट पहोचने वाली सर्विस इस विस्तार की जीवनरेखा Lifeline समान है.
झंस्कर वेल्ली
झंस्कर वेल्ली
सरचू रात्रि केम्प

सरचू रात्रि केम्प
‘सरचू’ हिमाचलप्रदेश के ‘लाहुल स्पिति’ विस्तार का प्रवेशद्वार है. यहाँ जम्मू काश्मीर राज्य की सीमा पूरी होकर हिमाचलप्रदेश प्रदेश में प्रवेश होता है. यहाँ दोनो राज्य की जाँचचोकीयाँ है. यात्राके मूल प्रोग्राम अनुशार आजका हमारा रात्रि विश्राम सरचू केंप में था. (३-४ महीनो के लिए तंबू बांधकर अस्थाई केंप) लेकिन सरचू के बदले जिस्पा में होटेल आईबेक्षमें रात्रि निवास की जानकारी हमें कल लेहमे वाशिमभाई से मिलि थी. यहाँ हम दिन रहते ६.०० बजे पहोंच गये थे, सूर्य प्रकाश अभी तेज था. यहाँ से जिस्पा ९० कीमि दूर था, इस रास्ते से इतना सफर काटकर रात १०.०० बजे जिस्पा होटेल में पहोंचने का अंदाज था. आगे बारालाचा ला पास के पहले ७.३० बजे एक ढाबे में चाय पिया. यहाँ ठंडी हवा बह रहीथी और ठंडी भी अधिक थी. 

बरालाचाला पास

बारालाचाला पास लाहुल स्पीती

बारालाचाला पास लाहुल स्पीती
बारालाचाला पास: बर्फाच्छादित बारालाचाला पास हिमाचलप्रदेश का ४८५० मीटर सबसे ऊँचा पास है. यह घाट दर्शनीय स्थल है. इस घाट के तीनो तरफ से तीन नदियाँ का उद्गम स्थान है. एक बाजु सुरजताल है. जहाँ भागा नदी का उद्गम स्थान है. दूसरी तरफ चन्द्रताल है. जहाँ से चंद्रा नदी बहती है. यह दोनो नदी ‘तंडी’में मिलकर चंद्रभागा-चिनाब नदी बनती है. तीसरी तरफ युनाम नदी जो आगे झांसकर बनकर लदाख में जाती है. यह बरालाचाला तीन नदियों का उद्गम स्थान एवं तीन वेलीका (घाटी) संगम स्थान है.

बरालाचाला पास के निचे तरफ का ढलान हमने सूर्य ढलने के बाद पास कर लिया. यहाँ रास्ते की स्थिति बहोत खराब है. बर्फ पहाड़ और रोड पर बिछी हुई थी बर्फके कारण रोड कीचड़युक्त फिसलन वाले बन गये थे. छोटे वाहन को यहाँ कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है. घाट उतरते रास्ता ठीकठाक था. यहाँसे निचे पहोंचते पहोंचते अँधेरा होने लगा था.   
       
रास्ते में “झींगझींग बार” नामक एक जगह हमें ढाबे वालेने हाथ देकर रोक लिया, उन्होंने बतायाकी यहाँसे आगे १५-२० कीमि दूर एक जगह भूस्खलनसे पुलिया बह गया है. दोनों तरफ का ट्राफिक रोक दिया गया है. आप लोगभी यहाँ रात्रि मुकामके लिए रुक जाओ. पहले एकदम से उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ, हमारे लिए यह प्रथम और अनोखा अनुभव था. यहाँसे अभी भी हमारा गंतव्य जिस्पा ४०-४५ कीमि दूर था. हम विचार कर रहेथे इतनेमे एक बंगाली पर्यटक गाड़ी सामने से वापस आई, बंगाली बाबुने हमें वास्तविकता बताई, और कहा की पीछेसे और अन्य पर्यटक वापस लौट रहे है. उनकी बातों का विश्वास कर हमने भी उनके साथ जलदीसे यहाँ के ४-५ ढाबेमेसे एकमें बिस्तरकी बुकिंग कर ली. यहाँके ढाबोमें पत्थर पर लकड़ी की पट्टिया लगाकर उसके ऊपर गद्दी बिछाकर १५-२० बिस्तर लगे रहते है. प्रति व्यक्ति १५०/ के हिशाब से ओढने के लिए एक गर्म कंबल और एक मोटी रजाई साथमे देते है. खाने में केवल राजमा राईस ही मिलता है.
    
इस यात्रा में प्रतिदिन हमें कोई ना कोई रोमांचक अनुभव हो रहे थे. जिसके लिए लेह लद्दाख की यात्रा जानी जाती है. आजभी हम सबके जीवनमें अक अनोखा अनुभव मिला. १५००० फुट की ऊंचाई पर चारो तरफ बर्फाच्छादित बारालाचाला पास के बिच, ० डिग्री से माइनस तापमान की कडकडाती ठंडीमें अस्थाई केंपमें आपातकालीन रात्रि मुकाम करना था. हिमालयमें पहाड़ टूटने (भूस्खलन)के कारण रास्ता बंध होना और चालू होनेके इंतजारमें घंटो राह देखते बैठे रहना यह सामान्य बात है. इसतरह हिमाच्छादित पहाड़ो के बिच, कहीं पर नदी किनारे, घोर जंगलमे, कोई पहाड़ी जलप्रपातके पास घंटो तक अटकने पर भी बोरियत नही लगती. उलटा अच्छा लगता है. हम सबके जीवनमे यह सबसे अधिक ठंडी वाला अनुभव था. व्यक्तिगत मुझे तो बहोत मजा आ रहा था, मानों भगवान ने हमें यह रोमांचक आनंद देनेके लिए ही यह परिस्थिति निर्माण की थी. यदि पंचर नही होता तो इस समय हम शायद हमारे गंतव्य ‘जिस्पा’में होटेल की लक्ज़री ले रहे होते.                       

झींगझींग बार रात्रिनिवास 0 डिग्री तापमान लाहुल स्पीती
झींगझींग बार रात्रिनिवास 0 डिग्री तापमान लाहुल स्पीती

झींगझींग बार रात्रिनिवास 0 डिग्री तापमान लाहुल स्पीती
झींगझींग बार रात्रिनिवास
हालांकी आज सुबहसे ठंडीके कारण इनर्वेअरके साथ सारे गर्म कपड़े पहने हुए थे. यहाँ की ठंडीमें साथके गर्मकपड़े निकालकर पहन लिया थे. खेर जो भी हो इस अस्थाई ढाबे में भी हमें अनोखी लक्जरी मिल रही थी. सोलार पेनलसे चार्ज होनेवाली बेट्रीसे हमारे मोबाईल चार्ज हो रहे थे, एकाद लाईटमें ढाबेवाला गेसचूले पर हमारे लिए खाना बना रहा था. हाथ मुह धोने के लिए किटलीमें गर्म पानी उबल रहा था. अँधेरेमें यहाँ बहने वाले पहाड़ी नाल पर टोर्च लाईट में फ्रेश होने के लिए जाना खतरनाक था. ढाबे के पीछे अँधेरे में प्लास्टिक की बोटल में गर्म पानी भरकर ले गये. पर पहोंचते पहोंचते वह पानी भी ठंडा हो गया. यह सारे अनोखे अनुभव मिल रहे थे. लगभग सारे ढाबे पहले से भर गये थे. अभी भी पर्यटक का आना चालू ही था. इस आपातकालीन स्थति में साथ लिए नास्ते के साथ हमने गर्मागर्म राजमा राईस का आनंद लिया. पेटकी भूख शांत हुई. भोजन के बाद बहार की ठंडी का मजा लेने के लिए निकले, यहाँ एक बात विशेष उलेखनीय है की इस आपातकालीन स्थति में भी यहाँ के निवासी या ढाबे वाले परिस्थितिका फायदा नहीं लेते. यही परिस्थिति अन्यत्र रहती तो वह मज़बूरी का फायदा उठाकर अधिक पैसा वसूल कर लेते. रोज के रेट से हमें आजकी व्यवस्था मिली थी. यहाँ की लोग सरल और प्रमाणिक है. यह इस यात्रा दरम्यान हमने अनुभव किया. सुबह कब रास्ता खुलेंगा यह अनिश्चितता बनी हुई थी. किसी किसी को यहाँ रातको ओक्सीजन की कमीसे घुटनभी महसूस हो रही थी. फिर भी रातको अपेक्षाकृत अच्छी नींद आगई थी.

दिन १९वा दिनाक १४/७/२०१५ केलोंग रोहतांग ला पास मनाली:
    
सुबह उठकर प्रात:कर्म निपटाकर तैयार हो गये. रास्ता अभी तक नहीं खुला था. चाय नास्ता कर रास्ता खुलने का इंतजार कर बैठे थे. यहाँसे मनाली १७५ कीमि दूर है. ९.३० बजे सामने से एक गाड़ी पास हुई, यह देखकर हमने निर्णय किया की यहाँ इंतजार करने से अच्छा दुर्घटना वाली जगह जा कर इंतजार करेंगे. आगे और कितना इंतजार करना पड़े यह अनिश्चितता के चलते मनीष और हम दो साथी ने गर्मागर्म राजमा राईस खा लिया. यहाँ से प्रभु नाम स्मरण कर निकल पड़े.

दुर्घटना स्थल
दुर्घटना स्थल पर ट्राफिक जाम

दुर्घटना स्थल पर ट्राफिक जाम

यहां से दुर्घटना स्थल २० कीमि दूर था. वहां जाकर लाइन में खड़े हो गये. हम ४ साथी आगे पैदल चलकर घटना स्थल पर गये. ऊँचे पहाड़ से बर्फ पिघलकर रोडपर बहनेवाले झरनेके तेज बहावके साथ रोडके मोड़पर जमी बरसो पुरानी बर्फके ग्लेशियर टूट कर रोड को बंध कर दिया था. जिसे बुलडोजर मशीन हटाकर निचे खाईमें डालकर रस्ता बना रहे थे. पानीका बहाव भारी था. काम चलाऊ मिटटी डालकर बारी बारी गाडियों को छोड़ रहे थे. मोटर बाइक और छोटी गाडियों को यहाँसे पार करनेमें भारी कठिनाई हो रही थी. रास्तेके दोनों तरफ खड़े पर्यटक और गाडियों के ड्रायवरकी मददसे धीरे धीरे रास्ता पार हो रहा था. आधे घंटेके इंतजारके बाद हमारी गाड़ी पार करके आगे चले. दूसरी तरफ लाइन काफी लंबी थी. थोड़े आगे भी एक जगह ऐसेही जगह पानी उपरसे गिरकर रोडसे बहकर जा रहा था. यहाँसे निकलनेमे भी १०-१५ मिनिट लग गई. इसतरह रास्ते जाम का यह अनोखा अनुभव लेकर हम आगे बड़े. आगे रास्ता ‘दारचा’ होकर पास होता है. दारचा में चिनाब नदी पार करके आगे जाना पड़ता है. यहाँसे आगे ‘जिस्पा’ आता है. यहाँ की होटेलमें कल हमारा रात्रि मुकाम था. यह होटेल हमें रास्तसे दिखाई दी. यहाँ अब रुकने का कोई कारण नही था. 

झिस्पा लाहुल स्पीती
चंद्तराल चिनाब नदीका उद्गम : हिमाचल प्रदेशके उत्तरी भाग लाहुल-स्पिति विस्तारमें चन्द्रताल एवं सूर्यताल नामक दो सरोवर है. चन्द्रताल से चंद्रा एवं सूर्यतालसे भागा नदी निकलती है ‘तंडी’में दोनोके संगम पश्चात यह चंद्रभागा याने चिनाब नाम पड़ा है. यह चिनाब हिमाचल प्रदेशके पश्चिममें किवलोंग, उदयपुर, टिंडी, और किलाडसे बहकर जम्मु प्रदेशसे बहती है. आगे रामबनके पास चिनाब नदी पर “बगलीआर” डेम बांधकर पनबिजली पैदा की जाती है. आगे पश्चिमकी और बहकर चिनाब पाकिस्तानमें सिंधु नदीमें मिल जाती है.
चंद्तराल चिनाब नदीका उद्गम लाहुल स्पीती
चंद्तराल चिनाब नदीका उद्गम लाहुल स्पीती

चंद्तराल चिनाब नदीका उद्गम लाहुल स्पीती

केलोंग: लेह से जाते समय मनाली से ११७ कीमि पहले रास्तेमे केलोंग शहर आता है. १०,००० फुट की ऊंचाई पर बसा केलोंग यह ‘लाहुल स्पिति’ जिल्लेका मुख्यालय है. यह शहर चिनाब नदीके किनारे ऊँची ऊँची पहाड़ी ढलान पर बसा है. यहाँ हिमाचलप्रदेश का रोड टेक्ष भरना पड़ता है. यहाँ से हरियाली दिखाई देती है. लाहोल स्पिति जिले में बौद्ध प्रजा रहती है. यहाँ हरेभरे पहाडो पर बसे केलोंग शहरका द्रश्य मनोरम्य है. रास्तेमे काश्मीर जैसे ही पहाड़ी पर ऊँची नीची बस्तियां दिखाई देती है.
केलोंग, लाहुल स्पीती

केलोंग, लाहुल स्पीती
केलोंगके आगे मनालीके तरफ रास्तेकी हालत अत्यंत ख़राब है. रस्तेमे हरेभरे पहाडोका द्रश्य मनोरम्य है, सफरजनके बगीचे रास्तेसे दिखाई देते है. रास्तेका सौन्दर्य देखते देखते हलका रास्ता भी कट जाता है. आगे रोहतांग पास के पहले घाट के निचे खोक्सर (१०००० फुट) में ट्रांजिट केंप आता है. यहाँ हमने दोपहर का भोजन किया. यह अस्थाई ट्रांजिट केंप में घरेलू खाने का मजा आया. यहाँ से रोहतांग पास (१३,५०० फुट) के उत्तर की तरफ से चढ़ाई शरू होती है. हमारी यात्रा दरम्यान के सभी पास की चढाईयों से यह सबसे ऊँची, खड़ी और तीव्र चढाई है. रास्ता भी उबडखाबड़ और कादव कीचड़ वाला है. अन्य पास से इसकी चढाई लंबी है जिसके कारण तीव्र चढाई नही है. जबकि यहाँ एक ही पहाड़ पर खड़ी चढाई है. हालांकी प्रमाणमें यह सबसे कम ऊंचाई वाला पास है. इस घाटमें अनजान ड्रायवरके लिए यह खतरनाक रास्ता है. हमारा ड्रायवर मनीष इस रास्ते का जानकर था. जो हमारे लिए राहत की बात थी. इस दुर्गम घाट की फोटोग्राफ, विडिओ सूटिंग करते करते हम रोहतांग पासके टॉप पर पहोंचे. यहाँ वातावरण एकदमसे बदला हुआ था. ऊपर चारो तरफ बर्फाच्छादित था काले घने बादलो से घाट ढका हुआ था. दोपहर के समय ढलती शाम जैसा अहसास हो रहा था. यहाँ व्यास नदीका उद्गम स्थान है. रोहतांगपासके टॉप पर स्थित व्यास भगवान का मंदिर है. यहाँ व्यास भगवानने १२ वर्षो तक तपश्चर्या करके पहाड़ की चोटी पर यह झरना प्रगटाया है. जो आगे बहकर ब्यास नदी का रूप धारण करता है. यह हमने मंदिर में जाकर झरने के बर्फीले पानी में हाथ पैर धोकर पानीका आचमन किया.
रोहतांग पास केलोंग तरफ से
रोहतांगपास: १३५०० फुट की ऊंचाई पर स्थित रोहतांग पास कुल्लु घाटी और लाहुल स्पिति की सरहद है. यहाँ शाल के १२ महीनो ऋतू अनुशार कम ज्यादा बर्फ रहती है. यहाँसे दूरके बर्फाच्छादित शिखरोंके भव्य दर्शन होते है. यहाँ पवन की गति अत्यंत तेज रहती है. विशेष कर दोपहरके बाद तीव्रता बढ़ जाती है. शामके समय यहाँ अक्सर बर्फबारी होतीहै.

रोहतांग पास  व्यास नदीका उद्गम स्थल
मनाली से ५० कीमि दूर रोहतांग पास पर मनाली तक घुमने आये पर्यटक यहाँ घुमने और बर्फ का मजा लेने के लिए आते है. मनीष ने बतायाकी आज मंगलवारको मनालीसे रोहतांगपास का पर्यटन बंद रहता है. और वैसे भी पर्यटन का सीझन भी पूरा हो गया है. अन्यथा भीड़ के कारण यहासे ५० कीमि दूर मनाली पहोचनेमें ५-६ घंटे लग जाते है. घाटसे ढलान वाला रोड अच्छा है. चिड देवदारसे भरा यह हराभरा पहाड़ काले घने बादलोसे ढका हुआ था यह अनोखा दृश्य मनोहारी था. रोहतांग पासकी चढ़ाई और उतराई दोनोंमें जमीन आसमां का फर्क है. ब्यास नदी पहले ८ कीमि में उपरसे निचे की और ५००० फुट गिरती है. रास्तेमें मढ़ी नामक स्थान आता है. यहांसे नदी २ कीमि तक सेंकडो फुट गहरी खाईमें बहती है. यहाँ दर्शन तो नही होते पर नदी का नाद का श्रवण होता है. ब्यास नदी यहाँसे दर्शनीय एवं श्रवणीय है.

ब्यास गुफा
ब्यास गुफा
रोहतांग पास
ब्यास गुफा
   
रास्तेमे ‘पलसान’ नामक मिलेट्री का बहोत बड़ा आधार केंप पड़ता है. रोहतांग पासके निचे सोलांग वेलीमें लंबी सुरंग खोद कर रास्ता बनाने का कार्य दिखाई देता है. यह सुरंग (Tunnel) बन जानेके बाद कुल्लू घाटी लाहुल स्पीतीके साथ सीधी जुड़ जायेंगी. रोहतांग पास की चढ़ाई नही चढना पड़ेंगा केवल इतना ही नही शाल के ६-८ महीने बंद रहने वाला यह मार्ग शाल भर चालू रह पायेगा.
मनाली
मनाली: कुल्लू से ४० कीमि दूर मनाली भारत का प्रमुख गिरिमथक है. हिमालयकी हरीभरी पर्वत मालासे घिरा हुआ मनाली अत्यंत मनोहारी गिरिमथक है. शहरके ऊँचे निचे गोलाकार मार्ग पर्यटकों को दीवाना बना देते है. शर्दी और गर्मीमें देश विदेशके पर्यटकोंके झुंड के झुंड यहाँ उमड़ पड़ते है. मनाली पूर्णत: प्रवासन उद्योग पर आधारित है. पुराना मनाली ब्यास नदीके पूर्व किनारे तथा नयी शहर पश्चिम किनारे पहाड़ी ढलान पर बसा हुआ है. पूर्वमें एक पहाड़ी पर भारतका एकमेव हिडंबा और घटोत्कच मंदिर है. रोहतांग रोडसे ३ कीमि दूर वशिष्ठ मंदिर है.

वसिष्ठ मंदिर मनाली 
वसिष्ठ मंदिर, मनाली
वसिष्ठ मंदिर, मनाली
ब्यास नदी पर पुल मनाली
दोपहर बाद ५.०० बजे हम मनाली पहोंच गए. पुराने शहरके सामने वाले किनारे पर बसे नये बसे शहरके बिचसे होकर हम नगर रोड से होकर शहरके आखरीके विस्तारमें ‘होटेल एपल क्रिसेंट, पर पहोंचे. होटेलमें हिमाचलके एप्पल ज्यूससे हमारा स्वागत कर हमे होटेलमें चेक इन करवाया. निर्माणाधीन होटेलके रूम आधुनिक रूप से सजे हुए है. अभी सीझन पूर्ण हो गया था इसलिए होटलमें हमारे अलावा और कोई पेसेंजर नही थे. खिड़कीसे बहार मनालीका द्रश्य मनमोहक लग रहा था. होटेल अपने नाम अनुशार सफरजन [एपल]के बगीचेमें बना हुआ है. चारो तरफ सफरजनके पेड़ लगे हुए थे. हालांकी अभी सीझन नही था छोटे छोटे हरे फल पेड़ पर दिखाई देरहे थे. अपने रुममें नहा धोकर फेश होकर चाय कोफ़ी पिया. यहाँसे दर्शनीय स्थल काफी दूर है. आज की शाम होटेलमें गुजारी. रात को होटेलमें भोजन कर टीवी देखकर विश्राम किया.
दिन २० वा दिनाक १५/७/२०१५ मनाली दर्शन:
सुबह तैयार होकर नास्ता कर निचे होटेलके एपल गार्डनका मजा लिया. मेनेजरके अनुशार निचे गिर फलका आनंद लिया. फोटोग्राफ लिए. यहभी हमारे लिए प्रथम अनुभव था. भगवद नाम स्मरण कर यहाँ सबसे पहले दर्शनीय स्थलमें हम वसिष्ठ मंदिर गये. यह मन्दिर रोहतांग पास रोडसे अलग पहाड़ी पर स्थित है. आजूबाजू रिहायसी मकान एवं बाजारके बिचसे रास्ता मंदिर तक जाता है. १ कीमि पहले गाड़ी निचे खड़ी करके उपर जाना पड़ता है. पुरातन कालीन वशिष्ठ मंदिर काष्ठ और काले पत्थरका बना है. यहाँ गर्म पानीका झरना बहता है. इतिहास अनुशार लक्ष्मणजीने तीर मारकर वशिष्ठ ऋषि के लिए गर्म पानी का झरना प्रकट किया था. आजभी यात्रालु पहले कुंडमें स्नान करके मंदिरमें दर्शन करते है. मंदिरके बाजुमें संत महात्मा धुनी जलाए बैठे है. हमने मंदिरमें दर्शन कर महात्माके दर्शन किये. बाजुमें रामजी और शिवजीके मंदिर है. एक समयमें हरी भरी पहाड़ी की हरियालीके बिच यह मंदिरका वातवरण शांत और पवित्र रहा होंगा. लेकिन वर्तमानमें चारो तरफ मकान और दुकान के कारण वह पवित्र पावन वातावरणका अहसास नही होता.
    
यहाँ थोड़े समय बैठ कर प्रसाद ग्रहण कर निचेकी और प्रस्थान किया. आजूबाजूकी दुकानोंसे हमारे साथिओंने खरीददारी की. हम दोनों को खरीददारीमें जयादा रूचि नही थी हम पैदल चलकर मनीषको बताकर निचे चलने लगे. इस तरह यहाँके प्रजा जीवनमें द्रष्टिपात हो सकता है. स्थानिक प्रजा सुंदर, गौरवर्णी और मजबूत शरीर वाली है. स्त्रियोंके गालोंकी गुलाबी उनकी सुंदरता बढाती है. यहाँ स्त्रियाँ पुरषोंके मुकाबले सभी क्षेत्रमें आगे दिखती है. कुल्लु मनाली सहित हिमाचल प्रदेशमें मुख्यतः हिन्दू प्रजा है. लाहुल स्पीती और किन्नरमें बौध धर्मी रहते है. यहाँकी एक विशेषता हैकी कितनेही मंदिर ऐसे है जहां हिन्दू और बौध दोनों धर्मावलम्बियों एक ही बुद्ध या देवी मंदिरमें एक साथ सोहाद्र्पूर्ण वातावरण में अपने अपने तोर तरीकेसे पूजा पाठ करते है. यह क्षेत्र मुस्लिमोके आक्रमणोंसे बचा हुआ है. इसलिए यहाँ मुस्लिम प्रजा नही के बराबर है.
हिडम्बा मंदिर मनाली
हिडम्बा मंदिर मनाली
यहाँसे चलकर ब्यास नदीका पुल पार कर पुराने शहरके मॉल रोडसे होकर हिडंबा मंदिर गए. पहाड़ीकी ऊंचाई पर स्थित इस मन्दिरके आजूबाजूका परिसर अत्यंत मनोहारी है. पहाड़ी रास्तेके दोनों तरफ अनेक आधुनिक छोटी बड़ी होटले बनी है. यहाँकी एक बात उलेखनीय है की वर्तमानके इस भौतिक प्रगतिमें भी यहाँ वृक्ष वनस्पति और हरियालीको बनाये रखा है. हिडंबा मंदिरके परिसरमें चिड और देवदारके ऊँचे ऊँचे भारी भरकम धने वृक्षोंकी घटाओ के बिच बगीचे बनाकर इस मंदिर परिसरको अत्यंत मनोहारी बनाया है. मैंने देखे पुरातन मंदिरोंके परिसरमें  से सबसे अच्छा नैसर्गिक परिसर लगा. यहाँसे हटनेका दिल नही करता. पत्थर और लकड़ीसे बने इस पुरातन मंदिरमें हिडंबा देवीकी धातुकी प्रतिमा है. हिडंबा कुल्लू क्षेत्रकी क्षेत्र पालिका है. विश्व प्रसिद्ध कुल्लूके दशहरा महोत्सवमें इस हिडंबा देवीके पधारनेके पश्चात ही महोत्सव शुरू होता है. बाजुमें भीम और हिडंबाके पुत्र घटोत्कचका मंदिर है. इन दोनों माँ बेटेका मंदिर अन्य कहीं नहीं है.
मनाली वनविहार
        क्लब हॉउस मनाली
यहाँसे दर्शन कर हम मनाली क्लब हाउसमें गये. मनालशु नाले के किनारे बने इस आधुनिक क्लबमें पर्यटकोंकी सुविधाओके साधन है. यहाँ रिवर राफ्टिंग, नदी पर जुला जुलाकर पानिमे कूदनेके खेल के अलावा, कपड़े, पुरातन चीज वस्तुकी दुकाने, खानपानके रेस्टारेंट आदि आधुनिक सुविधा केंद्र है. यहाँ घूम कर कुछ खरीदी करनेके बाद मुख्य बाजारमें स्थित मॉल रोड पर मनीष हमको छोड़कर गाड़ी की सर्विसिंग कराने गया. यहाँ हमे ३-४ घंटे का समय था. मॉल रोड पर एक गुजराती थाली का बोर्ड देखकर हम ऊपर गए परन्तु दरवाजा बंध था. लिखा हुआ था ११ जुलाई से रेस्टारेंट बंद है. पर्यटन का सीझन पूर्ण हो गया था इसका अहसास भीडभाड से भरे रहने वाले मॉल रोड के खालीपनसे समजमें आ रहा था. दोपहरका समय हो गयाथा यहाँके एक रेस्टारेंटमें हमने भोजन किया.
मॉल रोड मनाली
वनविहार, मनाली
वनविहार, मनाली
वनविहार, ब्यास नदी मनाली
वनविहार, ब्यास नदी मनाली
भोजन करनेके बाद मॉल रोडके सामने वनविहार नामक बगीचेमें गये. मनाली शहरके बिचमें ब्यास नदीके किनारे नामके अनुरूप यह बगीचा सचमुच का वन ही है. जयादा भीडभाड भी नहीं थी. यहाँ पहोंचकर मन प्रफुलित हो गया. थोड़ी देर आराम करनेके बाद हमारे साथी खरीदी करनेके लिए बाजारमें चले गये. मुझे तो इस निसर्ग का आनंद लेना था. व्यक्ति व्यक्ति निजानंद जुदा हो सकता है. हम दंपति वन के अंदर जाकर नदी किनारे एक पत्थर पर बैठ कर शांत वातावरणमें नदी का नाद सुनते बैठे रहे. अह्म्शुन्य निसर्गके सानिध्य की अनुभूति शब्दातीत और अवर्णनीय है जो अनुभवजन्य है. यहाँकी उर्जासे तरोताजा होकर मॉल रोडके जंक्सन पहोंचे. साथिओको मिलकर मनीष को बुलाकर वापस ५.३० बजे होटल पहोंचे. फ्रेश होकर दैनन्दिनी लिखना चालू किया दो तीन दिनोंसे लिखना नही हुआ था. अन्य साथी बाजु के रूम में बैठकर यात्रा के अनुभवो का आदानप्रदान कर रहे थे.
     
इतने में टीवी पर प्रधानमंत्री मोदीजी द्वरा ‘स्किल इण्डिया प्रोजेक्ट’को लोंच करने का जीवंत प्रसारण आ रहा था. उनके उद्बोधनमें भारतमें “मानवीय कोशल्यसे विकास”के प्रति आशवाद प्रबल हो रहा था. उनके शब्दों अनुशार “चीन पुरे विश्वका उत्पादन केंद्र बन सकता है तो भारत विश्व का सबसे युवा राष्ट्र है यहाँके मानवीय कोशल्यको बढाकर आने वाले समयमें भारत विश्वका ‘“स्किल हब”’ बन सकता है. उनके एक द्रष्टांत: पर्यटन केंदके युवाओको उस क्षेत्रके इतिहास भूगोलके बाबत सविस्तार शिक्षित कर, अन्य भाषाओं का शिक्षण देकर ‘दुभाषिया गाइड’ बनाकर बहुमूल्य विदेशी मुद्रा कमाई जा सकती है. और इससे पर्यटन उद्योग का अधिकसे अधिक विकास कर सकते है. यह तो केवल एक उद्योग की बात है. उनके वक्तव्यमें भारोभार आशावाद दिखाई देता था.
    
रातको होटलमें भोजन किया. स्थानिक स्टाफसे कुल्लू धर्मशालाके रास्ते पर पड़ने वाले अन्य तीर्थ क्षेत्र या पर्यटन स्थलोंकी जानकारी लेकर सुबह जल्दी निकलनेका आयोजन कर अपने अपने रूममें जाकर विश्राम किया.

दिन २१वा दिनाक १६/७/२०१५ मनाली - कुलु - मंडी – धर्मशाला:
सुबह समयपर तैयार होकर नास्ता चायपानी किया. होटेल से चेकआउट कर प्रभु स्मरण कर कुलुके रास्ते धर्मशालाके लिए प्रस्थान किया. व्यास नदीके पूर्व पश्चिम दोनों किनारेसे कुलुकी और जा सकते है. हम ब्यास नदी पार कर पश्चिम किनारे माल रोडके जंक्सनसे कुलु रोड पर आगे बढे. रास्तेमे एक गाँवमें फ्रूट की मंडीसे हिमाचलके ताजे फ्रूट खरीदकर आगे बड़े. यहाँ पर फ्रूटकी बहोत बड़ी मंडी है. हिमाचलप्रदेश सफरजनके लिए प्रसिद्ध है, इसके अलावा पिच, प्लुम, जरदालू, खुबानी, चेरी आदी कुलु मनाली विस्तारकी फल मंडीयोंसे पुरे देशमें फ्रूटकी सप्लाई होती है. यहाँसे आगे चन्द्र्खानी घाट पास कर आगे बड़े. रास्तेके दोनों किनारे ऊँचे ऊँचे पहाड़की गहरी खाईमें ब्यास नदी बहती है. रोड नदी के किनारे किनारे चलता है. नदी का पानी अत्यंत गतिसे बहता है. पत्थरसे टकरा कर नदीके पानी औस उडती हुई दिखाई देती है. पहाड़ो पर काले घने बादल छाए हुए है. पुर रास्ते फलके हरेभरे बगीचे और सीढ़ीनुमा खेतमें चावलकी फसल, चिड देवदारकी घटा छाये हरे भरे ऊँचे ऊँचे पहाडोका आह्लाद्क दृश्य आँखोंको ठंडक पहुंचा रहा था. सब मिलाकर वातावरण खुशनुमा था.
वैष्णोदेवी मंदिर मनाली कुल्लू मार्ग
वैष्णोदेवी मंदिर मनाली कुल्लू मार्ग
  वैष्णोदेवी मंदिर मनाली कुल्लू मार्ग
चंद्राखानी घाट पार करनेके बाद ब्यास नदीके किनारे एक ६ मंजिला ऊँचे वैष्णोदेवी मंदिरमें दर्शन करने गये. यहाँ पीछेके पहाड़की पाकृतिक एवं कृत्रिम गुफाओका समायोजन कर वैष्णोदेवी, महादेवजी, शनि देव आदि देवी देवताओके सुन्दर मंदिर बनाए है. यहाँ दर्शन प्रसाद लेकर आगे बढे. आगे कुल्लु शहर नदी के दोनों किनारे पहाड़ी ढलान पर बसा है.
ब्यास नदी
कुल्लू घटी में सिडिनुमा खेती
कुल्लू घाटी
कुलुघाटी: समग्र कुलु घाटी २००० से १२००० फुट ऊँची है. कहीं पर संकरी तो कहीं विशाल होकर फैली हुई है. कुलु घाटीके बिच मे से ब्यास नदी बहती है. ब्यासनदी में अनेक छोटी बड़ी नदियाँ आकर मिलती है. ब्यासके किनारे ऊँचे और सख्त पहाड़ोको काटकर पर्वतीय मार्ग तैयार किये है. एकाद जगह सुरंग खोद कर पहाड़ के अंदरसे मार्ग बनाया है. ब्यास नदीके फलद्रुप किनारे फलोके बगीचे, घेउं और चावल के सीढ़ीनुमा हरेभरे खेत, पहाड़ोकी ऊंचाईयों पर चिड देवदारके सघन वनराजी छाई हुई है. और इसके भी उपर क्षितिज पर हिमाच्छादित पर्वतमाला युगोंसे समाधिस्थ होकर शोभा बढाती है.
   
कुलु घाटीमें सुंदर आकृति वाले गौरवर्णी प्रजा है. यहाँके निवासी आनंदी स्वभावके, रसिक और मिलनसार है. यहाँ की प्रजा महेनतु है. इसलिए हिमालयकी अन्य प्रजाके प्रमाणमें समृद्ध है. हालांकी इनकी समृद्धिमें कुल्लु घाटीकी फलद्रुपता और हवामान कारणभूत है. यहाँ के लोग कुलुकी विशष्ट और प्रसिद्ध टोपी और खुल्ले वस्त्र पहनते है. स्त्रियाँ उन के वस्त्र और चाँदी के कलात्मक गहने पहनती है. यहाँ देवी देवताओके अनेक मंदिर है. यह देवोकी घाटी कहलाती है.

कुलु नगर: 
कुलु ४००० फुट की ऊंचाई पर ब्यास नदीके किनारे बसा सुंदर स्थल है. कुलू जिल्ला मुख्यालय है. यह ब्यास और शर्वरी नदीके संगम बसा है. नदी के पास रघुनाथजी का मंदिर है. यहाँ बिराजित रघुनाथजी की मूर्ति अयोध्यासे लाई गई है. कुलुके दक्षिण दिशामें ढालपुर नामक विशाल मैदान है.
रघुनाथ मंदिर कुल्लू
ब्यास और पार्वती नदीका संगम कुलू 
विश्वप्रसिद्ध कुलु दशेरा मेला: कुलु का विश्व प्रसिद्ध दशेरा का प्रख्यात मेला यहाँ भरता है. जानके आश्चर्य होंगा की यह देवों का मेला है. मानव मेले तो बहोत देखे सुने है. पर यह ती देवो का मेला ! देवोके साथ उनके भक्त तो आएंगे ही. इस मेले में २०० देवदेवियाँ पालखी में बैठकर पधारते है. इस मेले में कुलु, कांगड़ा, शिमला, चंबा, लाहुल, स्पिति, लद्दाख पांगी के लोग शामिल होते है. दर्शनार्थी तो देश विदेशसे आते है. कुलु विस्तारके देव-देविओ को भक्तजन सजाई हुई पालखीमें ढोल, शहनाई और अन्य वाद्यों की शुरावलीके साथ गाते बजाते यहाँ मेलेमें लाते है. ढालपुरके मैदानमें सबकी निश्चित जगह है. उन्हें वहाँ पधराया जाता है. कुलु के रघुनाथजी भी गातेबजाते मेले में पधारते है. रघुनाथजी कुलुके सर्वोच्च देव है. देवोके दरबार में वह अध्यक्ष स्थान लेते है. दशेरा का यह दरबार रघुनाथजीका दरबार माना जाता है. और अन्य देव उनके दरबारमें पधारते है. ऐसी भक्तोकी श्रधा है. सारे देवी-देवता आ जाने के बाद आखरी में मनालीसे हिडंबा आती है. हिडंबा कुलु क्षेत्रकी क्षेत्रपालिका है, जिस प्रकार बद्रीनाथ क्षेत्र में घंटाकर्ण क्षेत्रपाल देवता है. हिडंबाके न आने तक मेला प्रारंभ नही होता. एक अत्यंत गतिशील रथ में हिडंबा को लाई जाती है. हिडंबा सबसे आखरी में आती है और सबसे पहले वापस जाती है. ऐसी देवदरबार की परम्परा है. इस मेले में जमलू देव (जमदग्नि ऋषि ) भी पधारते है. परंतु वह देवोके दरबारमें हिस्सा नही लेते. वह दरबारकी समग्रविधि दरम्यान नदीके सामने वाले किनारे पर मात्र द्रष्टाके रूपमें बिराजते है.
कुल्लू दशहरा मेला उत्सव
कुल्लू दशहरा मेला उत्सव
कुलु का यह मेला १० दिनों तक चलता है. आखरी दिन की अगली रात देवों का दरबार भरता है. इस दरबारमें रघुनाथजी सब देवो के साथ लोककल्याण की चर्चा करते है, ऐसी भक्तजनों की मान्यता है. आखरी दिन रघुनाथजी को नदी किनारे ले जाते है. यहाँ घास जलाकर रावण दहन किया जाता है. बादमे सारे देवता अपने अपने मंदिर वापस जाते है. और मेले का विसर्जन होता है.
    
इस मेलेमे नृत्य गीतोंकी महेफिले भरती है. कुलुवाशी इन दिनोमे सुंदर पारंपरिक वस्त्र, विशेष कर टोपी परिधान कर मौज लेते है. कुलु की प्रजा मूलतः रसिक और उत्सव प्रिय है. और इसमें भी यह तो देवो का दरबार ! इस मेले में चीज वस्तुओ की खरीदी-बिक्री भारी मात्रामें होती है. पश्मीना शाल, कंबल, घोड़े, खच्चर, शिलाजीत, कस्तूरी, बर्तन, हथियार वगेरे अनेक वस्तुओका व्यपार होता है.भारत भर के व्यापारियो अपना माल लेकर व्यापार करने आते है.
ब्यास-पार्वती नदी संगम भुंटर कुल्लू
ब्यास-पार्वती नदी संगम भुंटर कुल्लू
भुंटर: कुलु से लगकर भुंटर गाँव आता है. यहाँ हवाईअड्डा है. यहाँ बियास और पार्वती नदी का संगम है. ब्यास कुलु-मनालीसे आती है. और पार्वती मानिकरणसे आती है. मानिकरण विस्तार को पार्वती वेली कहते है. इन दोनों नदियो के संगम पर एक मंदिर है.
    
कुलु शहर हमने गाड़ी में बैठे बैठे पास किया उस समय यहाँ बारिश गिर रही थी. और हमें शाम तक धर्मशाला पहोंच जाना था. कुलु और भुंटरमें नदियोंके संगमका द्रश्य मनोहारी है. नदीके पानी पर औस का दृश्य अद्भुत लग रहा था. आगे एक जगह पहाडीयोंके बिच ब्यास नदी के किनारे एक देवी का सुंदर संगेमरमरका मंदिर है. 
हनोगी माता मंदिर, कुल्लू- मंडी हाइवे
यहाँ मंदिरमें देवीके दर्शन कर आगे बढ़े. कुलुके आगे पंडोह में ब्यास नदी पर डेम बांधकर ब्यास का पानी सतलुजमें डाला गया है. ब्यास – सतलुज की लिंक जोड़ी गई है. यही सतलुज पर आगे विश्व प्रसिद्ध भाखरा – नांगल डेम बनाया गया है. 
पंडोह डेम, ब्यास नदी
यह पंडोह डेम के आसपासका क्षेत्र दर्शनीय है. संपूर्ण हिमालय दर्शनीय है. बारम्बार इसका वर्णन एकही शब्द में अशक्य है. एक जगह ऊँचे पहाड़ के बिच से सुरंग बनाकर रास्ता निकाला गया है. रास्तेपर एक जगह चालू बरसातमें गर्मागर्म चाय पीकर आगे बड़े. आगे मंडी जिला है.
ब्यासनदी मंडी शहर 
ब्यासनदी मंडी शहर 

मंडी शहर: मंडी जिले का मुख्यालय है. यह हिमाचल के कई रास्ते का जंक्सन है. इसलिए यहाँ वाहन व्यवार अधिक मात्रामें रहता है. यहाँ पुराने समयसे चीज वस्तुओं की मंडी लगती थी आजभी यह हिमाचलका मुख्य बाजार केंद्र है. यहाँ पुरातन शैलीके मंदिरोंके अवशेष दिखाई देते है. जो इस प्रदेश की भव्य पुरातन संस्कृति का बयान करती है.
मंडी शहर ब्यास नदी पर कोहरा
यह विस्तार आर्थिक द्रष्टिसे संपन्न दिखाई पड़ता है. मनालीसे धर्मशाला तक का पूरा मार्ग कम अधिक ऊंचा निचा पहाड़ी रास्ता है. लद्दाख छोड़ कर अन्य हिमालय पहाड़ी रास्तेमें एक साम्यता दिखाई पड़ती है. यहाँ पहाड़ पर लगातार बस्तियां एक दुसरे से जुड्डी हुई है. सीढ़ीनुमा खेत, बाग बगीचेसे एक दुसरे गाँव आपस में जुड़े हुए है. भोगोलिक परिवर्तनसे वृक्ष वनस्पति के आकरप्रकार बदल जाता है. गाँव में पत्थरके कवेलूसे बने मकान यहाँ की विशेषता है. ब्यास नदी मंडी तक साथ चलकर आगे रास्तेसे बिछड़ जाती है. आज दिन भर हम काले घने बादलो और कोहरेसे घिरे रास्तेके बिचसे यात्राकी है. रास्तेमें कहीं कहीं २०-२५ फुट आगेका भी दिखाई नहीं देता इतना घना कोहरा छाया था. यह भी आजका अनोखा आनंद था. इसके पहले भी कोहरा और धने बादलो के बिच कई बार यात्रा की है. लेकिन आज सुबहसे ही यह शिलशिला चालू हुआ था जो आखरी शाम मेकलिओडगंज तक दिन भर अविरत चलते रहा.


जोगिंदर नगर के पास ढाबा
  जोगिंदर नगर
रास्ते में जोगिन्द्र नगरके पहले ऊँची पहाड़ीपर बने एक ढाबेमें दोपहर २.०० बजे भोजन किया. यहाँ होटेलमें भी कोहरा जमा हुआ था. खाना खाकर जोगिन्द्र नगर शहर पास किया. जोगिन्द्र नगर जिला मुख्यालय है. जोगिन्द्र नगर नेरोगेज रेलवे लाइन से पठानकोट तक जुड़ा हुआ है. पहाड़ी विस्तारमें बायपास बनाना शक्य नही होता इसलिए यहाँ के गाँव, शहर की तंग पतली सडकसे मुख्य मार्ग गुजरता है. जो शहर वाशी और वाहन चालक के लिए कष्टदायक है. आगे बैजनाथधाम आता है.

बैजनाथधाम: द्वादश ज्योतिर्लिंग में से बैधनाथ धामके नामसे तीन ज्योतिर्लिंग माने जाते है. जिसमे का एक यहाँ हिमाचल का बैजनाथधाम माना जाता है. दूसरा बिहार झारखंड में देवधरमें बैधनाथधाम माना जाता है. और तीसरा ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्रमें परली बैधनाथ माना जाता है. यहाँ इसे मुख्य ज्योतिर्लिंग मान कर पूजा जाता है. मंदिर पुरातन कालीन पत्थरका बना है. मंदिरके सामने नंदी की खड़ी मुद्रा वाली पूर्ण रूप की प्रतिमा है. यहाँ मान्यता है की दर्शनार्थी अपनी मनोकामना नंदी के कानमें कहे तो भगवान उसे पूर्ण करते है.


बैजनाथ धाम हिमाचलप्रदेश
बैजनाथ धाम हिमाचलप्रदेश
बैजनाथ धाम हिमाचलप्रदेश
बैजनाथ धाम हिमाचलप्रदेश

बैजनाथधाम हिमाचल प्रदेश
यहाँ मंदिरसे दूर गाड़ी खड़ी कर हम दर्शन करने गये. यहाँ पुरातन कालीन मंदिर परिसरको बगीचे में फुल झाड़ और लोंन से सजाकर मनोहारी बनाया गया है. यहाँ यात्रिओकी भीड़ नहीं थी आरामसे ज्योतिर्लिंगके दर्शन हुए. थोड़े समय यहाँ बैठकर विदेशी पर्यटकोके साथ फोटोग्राफी की. आगे आने वाले श्रावण मासकी तैयारियां में मंदिरके बहार परिसरमें मंडप डालनेका कार्य चालू था. यहाँ से आगे रास्तेमें चामुंडा देवीका मंदिर आता है.
चामुंडादेवी: बैधनाथसे धर्मशालाके रास्ते पर चामुंडा देवीका मंदिर आता है. यहाँ रास्तेके समान्तर बहती नदीके बिचमें मंदिर है. यह चामुंडा देवीका बहोत महत्व है. नदी के पट में और किनारे पर विशाल शिला है. इनके बिचसे बहने वाली पहाड़ी नदी यहाँ प्रचंड गति से बहती है. यहाँ शिला पर बैठकर स्नान करके यात्रालू मंदिरमें दर्शन करते है.

चामुंडा देवी हिमाचल प्रदेश
हम चामुंडा देवी पहोंचे तब बारिश अत्यंत तेज हो गई थी थोड़ी देर बरसात बंध होनेकी राह देखि पर रुकने के लक्षण दिखाई नही देते थे. हमने गाड़ी में बैठे बैठे मनोमन देवी का नाम स्मरण कर आगे बड गये. रास्ते में कांगड़ा घाटी का दर्शन होता है. यहाँ वातावरण की अनुकूलता के कारण चायके बगीचे लगे है. रास्तेके दोनों किनारे चाय बागान का दृश्य नयनरम्य है. छोटे बड़े गाँव शहर को पार कर धर्मशाला पहोंचे. यहाँ से १० कीमि पहले ‘योल’ नामक सेना की बड़ी छावनी आती है.
    
धर्मशाला शहर पहाड़ी पर बसा है. इसलिए रास्ते उचे निचे और घुमावदार है. मुख्य बाजारसे मेकलिओडगंज का रास्ता जाता है. धर्मशाला से १५०० फुट ऊँचे मेकलिओडगंज के लिए शहरसे ही चढाई शरू हो जाती है. १० कीमि का यह रास्ता दर्शनीय है. इस रास्ते पर अनजान ड्रायवर के लिए गाड़ी चलाना चुनोतीपूर्ण है. मनीष यहाँका जानकर है इसलिए हमारे लिए यह राहत की बात है. रास्ते पर घना कोहरा और हलकी बारिश चालू थी. मेकलिओडगंज में सेंकडो होटेल पहाड़ी की ऊँची नीची ढलान पर बनी हुई है. ६-७ मंजली रंगबिरंगे होटेल दूर से तास के पत्तो से बनी खिलोने जैसी लगती है. मनीष यहाँ पहले बहोत बार आ चूका है. सबसे ऊपर आखरी छोर भागसूनाग के पास हमारी होटल आनंद पेलेस पहोंचे. यहाँ चारो तरफ होटल ही होटल है.
  
  आनंद पेलेश होटेल मेक्लियोड गंज
होटेल का लोकेसन देखकर दिल खुश हो गया. होटेल में चेक इन करके हमें ४ रुमो में ठहराया गया. रूम की खिड़की से दूर पहाड़ो के पीछे धौलाधार पर्वतमालाके हिमाच्छादित शिखर दिखाई दे रहे थे. अभी शामके ६.०० बज रहेथे. यहाँ वातावरण ठंडा था. ठंडी हवा भी चल रही थी. अपने रूम में फ्रेश होकर ठंड में गर्म चाय कीचुस्की लेते खिड़की से बहार निसर्ग का आनंद ले ते बैठे रहे. होटल के रूम्स हमारे पैकेज के अनुरूप नही थे. पर यहाँ का लोकेसन और वातावरण देखकर कोई शिकायत नहीं रही. आखीर हमें आये है यहाँ का सौन्दर्य पान करने. अब बहार हलकी बूंदाबांदी होने लगी दिन भर कोहर और काले घने बादलो के बिच सफ़र की थी यहाँ भी वही वातावरण मिला था. यह आजका विशेष अनुभव रहा. रात ९.०० बजे होटेल रेस्टारेंटमें भोजन किया. रातको टीवी देखकर आज का यात्रा वृतांत डायरीमें नोट कर रात्री विश्राम किया. रात भर बारिस चालू थी.

धर्मशाला कांगड़ा वेली
दिन २२ वा १७/७/१५ धर्मशाला कांगड़ा घाटी:
सुबह समयपर तैयार होकर होटेलसे नास्ता करके निचे आये, मनीष तैयार हो रहा था. तब तक हम बाजु में स्थित भागसूनाग मंदिर गए. यहाँ शिवजी का मंदिर है. मंदिरके बाजूमे झरना बहकर सामने एक कुंड में गिरता है. यहाँ श्रद्धालु स्नान करके मंदिरमें दर्शन करते है. इस कुंड और झरनेके पीछे दंतकथा जुडी है. जो वहाँ पर आलेखित है. इसके अनुशार राजस्थानमें एक बार भारी अकाल पड़ा वहाँकी असुर प्रजा बिना पानी त्राहिमाम पुकारने लगी. यह देखकर प्रजापालक असुरराज भागसू जलकी खोजमें इस प्रदेशमें आया. धौलाधार पर्वतमालाके ऊपर अनेक सरोवर आजभी विद्यमान है. उनमेसे एक ‘नागदल’का पानी अपनी मायावी शक्तिसे कमंडलमें भरकर जा रहा था. वहाँ की नाग जातीने सरोवर ख़ाली देख मायावी भागसूका पीछा कर यहाँ युद्ध कर भागसू को पराजित कर दिया. इस चक्करमें कमंडलसे पानी घिर पड़ा जो आजभी झरनेके रूपमें बहकर कुंडमें घिर रहा है. हमने कुंडके पानीमें हाथ पैर मुह धोकर मंदिरमें दर्शन किये. प्रसाद लेकर यहाँ पर फोटोग्राफी कर होटेल वापस लौटे. आज सुबहसे दिनभर बादलो से ढका हुआ नम वातावरण था.
    
अंग्रेज अधिकारी रोबर्ट मेकलिओडके नामसे अपर धर्मशालाका नामकरण मेकलिओडगंज किया गया है. आजादी के पहले यहाँ अंग्रेज प्रजा की वसाहत थी. आज भी यहाँ चर्च एवं क्रिश्चन कब्रिस्तान है.
    
गाड़ीमें बैठकर निचे चोकमें आये यहाँ मनीषने हमें उतारकर दलाईलामा कोलोनीका रास्ता बताकर गाड़ी पार्किंगमें लगा दी. हम १ कीमि पैदल चलकर एक सुंदर पहाड़ी पर बनी दलाईलामा कोलोनी पर पहोंचे. यहाँ एक भव्य और विशाल मंदिर बना है. भगवान बुद्धकी सुंदर मूर्ति है. शांत और प्रेरक वातावरण है. मंदिरकी दोनों दिशाओंसे हरेभरे पहाड़ यहाँ से द्रष्टिगोचर होते है.भगवान बुद्ध की मूर्तिके सामने सेकड़ो लामा यहाँ ध्यान जप में लींन होकर ‘ॐ मणी पद्म हु ह्री’ का मन्त्र जाप करते दिखे. यहाँ पर्यटक बेरोकटोक मंदिर के अंदर भगवान बुद्ध की मूर्ति के सामने जाकर छुकर दर्शन पूजन करते है. लामा अपने ध्यान जाप में लींन रहते है. यहाँ हमने फोटोग्राफी की. बाजूमे हजारो दीपक प्रगटाए हुए थे.
      
तिबेट पर चीनके लश्करी आक्रमणके बाद दलाईलामा अपने साथ और अन्य लामाओ तथा तिबेटीयन प्रजाको लेकर भारतमें आकर हजारोकी संख्यामें बसे है. भारत सरकारने उन्हें आश्रय देकर दलाईलामाकी कोलोनीके लिए यहाँ जगहका आवंटन किया है. यहाँ कोलोनीमें तिबेटीयन शिक्षण शाला, बौध धर्म की शिक्षण व्यवस्था, तिबेटीयन चिकत्सा पध्दति की हॉस्पिटल, ग्रंथालय, निराश्रित सरकार का सचिवालय, शिक्षण विभाग, विदेशविभाग, रोजगार विभाग वगेरे कार्यालय एवं उनके सबंधित प्रधान है. यह कोलोनी तिबेट की राजधानी ल्हासा के नाम पर उसके सांस्कृतिक धरोहर कर रुपमे ‘लिटल ल्हासा’ के नाम से भी प्रख्यात है. 
दलाई लामा, बौद्ध मठ, मिनी ल्हासा, मेक्लियोडगंज
दलाई लामा, बौद्ध मठ, मिनी ल्हासा, मेक्लियोडगंज
दलाई लामा, बौद्ध मठ, मिनी ल्हासा, मेक्लियोडगंज
दलाई लामा, बौद्ध मठ, मिनी ल्हासा, मेक्लियोडगंज
मेकलिओडगंज भागसूनाग महादेव
यहाँ से दर्शन कर हम यहाँ के कार्यालय में जाकर वर्तमान दलाईलामासे रूबरू मुलाकात करने की इच्छा जाहिर की. हमेंबताया गया की आपको कुछ समय इंतजार करना पड़ेंगा तब वह मिल सकते है. हम तीन साथी वहाँ हाजर थे बाकि के साथी कोलोनी के बहार निकल चुके थे. वैसे भी आज यहाँ से हम कांगड़ा म्यूजियम देखकर कांगड़ा नगर जाना था. मैंने शाम को अकेले यहाँ आने का मन बनाकर हमारे साथिओं के साथ चल पड़े.
   
कांगड़ा संग्रालय, धर्मशाला
पार्किंग में जाकर गाड़ीमें बैठकर हम कांगड़ा म्यूजियम गए एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित कांगड़ा म्यूजियममें कांगड़ा घाटी की सभ्यता की अनमोल धरोहरको सम्हाले रखा है. कांगड़ा शैली की चित्रकला आज भी प्रख्यात है. यहाँ देवी देवता तथा राजघरानेके अलग अलग चित्रकारों द्वरा चित्रित चित्रोंकी प्रदर्शनी लगी है. कांगड़ा शैलीके हाथीदांत और धातुके आभूषणों संग्रहालयमें प्रदर्शित किये गए है. अन्य विभागमें पुन:निर्माणके कारण बंध रखा गया था. संग्रहालय देख कर हम कांगड़ा शहरकी और चले. सर्वप्रथम कांगड़ामें नगरकोटका पुरातन किल्ला देखने गये.         

कांगड़ाघाटी: धौलाधार पर्वतमाला की गोद में बसी कांगड़ाघाटीको देवोकी घाटी या देवभूमि माना जाता है. कांगड़ाघाटी पर प्रकृति देवीका वरद हस्त है. सर्वत्र हरियाली, छोटे छोटे सुंदर मकान, हरेभरे खेत, खेत के बिच से पसार होने वाली पगडंडी, सर्वत्र खिले हुए फुल, हरेभरे चाय बागान, हस्ते खेलते झरने, छोटे छोटे सुंदर गाँव, देवी देवताओके मंदिर, गौरवर्ण आकर्षक स्त्रीपुरुष, दूर से दिखाई देने वाले धौलाधारके हिमाच्छादित शिखरों – यहाँ सर्वत्र भगवानने सौदर्य बरसाया है. इसलिए तो कांगड़ा और कुलघाटीको देवभूमि का गौरवपूर्ण नाम मिला है.

धर्मशाला: धर्मशाला नगर कांगड़ाका जिल्ला मुख्यालय है. धर्मशालाके एक तरफ धौलाधार पर्वतमालाके हिमाच्छादित शिखर है. और दूसरी तरफ नयनरम्य कांगड़ाघाटी है. धर्मशाला जुदा जुदा पहाड़ो पर बसा है. इसलिए यहाँ के अलग अलग विभाग है. मुख्य विभाग दो है. धर्मशाला और अपर धर्मशाला (मेकलिओडगंज) धर्मशाला ४५०० फुट की ऊंचाई पर स्थित है. जबकि अपर धर्मशाला (मेकलिओडगंज) ६००० फुट की ऊंचाई पर बसा है. हमारी होटल मेकलिओडगंज में है. धर्मशाला में सरकारी ऑफिस, बस स्टेशन, मुख्य बाजार और रिहायसी विस्तार है. यहाँ भारत का सबसे ऊँचा अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैदान भी है.

भारत का सबसे ऊँचा क्रिकेट मैदान धर्मशाला

मक्लिओड गंज, ऊपर धर्मशाला
मक्लिओड गंज, ऊपर धर्मशाला
मक्लिओड गंज, ऊपर धर्मशाला
भागसूनाग मेकलिओडगंज अपर धर्मशाला

मेकलिओडगंज अपर धर्मशाला

अपर धर्मशाला (मेकलिओडगंज): धर्मशाला के ऊपर बसा यह उपनगर ६००० फुट की ऊंचाई पर है. धर्मशालासे उपर जानेके लिए चिड, देवदारके घने पहाड़ी जंगलमें पहाड़ीको काटकर घुमावदार रास्ते बनाए है. यहाँ सेनाकी छावनी, भागसुनाग, दाल सरोवर, दलाईलामाकी कोलोनी पर्वतारोहण संस्था वगेरे है. यात्रियोंको यहाँ रहना अनुकूल है. क्यूंकि दर्शनीय स्थान विशेषत: यहीं है. और आजूबाजूके पर्वतोके दर्शनीय स्थानों पर जाने के लिए यहींसे पगडंडी है.  

कांगड़ा: कांगड़ा शहर पठानकोटसे ९० कीमि और धर्मशाला से १७ कीमि दूर है. यह बाणगंगा नदी के किनारे बसा है. एक समय में कांगड़ा जिला मुख्यालय और समृद्ध नगर था. कांगड़ाघाटीके भव्य और समृद्ध मंदिरों अनेक बार विदेशी आक्रमणकारी के शिकार बने है.


वज्रेश्वरी देवी (कांगड़ा देवी) कांगड़ा
वज्रेश्वरी देवी (कांगड़ा देवी) कांगड़ा

वज्रेश्वरी देवी (कांगड़ा देवी) कांगड़ा


वज्रेश्वरी देवी: कांगड़ा शहर और आजूबाजू में बहोतसे मंदिर है. पर मुख्य मंदिर वज्रेश्वरी देवी का है. मंदिर शहरके मध्यमे भव्य और सुंदर है. देवीकी मूर्ति नहीं है पर पिंडी आकरकी ‘पीठ’ है. यही वज्रेश्वरी देवीका  श्रीविग्रह है. यह ५१ शक्ति पीठो मेंसे एक पीठ मानी जाती है. इस मंदिरके सुवर्ण चांदी और रत्नोंसे भरपूर खजानोंको महमद गझनी, फिरोझशाह तघलख, और तैमूरलंग जैसे जनूनी लुटारोने यहाँ अनेक बार लुटा है. १९०५ के भयंकर भूकंप से खंडित हुआ यह मंदिर १९२० में जीर्णोद्धार होकर वापस खड़ा हुआ है. यह मंदिर कई बार लुटा, टुटा और फिरसे बनकर खड़ा हुआ है. मंदिर का दैवत और समृधि आज भी बनी हुई है.

नगरकोट किल्ला: कांगड़ासे थोड़ी दुरी पर यह नगरकोटका प्राचीन किल्ला है. यह किल्ला कांगड़ा राज्यकी राजधानी थी. आज भी कांगड़ा देवीको नगरकोटकी देवी कहते है. किल्ले पर एक प्राचीन मंदिर है. १९०५ में आये भयंकर भूकंप ने इसे खंडहर में परिवर्तित कर दिया है.
नगरकोट किल्ला, कांगड़ा
नगरकोट किल्ला, कांगड़ा
भारतीय पुरातत्व विभाग द्वरा संरक्षित और संचालित नगरकोटका किल्ला एक पहाड़ी पर बना हुआ है. इ.स. १९०५ में कांगड़ाघाटीमें आये भयंकर भूकंपके कारण यह किल्लेका कुछ हिस्सा ढह गया था. जिसका पुन:निर्माण हाल के वर्षो में पुरातत्व विभागने किया है. किल्ला परिसर को फुल झाड़ और लोंन से सजाया गया है. किल्ले पर एक पुरातन मंदिर है. यहाँ दर्शन करके थोड़े समय यहाँ बैठ कर फोटोग्राफी की. यहाँ से कांगड़ाघाटी का हराभरा मनोहारी द्रश्य देखकर दिल खुश हो गया. किल्लेके निचे एक पुरातन जैन मंदिर है. प्राप्त जानकारी अनुशार यह हिमाचल का एकमात्र श्वेताम्बर जैन मंदिर है. यहाँ की धर्मशालामें सुचना देने पर रहने और भोजन की व्यवस्था हो सकती है.

वज्रेश्वरी देवी (कांगड़ा देवी) कांगड़ा
यहाँ से हम कांगड़ा शहरमें देवी वज्रेश्वरी (कांगड़ा देवी)के दर्शन हेतु शहरके मध्यमें गये. गाड़ीसे उतरकर मुख्य बाजारसे होते हुए मंदिर के लिए रास्ता जाता है. एक समय पहाड़ी पर रहा मंदिर, वर्तमानमें रास्तेके दोनों तरफ दर्शनार्थी पर आधारित दुकानोंके कारण शहरके मध्य में हो गया है. चारो तरफ दुकाने और पीछे रिहायसी मकान बन गये है. हमारे चरणदास को जोड़ाघर में विश्राम कराके हम पैदल मंदिर में गए. मंदिर का भव्य द्वार मंदिरकी भव्यता की प्रतीति कराता है. दर्शनार्थीकी लंबी कतारे मंदिरके दोनों तरफसे लगी हुई थी. हम कतारमें खड़े हो गए. आधे घंटे बाद हमें देवीके दर्शन हुए. यहाँ पिंडी के रुपमे वज्रेश्वरी देविकी पूजा होती है. मंदिरके द्वार के सामने पञ्च धातुके पूर्ण रूप की ५ शेरो की सुंदर प्रतिमा है. मंदिरके चारो तरफ अन्य देवी देवताओं के मंदिर, हवनकुंड और कार्यालय है. मंदिर परिसर काफी बड़ा है. यहाँ कुछ समय बैठकर वापस लौटे. वापसी में हमारे चरणदास को फिर से सेवा में लगाकर गाड़ी में बैठकर वापस धर्मशाला लौटे. 

  मेकलिओडगंज दोपहर २.३० बजे घना कोहरा

धर्मशालाके रास्ते मेकलिओडगंज जाते समय बिच रास्ते ढाबेमें दोपहर २.३० बजे भोजन किया. यहाँ पर कल जैसे घने कोहरेसे पूरा पहाड़ ढका हुआ था. शाल भर अधिकतर समय यहाँ कोहरा छाया रहता है. हमारे लिए यह अनोखा अनुभव था. वापस होटल आकर विश्राम किया.
         
दोपहर ५.०० बजे चाय पीकर तैयार हो गये, व्यक्तिगत मुजे दलाईलामा से मिलने की बहोत इच्छा थी, लेकिन बहार बारिश चालू थी. यहाँ के दर्शनीय स्थलोंमें दाललेक एवं वोटरफोल बाकि थे लेकिन यह पैदल चलकर जाने वाले स्थल है. हमारे साथी अब मन से थक गये थे. बस अब आज होटेलमें आराम करना था. कल हमारी यात्राका आखरी दिन था. कल सुबह यहाँ से निकल कर शाम ७.०० बजे लुधियाणासे ट्रेन पकड़ कर नागपुर जाना था. हम दंपति न्यू दिल्ही हमारी बिटियांके यहाँ रुककर २० जुलाई को नागपुर जाने वाले थे. यात्रा दरम्यान हमे टीवी के माध्यमसे उत्तर भारतमें चार धाम एवं अमरनाथ यात्रामें बादल फटने की दुर्घटना और अत्यधिक बारिशके कारण यात्रिओको कष्ट पड़नेके समाचार मिल रहे थे. लेकिन हम पर भगवद कृपा ही थी की हमें कहीं कोई प्रकारका कष्ट या हेरानगति नहीं हुई. हमारे परिजन हमसे संपर्क कर हमारी कुशलताके समाचार लेकर आश्वस्त हो रहे थे.
    
इस यात्रा दरम्यान हमें पग पग पर भगवद स्पर्श की प्रत्यक्ष अनुभूति मिली है. हमारी वापसी रेलवे यात्रा बाबत इन्क्वायरी करने पर जानकारी मिली की महीने भर पहले मध्य रेलवे के इटारशी स्टेशन पर स्वयंचालित प्रणाली में लगी आग से अस्तव्यस्त हुई यातायात व्यवस्था अभी तक सुचारू नहीं हुई थी. लेकिन यहाँ पर भी भगवद कृपा देखो, अगले और पिछले दिन रद्द हुई छतीसगढ़ एक्सप्रेस १८ जुलाई को यथावत जा रहीथी जिसमे हमारी टिकट आरक्षित थी. ठीक इसी तरह १९ और २१ जुलाई को रद्द हुई तमिलनाडु एक्सप्रेस २० जुलाई को को यथावत जा रहीथी जिसमे हम दोनों की नागपुर के लिए टिकट आरक्षित थी.
    
आजकी रात हमारी इस यात्रा की होटेल की आखरी रात थी. कल सुबह जलदी तैयार होकर निकलना था. रास्ते में ज्वालाजी और चिंतपुर्णि  देवीके दर्शन करना बाकि था. यह दोनों तीर्थक्षेत्र लुधियाणाके रास्ते पर आते है. लेकिन हाथ में समय रहना चाहिए इसलिए जलदी निकलने का आयोंजन किया था. सुबह का नास्ता हमें होटेलसे पेकिंग कर मिलने वाला था. रात को भोजन कर कल की तैयारी कर रात्रि विश्राम किया.

दिन २३ वा दिनाक १८/७/२०१५ धर्मशाला से लुधियाणा न्यू दिल्ही:
आज यात्रा का अंतिम दिन था. सुबह ५.३० बजे तैयार होकर होटेलसे चेक आउट कर गाड़ीमें सामान जमाकर भगवान नाम स्मरण कर लुधियाणा के लिए निकल पड़े. अरुणोदय हो चूका था अभी मेकलिओडगंज धर्मशाला निंद्रा देवीकी गोद से अंगड़ाई ले रहा था. हिमालय क्षेत्रमे सूर्योदय जल्दी होता है. और सूर्यास्त देर से होता है. यहाँ भगवान सूर्यनारायण कर्मयोगी की भूमिका में अधिक समय तक अपनी उपस्थिति दर्शाते है. हम कांगड़ाके रास्ते आगे बढ़ रहे थे. चलते चलते होटेल से मिला पैकेज नास्ता कर रास्तेके ढाबे पर चाय पिया. कांगड़ासे आगे बढ़ने पर सामनेसे वापस आरही गाड़ी वालोने आगे एक ट्रक पुलिया पर खराब होने के कारण रास्ता बंध होने की जानकारी दी. उनमेसे एक स्थानीय गाड़ी थी, और ड्रायवरको इस विस्तार के वैकल्पिक रास्ते की जानकारी भी थी. हम उसका अनुसरण कर पीछे चलने लगे. गाँवके अंदरूनी रास्ते से चलकर २५km अतिरिक्त चक्कर काट कर हम मुख्य रास्ते पर पहुंचे. यहाँ आगे ज्वालामुखी पहोंचे.

ज्वालामुखी: कांगड़ासे ३० कीमि दूर ज्वालामुखी है. नयनरम्य ब्यासवेलीमें यह पहाड़ पर बसा सुन्दर तीर्थक्षेत्र है. प्रसिद्ध कालीपहाड़के पीछे यह तीर्थक्षेत्र है. ५१ शक्तिपीठो में एक पीठ है. देवीके शरीर पर विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र लगा तब देवी की जीभ यहाँ गिरी थी. ऐसी पौराणिक कथा है. ज्वालामुखी हिमाचलका प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र है. मंदिरमें पाकृतिक रूपसे सदा प्रज्वलीत रहने वाली सात ज्वाला है. यह ज्वालाही देवी का श्रीविग्रह है. और इस रूप के ही पूजा दर्शन होते है. मंदिरके पीछे गोरख डिब्बी नामक स्थान है. यहाँ नाथ संप्रदायके साधू रहते है. गोरख मंदिरके पास एक गुफामें कुवा है, जहाँ जाने का रास्ता तंग और विकट है. यहाँ थोड़ी थोड़ी देरके बाद ज्योतिके दर्शन होते है. मंदिरका सुवर्ण मंडित शिखर महाराजा रणजीतसिह द्वारा बनाया गया है. मोगल बादशाह अकबरने यहाँ सुवर्ण छत्र चढाया है ऐसा उल्लेख आज भी यहाँ है. मंदिरके पीछे हराभरा पहाड़ है. ऊपर अनेक मंदिर और आश्रम है. पहाड़ पर एक रामजी मंदिर है. यहाँ रामानंदी साधू निवास करते है. भारतभर से यहाँ यात्री दर्शनार्थ आते है.


ज्वालादेवी
ज्वालादेवी, कांगड़ा
ज्वालादेवी, कांगड़ा

ज्वालादेवी, कांगड़ा
ज्वालामुखी मंदिर के ऊंचाई वाले रास्ते के दोनों तरफ प्रसाद और अन्य चीज वस्तु की दुकाने लगी है. रोड पर टिन शेड है. यहाँ दुकानोंके कारण चढाई दिखाई नहीं देती परंतु. पैरो और सांसो को इस ऊंचाईका अनुभव जरुर हो जाता है. मंदिरके मुख्य सीढियां और परिसरमें संगेमरमर लगा है. आज शनिवारके कारण यहाँ दर्शनार्थीकी भारी भीड़ थी. पाइपकी रेलिंग लगाकर कतारको नियंत्रित किया जाता है. पंजाब प्रदेश यहाँ से नजदीक है इसलिए यहाँ शिख समुदायके दर्शनार्थी की संख्या प्रमाण में अधिक दिख रही थी. कतारमें आधे घंटे खड़े रहनेके बाद मंदिरमें ज्वालाजीके दर्शन हुए. मुख्य मंदिरमें एक गढ़ेमें पत्थरकी शिला से ज्वालाजी प्रज्वलित होकर प्रगट हो रही थी. यही ज्वालाजीका श्रीविग्रह है. और इसका दर्शन पुजन हो रहा था. भीड़ जरुर थी लेकिन दर्शन आराम से हो रहे थे. यहाँ पर कुछ समय आराम से बैठकर वापस निचे आकर गाड़ी में बैठकर आगे प्रस्थान किया. रास्ते में पंजाब राज्य की सीमा में बसा हिमाचल मुख्य तीर्थक्षेत्र चिंतपुर्णी है.

चिंतपुर्णी: चित में जिसका चिंतन किया जाय ऐसी इच्छा को पूर्ण करने वाली यह देवी है. ऐसी भक्तोकी श्रधा है.इसलिए यह देवीको चिंतपुर्णी कहते है. पर्वतकी चोटी पर यह देवी मंदिर है. गाड़ी उपर तक जाती है. आखिर १६० पगथी चढना पड़ता है. यहाँ दर्शनार्थियों की भारी भीड़ रहती है. मंदिरमें कोई मूर्ति नहीं है. पिंडी आकर की स्थापना है. यही देवी का श्रीविग्रह है. और इसके ही दर्शन पूजन होते है. यह स्थान पंजाब के होशियारपुर जिल्ले में स्थित है.
चिंतपूर्णी देवी, ऊना, हिमाचल प्रदेश
चिंतपुर्णी मुख्य रास्ते से अंदर की तरफ है. मनीषने बताया की आज शनिवार है इसलिए दर्शनार्थियों की भारी भीड़ रहेंगी. और यह मंदिर ऊंचाई पर स्थित है. यहाँ अन्य देवी मंदिरसे अधिक सीढ़ीयाँ चढना पड़ेंगा. कुछ हमारे मनकी थकान और कुछ परिस्थीतीके कारण हमने मनोमन नाम स्मरण कर माँ को हमारे नमन कर आगे पंजाब में प्रवेश किया. धर्मशालासे निकलकर कांगड़ा जिल्ले के बाद हिमाचल के उना जिल्ले से होकर पंजाबके होशियारपुर जिल्लेमें प्रवेश होता है. रास्ते पर बड़े पहाड़ तो नही है. पर रास्ता धीरे धीरे उतराई वाला है. यहाँ उना जिल्ले के ‘गग्गेट’के पास ब्यास नदी विशालपट में शांत रूपसे बहकर पंजाबमें प्रवेश करती है. पंजाबके होशियारपुर शहर तक थोडा बहोत उतराई वाला रास्ता है. होशियारपुर में बड़े उद्योग दिखाई पड़ते है. होशियारपुरसे समतल मैदानी प्रदेश शरू हो जाता है.

कश्मीर को भारत का उधान मानेंगे तो हिमाचलप्रदेश भारतका फल का बगीचा और पंजाब को भारत का हराभरा खेत मानना पड़ेंगा. कश्मीर और हिमाचल पर प्रकृति की कृपा से हरियाली है. पर पंजाब में भाखरा नांगल डेम की नहेरो से सिंचित मानव श्रम से हरियाली दिखाई देती है. पिछले २५ दिनों के प्रवास में लेह लदाख को बाद करे तो सर्वत्र हरियालीके दर्शन हुए है. परंतु यह हरियालीमें भौगोलिक अंतर है. जम्मू कश्मीरके दक्षिणमें चिड देवदारके घटाटोप वृक्षोंसे भरे पहाड़ोकी नैसर्गिक हरियाली, कश्मीर घाटीमें नदियों के पानीसे सिंचित खेत खलियान में हरियाली, श्रीनगरमें झेलम और दलझीलके किनारे मानव निर्मित बाग बगीचे की हरियाली, अमरनाथ यात्राके बाद हेलिकॉप्टरसे ऊंचाईसे देखे द्रश्य का तो क्या कहना ? ऊँचे हिमाच्छादित पर्वत के एक तरफ बर्फ ही बर्फ और दुसरे तरफ शंकु आकार के हरेभरे चिड देवदार वृक्षों की घटाटोप वन की हरियाली. हेलीकॉप्टरसे सूटिंग की मनाई थी पर हमारे चित पर इन द्र्श्यो की अमिट छबी बनी है जो शब्दातीत है. हिमाचल प्रदेश की कुलु कांगड़ा घाटी सहित पुरे हिमाचल पर प्रकृति देवी की कृपासे बाग बगीचे, सीढ़ीनुमा खेत खलियान और पहाड़ो पर चिड देवदार के सघने वनों की हरियाली और पंजाब में भाखरा नांगल डेम से संचित समतल खेत खलियान की हरियाली तो मानो धरती माता ने अपने तन पर हरीभरी लोन रूपी साड़ी पहन रखी हो. 
   
पिछले २०-२२ दिनोंसे मानवसे अधिक नदी, नाले, झील, झरने, पहाड़, पर्वत, खाई घाटी की वादियों आदि अहम शून्य निसर्ग के सहवास में प्रफुल्लित होकर हलका बना मन, फिरसे पंजाबके मैदानी विस्तारके मानव निर्मित कल, कारखाने, उद्योग मानव भीडभाडसे भरे शहर, मकान, दुकान ओर प्रदुषण फैलाते वाहन व्यवार देख कर कुछ अजीबसी घुटन महशुस होती है. धीर धीरे फिरसे मन इसका भी आदि हो जायेगा. स्वर्ग या नर्क प्रत्यक्ष तो हमने देखा नही है. लेकिन भगवद्गीता के अनुशार “पुण्यक्षीणे मृत्यु लोके” (पुण्य कमाकर स्वर्ग लोक मिलता है, और पुण्य का क्षय हो जाने पर वापस मृत्युलोक में आना पड़ता है) न जाने क्यों ऐसा लगता है की हमभी इसी तरह स्वर्गलोक से वापस मृत्यु लोक में आगये है.
   
पंजाबके फगवाड़ा शहरके पहले एक ढाबेमें खाना खाया यह हमारा इस यात्राका आखरी ढाबे का भोजन था. हमारे जीवनका अभी तक का सबसे लंबे समय और लंबी दुरी की इस यात्रा में घर बहार ढाबे होटेल का खाना खाने का भी पहला अवसर था. लेकिन यहाँ पर भी भगवद कृपा देखोकी किसी को कोई तकलीफ या बीमार नही पड़े. यहाँ से आगे फगवाड़ामें यह रास्ता NH 1 को मिल जाता है. यहाँसे ६ लेन वाला राजमार्ग है. यहाँ से लुधियाणा ४० कीमि दूर है. खेतीसे समृद्ध पंजाब की समृधि इनके शहरों में प्रतिबिम्बित होती है. ६ लेन रोड पर चमचमाती अलग अलग ब्रांड की महेंगी कारे, बड़े बड़े भीडभाड वाले मॉल, हाइवे होटलो से यह राजमार्ग धडकता रहता है. रास्तेमें सतलुज नदी का पुल पार कर हम लुधियाणा पहोंचे. रास्तेमें जगह जगह पानी भरा हुआ था. हमारे आगे आगे जोरदार बारिश हुई थी. हाइवे से लुधियाणा शहर में प्रवेश कर शहर के बिच फलाय ओवरसे रेलवे स्टेशन पहोंचे. यहाँ भी पानी भरा हुआ था. स्टेशन पर दोपहर ३.०० बजे पहोंच गए. गाड़ीसे सामान उतारकर एक तरफ रखा. गाड़ीका हिसाब हमारे पैकेज में था. लेकिन बिचमे सोनमर्ग से श्रीनगर का दवाखाना तथा एअरपोर्ट का अतिरिक्त चक्कर का हिशाब एवं मनीष को बक्षिस देकर खुश किया. वह हमसे स्वजन की तरह पैर छुकर बिदा हुआ. हमने अपना सामान धीरे धीर प्लेटफार्म नं १ पर जहां शाम ७ और ७.१५ को हमारी ट्रेन आने वाली थी वहां रखा. चाय कोफ़ी पीकर फ्रेश होकर ट्रेन का इंतजार करने लगे. यात्रा दरम्यान खरीदी के कारण सबके सामान में बढोतरी हो गई थी. यहाँ से डायरेक्ट ट्रेन के कारण बदली की चिंता नहीं थी.
   
शाम ७.०० बजे पहले हमारी सुवर्ण शताब्दी एक्सप्रेस सही समय पर आई. चेयर कार में इतने सामान के साथ बैठने में शरुआत में थोड़ी दिक्कत हुई पर आगे पीछे जमा कर सामान का समावेस हो गया. ट्रेन चलने के थोड़ी देर बाद वेटर हमें सूप और बेड बटर का नास्ता देकर गया. सूप पीकर हमने हमारे साथी को फोन लगाया तो उनकी ट्रेन हमारे पीछे १५ मिनिट के बाद सही समय पर आकर चल दी थी. इस प्रकार हमारी आगे की रेलवे यात्रा भी सही समय पर अपने गंतव्य की और जा रही थी. आगे अंबाला में हमे भोजन परोसा गया. शताब्दी एक्सप्रेस की टिकिट में भोजन का चार्ज समायोजित रहता है. शताब्दी एक्सप्रेस में मर्यादित स्टॉपेज के कारण ४.०० घंटे की यात्रा कर रात ११.०० बजे हम न्यू दिल्ही स्टेशन पहोंच गये. 
6 यहाँ हमे लेने ज्योति वासु और सत्व आये थे. उन्हें मिलकर बहोत ख़ुशी हुई. रात को १२.०० बजे मानसरोवर गार्डन स्थित घर पर पहोंचे. घरमे तत्वा, ख़ुशी और हमारे संबधी उत्सुकता से हमारी राह देख रहे थे. उनेह मिलकर कुशल मंगल का आदानप्रदान किया. बड़ी बेटी मीनाक्षी जवाई के साथ दो बेटो को लेकर कच्छ में गये थे. रातको फ्रूट खाकर विश्राम किया.                   

दिन २४ वा दिनाक १९/७/२०१५ न्यू दिल्ही:

न्यूदिल्ही बिटिया के घर
आज रविवार है, पिछले 24 दिनों से वार एवं तारीख का पत्ता नही चलता था, अपने घर से बहार प्रवास में दैनन्दिन में बदलाव से यह वार या तारीख की मानसिक याददाश्त भूल जाती है, यह जानकारी आधुनिक साधन मोबाईल या घड़ी हमे याद दिलाते है. आज कोई विशेष कार्यक्रम न होने से देर से उठकर तैयार हुए, रविवार बच्चों एवं व्यापार में अवकाश के कारण तैयार होकर हमारे यात्रा संबंधित अनुभव एवं फोटो देखने मे समय व्यतीत किया.

शाम के समय इंडियागेट एवं बिरला मंदिर में दर्शन किये, रेस्टोरेंट में भोजन कर घर लौटे.
दिन २५ वा दिनाक २०/७/२०१५ न्यू दिल्ही - नागपुर रवाना
न्यूदिल्ही से नागपुर
आज न्यूदिल्ही स्थित अन्य रिश्तेदारों से मुलाकात में दिन व्यतीत किया रात 10.30 तमिलनाडु एक्सप्रेस से हमारी नागपुर वापसी यात्रा थी.

दिन २६ वा दिनाक २१/७/२०१५ नागपुर घरवापसी
रात १०.३० बजे तमिलनाडु एक्सप्रेस से समयपर निकलकर २६ दिन के बाद हमारी घरवापसी हुई. माताजी के चरणस्पर्श कर उनके तीर्थ लिये। अन्य परिवारजनों से मिलकर तीर्थयात्रा से लाये विविध तीर्थक्षेत्र से मिले प्रसाद एवं तीर्थयात्रा से मन को मिली प्रसन्नता ' प्रसादस्तु प्रसन्नता ' वाला मनप्रसाद का आस्वाद करवाया.

मेरे जीवन में व्यक्तिगत एवं सपत्नीे 26 दिन घर से बहार रहने का यह प्रथम अनुभव था. गुजराती में कहावत है ' ધરતી નો છેડો ઘર '
' धरती का छोर घर ' घर से बहार भले ही स्वर्ग की अनुभूति हो लेकिन अपना घर तो घर होता है. घर पहुँचकर जो शुकून मिलता है वह शब्दातीत है.
   
' स्थावराणं हिमालय ' हिमालय को भगवद्गीता में अपनी विभूति बताकर भगवान ने संपूर्ण हिमालय को शिवालय बताया है।

संपूर्ण हिमालय ही शिवालय है, इस भावना से आदि अनादि काल से हिमालय साधकों की तपोभूमि बनी है, और तपस्वियों की तपस्या से तप्त हुआ हिमालय हम जन सामान्यों की तीर्थभूमि बनी है. यह दृष्टि हम जन सामान्यों की नही बन सकती इसलिये हमारे दीर्घद्रष्टा ऋषिमुनियों ने हिमालय की चोटियों को ही श्रीविग्रह मानकर कैलाश के नाम दिये इतनाही नही इन पांच कैलाश पर्वत के पीछे शिवलीला भी है. ऐसे पांच कैलाश ...।


मणिमहेश कैलाश, भरमोर चंबा जिल्ला हिमाचल 
किन्नौर कैलाष लाहुल स्पिति, हिमाचलप्रदेश
श्रीखंड कैलाश हिमाचल प्रदेश
ॐ पर्वत
आदि कैलाश
कैलाश महादेव
कैलाश महादेव
अमरनाथ गुफा
गंगोत्री धाम
 यमनोत्री धाम 
बद्रीनाथ धाम
केदारनाथ धाम
हिमालय रोहतांगपास के लाहुल स्पितिके तरफ

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