यदि सरदार पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री होते तो ???

बहुमत मिलने के बाद भी आखिर क्यों सरदार पटेल नहीं बन पाए प्रधानमंत्री ?
Statue of Unity, Sardar Sarovar, Kevdiya, Gujarat.182 Mt. tallest in the world

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आजादी के बाद देश की अधिकतर जनता और कोंग्रेस कमेटी भी सरदार वल्लभ भाई पटेल को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी। लेकिन बाजी हाथ लगी जवाहर लाल नेहरु के !

आइए जानते हैं कि सरदार वल्लभ भाई पटेल के एक कामयाब प्रशासक होने के बावजूद आखिर गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री के पद के लिए क्यों नहीं चुना ?

यह सब जानते हैं कि भारत के लौह पुरुष के रूप में पहचाने जाने वाले सरदार पटेल एक दृढ़प्रतिज्ञ राजनेता थे जिसके कारण कांग्रेस का हर एक सदस्य उन्हें देश के प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता था। लेकिन इतनी खूबियां और काबलियत होने के बावजूद उन्हें देश का प्रधानमंत्री नहीं चुना गया। इसके पीछे की वजह जानने के लिए हम चलते हैं सन् 1946 में ... आखिर कैसे कैसे बदला घटनाक्रम ? क्या हुआ था उस समय ? आईए पलटकर झांकते हैं इतिहास के पन्नों में एक बार फिर से -

सन् 1946 के आखिर तक भारत को आजादी मिलना लगभग तय हो गया था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद सेना के बढ़ते प्रभाव से अंग्रेज के नांक में दम आ गया था। सेना में आंतरिक बगावत की सुगबुगाहट चतुर अंग्रेजों के कानों तक पहुंच चुकी थी। अच्छा होता क़ी सेना उन्हें खदेड़ कर भगाए उसके पहले कुटिल अंग्रेजों ने स्वमान से यहाँ से खिसकने में अपनी भलाई समजी। और ब्रिटिश पार्ल्यामेंट ने मजूरी लेकर लॉर्ड माउंटबेटन और लेडी एडविना को भारत के टुकड़े टुकड़े कर अपने अधिराज्य बनाने की कुटिल मंशा से भारत भेजा था।

१९४६ नौसैनिक विद्रोह: जब गांधी ने सैनिकों को कहा गुंडा ... https://www.myindiamyglory.com/2019/10/24/1946-nauseinik-vidroh-an-untold-account-of-naval-mutiny-after-ina-trials/

लाखो बलिदानियों की शहादत और सदियों की गुलामी की जंजीरो से आजाद होकर नये युग की शरुआत होने की 32 करोड़ देशवासियों को हर्ष उल्लास की खुशियां थी।

हर तरफ चर्चा हो रही थी कि भारत का नेतृत्व किसके हाथ में होगा ?स्वस्थ लोकतंत्र की परिपाटी के मुताबिक मतदान भी हुआ। लेकिन लाखों लोगों की राय के ऊपर एक व्यक्ति की मनमर्जी थोपकर आजादी से पहले ही जनमत का माखौल बनाने की परंपरा डाल दी गई थी। जिसका पहला निशाना बने सरदार पटेल ? आजादी के बाद यह पहला बैलेट वोटिंग हैकिंग था ...

दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद से भारत में सत्ता हस्तांतरण की तैयारियों ने जोर पकड़ लिया था। 1946 के चुनावों में कांग्रेस को सबसे ज्यादा सीटें मिली थीं इसलिए कांग्रेस के ही नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरु की गई। 

सबकी नजरें कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर थीं क्योंकि हर कोई जानता था कि जो भी अध्यक्ष बनेगा वही भविष्य में भारत का प्रधानमंत्री बनेगा। 

उस समय यानी 1946 तक मौलाना अबुल कलाम आजाद ही लगातार 6 साल से कांग्रेस अध्यक्ष बने हुए थे। क्योंकि 1942 में हुए भारत छोड़ो आंदोलन की वजह से सभी बड़े नेता जेल में थे जिसकी वजह से कांग्रेस के सांगठनिक चुनाव नहीं हुए थे। 

मौलाना आजाद अगला चुनाव भी लड़ना चाहते थे, लेकिन महात्मा गांधी ने उन्हें मना कर दिया था। जिसके बाद आजाद ने नेहरु का समर्थन करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया था। 

नए कांग्रेस अध्यक्ष या फिर कहिए भारत के भावी प्रधानमंत्री पद के चुनाव के लिए नामांकन की आखिरी तारीख 29 अप्रैल 1946 थी। इस नामांकन में सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि नेहरू को गांधी के समर्थन के बाद भी राज्य की कांग्रेस समिति द्बारा समर्थन नहीं मिला। सिर्फ इतना ही नहीं, 15 राज्यों में से करीबन 12 राज्यों ने सरदार पटेल को कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रस्तावित किया और बाकी 3 राज्यों ने किसी का भी समर्थन नहीं किया। 12 राज्यों द्बारा मिला समर्थन सरदार पटेल को अध्यक्ष बनाने के लिए काफी था। इन इकाइयों ने जो नाम भेजा उसने गांधी जी ही नहीं कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को चौंका दिया। 
जवाहरलाल नेहरू और गाँधीजी
गांधी जी की सिफारिश के बावजूद 15 में से 12 इकाइयों ने नेहरु की बजाए सरदार पटेल के नाम का अनुमोदन किया। बाकी के भी तीन राज्यों ने भी कोई एक नाम भेजने की बजाए बहुमत का सम्मान किए जाने का संदेश भेजा। 

कांग्रेस की राज्य इकाइयां, जो कि उस समय देश के अलग अलग हिस्से की जन-भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं, उनका संदेश स्पष्ट था- उन्होंने जवाहरलाल नेहरु नहीं सरदार पटेल के हाथों में देश का भविष्य सुरक्षित देखा था। 

गांधी और नेहरु दोनों कार्यसमितियों के इस फैसले से भौचक्के रह गए। गांधी जी ने जनता की राय को अपनी निजी हार के तौर पर लिया। उन्होंने जीवतराम भगवानदास कृपलानी (आचार्य कृपलानी) पर दबाव डाला कि वह कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को नेहरु के नाम का प्रस्ताव पास करने के लिए राजी करें। 
आचार्य JB कृपलानी एवं सरदार वल्लभभाई पटेल
लेकिन इसमें कांग्रेस का संविधान आड़े आ गया। जिसमें यह साफ लिखा हुआ था कि अध्यक्ष पद के लिए नामांकन का अधिकार सिर्फ राज्य इकाइयों के पास था। 

ऐसी परिस्थितियों में गांधी जी ने अपना भावनात्मक तुरुप का इक्का ( इमोशनल वीटो पावर) चला। उन्होंने सरदार पटेल को बुलाया और नेहरु के समर्थन में अपना नामांकन वापस लेने का दबाव डाला। 

कहा जाता है कि गांधी जी को इस बात के लिए नेहरु ने मजबूर किया था। उन्होंने गांधी जी पर दबाव डालने के लिए कांग्रेस को तोड़ देने की भी धमकी दी थी। 

गांधी जी को यह भी आशंका थी कि कांग्रेस के इस आपसी झगड़े का फायदा उठाकर कहीं अंग्रेज भारत को आजादी देने से इनकार न कर दें
गांधी जी ने जब पटेल से मुलाकात की तो उन्होंने अपनी यह आशंकाएं उनके सामने रखीं थीं। 
नेहरू, गाँधीजी, सरदार पटेल
हालांकि वल्लभ भाई पटेल जानते थे कि गांधी जी इन आशंकाओं की आड़ में नेहरु को प्रधानमंत्री बनाने की अपनी ख्वाहिश पूरा करना चाहते हैं। लेकिन सरदार पटेल के अंदर का देशभक्त यह नहीं चाहता था कि उनकी वजह देश को आजादी मिलने में देरी हो या कांग्रेस में किसी तरह की टूट हो। इसलिए जनता की प्रबल इच्छा के बावजूद उन्होंने नेहरु के समर्थन में कांग्रेस अध्यक्ष पद से अपनी दावेदारी वापस ले ली। 

जब बाबू राजेंद्र प्रसाद ने यह खबर सुनी तो एक आह के साथ उनके मुंह से निकला कि एक बार फिर गांधी ने अपने चहेते चमकदार चेहरे (नेहरू) के लिए अपने विश्वासपात्र सैनिक (सरदार पटेल) की कुर्बानी दे दी।

क्योंकि कांग्रेस में यह बात हर कोई जानता था कि गांधी जी की पहली पसंद सरदार पटेल नहीं नेहरु हैं। क्योंकि इससे पहले भी दो बार 1929 और 1937 में पटेल के ऊपर नेहरू को वरीयता दी थी। 

गांधी कथित रुप से नेहरु की उच्च शिक्षा दीक्षा और विदेशी अंदाज से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। गांधी भले ही स्वदेशी, भारतीयता को अपने आंदोलन का आधार बताते थे। लेकिन उन्होंने खुद विदेश में शिक्षा ग्रहण की थी, इसलिए वह पूर्ण रुप से देशी पटेल से ज्यादा इंग्लैण्ड में पढ़ाई किए हुए नेहरु को ज्यादा माडर्न और प्रगतिशील मानते थे।

इसके अलावा 1946 तक गांधी जी की उम्र 77 (सतहत्तर) साल हो चुकी थी। वह नेहरु पर बहुत ज्यादा निर्भर हो चुके थे। गांधी जी को डर था कि अगर नेहरु ने कांग्रेस तोड़ दी तो उन्हें अंग्रेजों का समर्थन मिल जाएगा और वह खुद हाशिए पर चले जाएंगे। 

भले ही नेहरु गांधी जी के चहेते थे लेकिन वह जानते थे कि नेहरु की बात न मानी गई तो वह उनके आदेशों की परवाह नहीं करेंगे। साथ ही गांधी यह भी जानते थे कि उन्होंने पटेल के साथ कई बार पक्षपात किया है फिर भी भारतीय संस्कारों के बीच पले बढ़े वल्लभ भाई पटेल उनकी बात कभी नहीं टालेंगे।

गांधी जी का भावनात्मक दबाव काम आया और सचमुच पटेल ने अपनी दावेदारी वापस ले ली। लेकिन जनमत की यह अनदेखी देश को आगे जाकर बहुत महंगी पड़ी। 

मौलाना आज़ाद ने 1959 में प्रकाशित अपनी जीवनी में लिखा था – “सरदार पटेल के नाम का समर्थन ना करना मेरी बहुत बड़ी भूल थी। मेरे बाद अगर 1946 में सरदार पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया होता तो भारत की आज़ादी के समय “कैबिनेट मिशन प्लान” को उन्होंने नेहरू से बेहतर ढंग से लागू करवाया होता। मैं अपने आपको कभी इस बात के लिए माफ़ नहीं कर पाउँगा कि मैंने यह गलती न की होती भारत के पिछले दस सालों का इतिहास कुछ और ही होता”।

ठीक इसी तरह चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने भी लिखा कि “इस में कोई शक नहीं कि बेहतर होता यदि सरदार पटेल को प्रधानमंत्री और नेहरू को विदेशमंत्री बनाया गया होता। मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं भी गलत सोचता था कि इन दोनों में नेहरू ज्यादा प्रगतिशील और बुद्धिमान हैं”।

इन विद्वानों की राय अगले 15 (पंद्रह) सालों में ही सही साबित हो गई। अगर पटेल के हाथ में भारत का नेतृत्व आता तो 1947 में देश का विभाजन, कश्मीर की लगातार गंभीर होती समस्या और 1962 में चीन के हमले के समय देश की हालत ऐसी न होती। 

सरदार पटेल और देश के साथ गाँधीजी की महत्वाकांक्षा से इतना बड़ा अन्याय होने के बाद भी सरदार की देशभक्ति में कोई कमी नही आई न प्रधानमंत्री न बन पाने का मन मे मलाल था। आजादी के बाद वर्तमान भारत की सीमाओं की 40% भूभाग पर 565 छोटे बड़े रजवाड़ों को एक करने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया है। इस ऐतिहासिक महत्वपूर्ण घटना को नहेरुवंश ने इरादतन छुपाये रखा था या युंह कहे प्रिसिद्धि से दूर रखा था। इन 565 रजवाड़ों मेसे 564 रजवाड़े सरदार पटेल ने दृढ़ संकल्प और कूटनीतिक चाल से भारत में मिला दिया लेकिन एक मात्र जम्मू कश्मीर का हवाला नहेरु ने अपने पास अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बोलकर रखा था जो आज तक भारतमाता के मस्तक के रूप में शिरदर्द बनकर रहा था। जिसे हाल में नरेंद्र मोदी की सरकार ने लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल जैसी दृढ़ इच्छाशक्ति से 5 अगस्त 2019 को नेहरू द्वारा जम्मू कश्मीर को 370 और 35A की अस्थाई धाराओं को 70 शालों के बाद स्थाई रूप से हटाकर 31 ऑक्टोम्बर को जम्मू कश्मीर और लदाख दो केंद्र शासित प्रदेश बनाकर सरदार के अधूरे कार्य को पूर्ण कर सबसे बड़ी श्रद्धांजलि अर्पित की है।

आजादी के बाद 565 टुकड़ो में बटे भारत को एकीकृत करने का ऐतिहासिक कार्य

आजादी के बाद भारत 565 देशी रियासतों में बंटा था। सन् 1947 में जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ तब यहाँ 565  रियासतें थीं। इनमें से अधिकांश रियासतों ने ब्रिटिश सरकार से लोकसेवा प्रदान करने एवं कर (टैक्स) वसूलने का 'ठेका' ले लिया था। कुल 565 में से केवल 21  रियासतों में ही सरकार थी और मैसूर, हैदराबाद तथा कश्मीर नाम की सिर्फ़ 3 रियासतें ही क्षेत्रफल में बड़ी थीं।

आजादी से 565 से अधिक टुकड़ों में बंटे भारत को एक विशाल भारत के सूत्र में पिरोकर एक भारत श्रेष्ठ भारत के स्वप्न द्रष्टा एवं। शिल्पी।सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रति देश सदैव कृतज्ञ तो रहेंगे ही लेकिन सरदार पटेल के सपने को साकार करने के लिए अहं भूमिका निभाने वाले वप्पला पंगुन्नी मेनन (वी.पी. मेनन) को अगर हम भूल जाए तो आधुनिक भारत के राजनीतिक भूगोल के इस महान शिल्पी के प्रति कृतघ्नता ही होगी।
सरदार पटेल एवं VP मेनन
देसी राज्यों के भारत संघ में विलय की प्रक्रिया के तहत जहां इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन (विलय-पत्र) पर गर्वनर जनरल लुइस माउंटबेटन ने हस्ताक्षर किए वहीं भारत सरकार के सेक्रेटरी स्टेट्स के रूप में अंतिम विलय पत्र पर मेनन ने ही हस्ताक्षर किए थे।

मामूली क्लर्क से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले मेनन अपनी लगन, निष्ठा और असाधारण प्रतिभा के बल पर भारत के अंतिम वायसरायों और गर्वनर जनरल के राजनीतिक सलाहकार और भारत सरकार के देशी राज्यों के मामलों के सचिव रहे।

विदित है कि 1857 की गदर के बाद जब ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से लेकर अपने अधीन किया तो अंग्रेजों ने देशी शासकों का राज्यहरण कर अपने में मिलाने के बजाय संधि के जरिये उनके साथ सुरक्षा और सहयोग की गारण्टी के बदले उनकी पैरामौंटसी ब्रिटिश ताज में निहित करना शुरू कर दिया था।

इस संधि के तहत सुरक्षा, विदेशी मामले और संचार जैसे कुछ विषयों को अपने हाथ में लेकर ब्रिटिश शासन ने बाकी सारे अधिकारों समेत अपने राज्य में शासन करने का अधिकार देशी शासकों को दे दिया था। लेकिन भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के तहत भारत को स्वतंत्रता मिलने के साथ ही देशी शासकों के साथ अंग्रेजी शासन की वह संधि भी समाप्त हो गई थी, इसलिए सार्वभौम सत्ता को पुनः वापस पा चुके।

रजवाडो को भारत संघ में मिलाना अत्यंत कठिन कार्य था जिसे सरदार वल्लभ भाई पटेल, उनके अधीन देशी राज्यों के मामलों के सचिव वीपी मेनन ने बेहद चुतराई, हिम्मत और दृढ़ इच्छा शक्ति से संभव बनाया।

जम्मू-कश्मीर का घटनाक्रम हमारे सामने है। सिक्कम को बड़ी मुश्किल से चीन ने भारत का अंग माना, मगर उसी अरुणाचल का भारत के साथ होना अभी भी नहीं पचता है। अगर सरदार पटेल और वीपी मेनन उस समय भारत के एकीकरण में कामयाब नहीं होती तो कल्पना की जा सकती है कि आज भारत की स्थिति क्या होती !

गृहमंत्री सरदार पटेल और मेनन ने बहुत ही चतुराई से ऐसा  इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन का संधिपत्र तैयार किया 
Instrument of Accession with Jammu.& Kashmir

Instrument of Accession with Jammu.& Kashmi

Instrument of Accession with Jammu.& Kashmir
Instrument of Accession with Jammu.& Kashmir

Instrument of Accession with Junagadh State

Instrument of Accession with Nagaland State
भारत जब आजाद हुआ तो उस समय गृहमंत्री सरदार पटेल और मेनन ने बहुत ही चतुराई से ऐसा  इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन का संधिपत्र तैयार किया जिस पर देशी राज्यों के शासक जल्दी सहमत हो गए और हैदारबाद, त्रावणकोर और गोवा जैसे जो राज्य सहमत नहीं हुए उन्हें सहमत होने के लिए विवश कर दिया गया। इस संधि के तहत देशी शासकों को सुरक्षा, यातायात, संचार और वैदेशिक मामलों के अलावा पूर्ण स्वायत्तता दी गई जिससे वे भारत गणराज्य के साथ बने रहने के लिए पाबंद हो गए।

ये देशी रियासतें स्वतंत्र शासन में यकीन रखती थीं जो सशक्त भारत के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा थी। हैदराबाद, जूनागढ़, भोपाल और कश्मीर को छोड़कर 562 रियासतों ने स्वेच्छा से भारतीय परिसंघ में शामिल होने की स्वीकृति दी थी। आजादी के बाद देश के पहले उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री बने सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सभी रियासतों से बात करके उन्हें भारतीय गणराज्य में शामिल होने के लिए मनाया।

हम सभी जानते हैं कि कुछ रियासतों के विलय में काफी दिक्कतें भी आई थीं। लेकिन यह समस्या क्यों आई और क्या केवल भारत में ही ऐसी स्थिति बनी थी? किन रियासतों ने भारत में विलय का विरोध किया था ?
1947 भारत के अंतर्गत तीन तरह के राजकीय क्षेत्र थेः
  1. ब्रिटिश भारत के क्षेत्र
  2. देसी राज्य (Princely states)
  3. ‌फ्रांस और पुर्तगाल के उपनिवेशिक क्षेत्र
बंटवारे से पहले हिंदुस्तान में 579 रियासतें थीं (565 वर्तमान भारत और बाकी पाकिस्तान में)। जब अंग्रेजों के भारत छोड़ने का समय आया तो उन्होंने देश को तीन हिस्सों में बांट दिया। भारत का पश्चिमी हिस्सा मगरिबी पाकिस्तान बना तो पूर्वी हिस्सा मशरिकी पाकिस्तान कहलाया। यही पूर्वी हिस्सा अब बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है। इस बंटवारे के बाद 565 छोटी-बड़ी रियासतों को भारत कहा गया। इसमें कई स्वतंत्र राज्य और रियासतें शामिल थीं। कुछ रियासतें तो चंद गांवों तक सिमटी हुई थीं। इन सभी को खत्म करने राज्यों का गठन करते हुए भारत संघ की कहानी लिखी गई थी।

भारत में अंग्रेजों के अंतिम वायसराय लुइस माउंटबेटन ने बंटवारे के दौरान सभी राज्यों और रियासतों को यह सलाह दी कि वे भौगोलिक स्थिति के अनुकूल भारत या पाकिस्तान साथ मिल जाएं। साथ ही उन्हें चेतावनी दी गई कि 15 अगस्त के बाद उन्हें ब्रिटेन से कोई मदद नहीं मिलेगी। अधिकांश राजाओं ने इस सलाह को मान लिया। लेकिन कुछ राजा इसके खिलाफ थे।

जाते-जाते भी फूट डालने में लगे रहे अंग्रेज
जब देश को आजादी मिलना तय हो गया तब कुछ रियासतों ने खुद को स्वतंत्र रखने का मन बनाया था। वे स्वतंत्र भारत में अपना अस्तित्व बनाये रखने की फिराक में थे। उनकी ये इच्छा उस समय और बढ़ गई जब अंग्रेजों ने भारतीय रियासतों को अपनी इच्छा से भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का अधिकार दे दिया। लेकिन यह भी स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटेन स्वतंत्र रियासतों में किसी को भी अलग देश के रूप में मान्यता नहीं देगा।

भारत की कई रियासतें भारतीय प्रायद्वीप के अल्प उपजाऊ व दुर्गम प्रदेशों में स्थित थीं। ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने विजय अभियान में महत्वपूर्ण तटीय क्षेत्रों, बड़ी-बड़ी नदी घाटियों, जो कि नौ-परिवहन की दृष्टि से महत्वपूर्ण थीं, उपजाऊ थीं और जहां धनाढ्य लोग निवास करते थे, उन्हें अपने अधीन कर लिया था।

1935 में अंग्रेजों ने भारत सरकार अधिनियम बनाया, जिसमें प्रस्तावित समस्त भारतीय संघ की संघीय विधानसभा में भारतीय रियासत प्रमुखों को 375 में से 125 स्थान दिए गए। साथ ही राज्य विधान परिषद के 260 स्थानों में से 104 स्थान उनके लिए सुरक्षित किए गए।

योजना के अनुसार, यह संघ तब अस्तित्व में आना था, जब परिषद में आधे स्थानों वाली रियासतें तथा कम से कम आधी जनसंख्या प्रस्तावित संघ में सम्मिलित होने की स्वीकृति दें। चूंकि पर्याप्त रियासतों ने इस संघ में सम्मिलित होना स्वीकार नहीं किया इसलिये संघ अस्तित्व में नहीं आ सका।

द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ होने के पश्चात भारत में तीव्र राजनैतिक गतिविधियां प्रारंभ होने तथा कांग्रेस द्वारा असहयोग की नीति अपनाए जाने के कारण ब्रिटिश सरकार ने 
  1. क्रिप्स मिशन (1942), 
  2. वैवेल योजना (1945), 
  3. कैबिनेट मिशन (1946) 
  4. एटली की घोषणा (3 जून 1947) द्वारा गतिरोध को हल करने का प्रयत्न किया।
क्रिप्स मिशन ने भारतीय रियासतों की सर्वश्रेष्ठता को भारत के किसी अन्य राजनीतिक दल को देने की संभावना से इंकार कर दिया। रियासतों ने पूर्ण संप्रभुता संपन्न एक अलग गुट बनाने या अन्य इकाई बनाने की विभिन्न संभावनाओं पर विचार-विमर्श किया, जो भारत के राजनीतिक परिदृश्य में एक तीसरी शक्ति के रूप में कार्य करे।

वेवेल योजना 
14 जून,  1945 ई. को प्रस्तुत की गई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध मित्र राष्ट्रों की विजय के साथ ही समाप्त हुआ। तत्कालीन भारतीय वायसराय वेवेल भारत  में व्याप्त गतिरोध को दूर करने के लिए मार्च, 1945 ई. में इंग्लैण्ड  गया। वहाँ उसने।ब्रिटिश प्रधानमंत्री  चर्चिल एवं भारतमंत्री एमरी से भारत के बारे में सलाह मशविरा किया।

वेवेल 14 जून, 1945 ई. को भारत वापस आया और यहाँ आकर उसने भारतीयों के समक्ष 'वेवेल योजना' को रखा। 'वेवेल योजना' की मुख्य बातें इस प्रकार थीं-
वायसराय की कार्यकारणी परिषद को पुनर्गठित किया जाये तथा उसमें सभी दलों को प्रतिनिधित्व दिया जाये।परिषद में वायसराय या सैन्य प्रमुख के अतिरिक्त शेष सभी सदस्य होगें तथा प्रतिरक्षा विभाग वायसराय के अधीन होगा।कार्यकारिणी परिषद में मुस्लिम  सदस्यों की संख्या सवर्ण हिन्दुओं  के बराबर होगी। कार्यकारिणी परिषद एक अन्तरिम राष्ट्रीय सरकार के समान होगी। गवर्नर-जनरल  बिना कारण निषेधाधिकार का प्रयोग नहीं करेगा। कांग्रेस  के नेता रिहा किये जायेंगे तथा शीघ्र ही शिमला में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया जायेगा। युद्ध समाप्त होने के उपरान्त भारतीय स्वयं ही संविधान बनायेंगे।
कैबिनेट मिशन प्लान
22 जनवरी को कैबिनेट मिशन को भेजने का निर्णय लिया गया था और 19 फरवरी, 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री सी.आर.एटली की सरकार ने हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में कैबिनेट मिशन के गठन और भारत छोड़ने की योजना की घोषणा की| तीन ब्रिटिश कैबिनेट सदस्यों का उच्च शक्ति सम्पन्न मिशन, जिसमे भारत सचिव लॉर्ड पैथिक लारेंस, बोर्ड ऑफ़ ट्रेड के अध्यक्ष सर स्टैफोर्ड क्रिप्स और नौसेना प्रमुख ए.वी.अलेक्जेंडर शामिल थे, 24 मार्च, 1946 को दिल्ली पहुँचा।
मिशन के प्रस्ताव
  • मिशन ने ब्रिटिश भारत के निर्वाचित प्रतिनिधियों और भारतीय रजवाड़ों से संविधान के निर्माण के सम्बन्ध में विचार-विमर्श कर एक समझौते को तैयार करने का प्रस्ताव रखा।
  • संवैधानिक निकाय के गठन का प्रस्ताव
  • प्रमुख भारतीय दलों के समर्थन से एक कार्यकारी परिषद् के गठन का प्रस्ताव
मिशन का उद्देश्य
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के मध्य के राजनीतिक गतिरोध को दूर करना और साम्प्रदायिक विवादों को रोकना था। इन दोनों में इस बात को लेकर मतभेद था कि एकीकृत या विभाजित कौन सा विकल्प ब्रिटिश भारत के लिए बेहतर होगा ?
  • कांग्रेस पार्टी चाहती थी कि केंद्र में एक सशक्त सरकार हो जिसकी शक्तियां प्रांतीय सरकारों की तुलना में अधिक हों।
  • जिन्ना के नेतृत्व में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग भारत को अविभाजित रखना चाहती थी लेकिन तभी जब मुस्लिमों को कुछ राजनीतिक सुरक्षोपाय प्रदान किये जाये, जैसे कि विधायिकाओं में समानता की गारंटी।
  • 1945 में हुए शिमला सम्मलेन के बाद 16 मई, 1946 को कैबिनेट मिशन योजना की घोषणा की गयी।
मिशन की अनुशंसाएं
  • भारत की एकता को बनाये रखा जाये।
  • इसने सभी भारतीय क्षेत्रों को मिलाकर एक बहुत ही कमजोर संघ के गठन का प्रस्ताव रखा, जिसे केवल रक्षा, विदेशी मामलों और संचार पर ही नियंत्रण प्राप्त था। संघ को यह शक्ति प्राप्त होगी कि वह इन सभी विषयों के प्रबंधन के लिए आवश्यक वित्त जुटा सके
  • संघीय शक्तियों के अतिरिक्त अन्य सभी शक्तियां और अवशिष्ट शक्तियां ब्रिटिश भारत के प्रान्तों को प्रदान की गयीं।
  • एक संविधान निर्मात्री निकाय या संविधान सभा का चुनाव किया जाये जिसमे सभी राज्यों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में निश्चित सीटें प्रदान की जाएँ।
  • इसने प्रस्तावित संविधान सभा में 292 सदस्यों को ब्रिटिश भारत से और 93 सदस्यों को रियासतों से शामिल करने का प्रस्ताव रखा।
  • मिशन ने केंद्र में तत्काल अंतरिम सरकार के गठन को प्रस्तावित किया,जिसे सभी राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त हो और जिसके सभी विभाग भारतीय के पास हों।
निष्कर्ष
कैबिनेट मिशन का प्रमुख उद्देश्य भारत में सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण के तरीकों को खोजना और संविधान का निर्माण करने वाले तंत्र के बारे में सुझाव देना था। अंतरिम सरकार का गठन करना भी इसका एक उद्देश्य था।
3 जून 1947 की माउंटबेटन योजना तथा एटली की घोषणा
में रियासतों को यह अधिकार दिया गया कि वे भारत या पाकिस्तान किसी भी डोमिनियन में सम्मिलित हो सकती हैं। हालांकि इसमें यह भी स्पष्ट था कि रियासतों को संप्रभुता का अधिकार या तीसरी शक्ति के रूप में मान्यता नहीं दी जाएगी।

राष्ट्रीय अस्थायी सरकार में रियासत विभाग के मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वीपी मेनन को अपना सचिव बनाया। इसके बाद भारतीय रियासतों से देशभक्तिपूर्ण अपील की गई कि वे अपनी रक्षा, विदेशी मामले तथा संचार अवस्था को भारत के अधीनस्थ बनाकर भारत में सम्मिलित हो जाएं।

सरदार पटेल ने तर्क दिया कि चूंकि ये तीनों ही मामले पहले से ही ब्रिटिश क्राउन (मुकुट या ताज) की सर्वश्रेष्ठता के अधीन थे तथा रियासतों का इन पर कोई नियंत्रण भी नहीं था। अतः रियासतों के भारत में सम्मिलित होने से उनकी संप्रभुता पर कोई आंच नहीं आएगी। 15 अगस्त 1947 के अंत तक 136 क्षेत्राधिकार रियासतें भारत में सम्मिलित हो चुकी थीं।

भारत के विरोध में थीं ये रियासतें
जूनागढ़ स्टेट
यहां का मुस्लिम नवाब रियासत को पाकिस्तान में सम्मिलित करना चाहता था किंतु हिंदू जनसंख्या भारत में सम्मिलित होने के पक्ष में थी। जनता ने भारी बहुमत से भारत में सम्मिलित होने के पक्ष में निर्णय दिया। और मुस्लिम नवाब पाकिस्तान भाग गया।
हैदराबाद स्टेट
हैदराबाद का निजाम अपनी संप्रभुता को बनाए रखने के पक्ष में था। यद्यपि यहां की बहुसंख्या जनता भारत में विलय के पक्ष में थी। उसने हैदराबाद को भारत में सम्मिलित करने के पक्ष में तीव्र आंदोलन प्रारंभ कर दिया। निजाम आंदोलनकारियों के प्रति दमन की नीति पर उतर आया। 29 नवंबर 1947 को निजाम ने भारत सरकार के साथ एक समझौते पर दस्तखत तो कर दिए किंतु इसके बावजूद उसकी दमनकारी नीतियां और तेज हो गईं।

सितंबर 1948 तक यह स्पष्ट हो गया कि निजाम को समझा-बुझा कर राजी नहीं किया जा सकता। 13 सितंबर 1948 को भारतीय सेनाएं हैदराबाद में प्रवेश कर गईं और 18 सितंबर 1948 को निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया। अंततः नवंबर 1949 में हैदराबाद को भारत में सम्मिलित कर लिया गया।
कश्मीर
जम्मू एवं कश्मीर राज्य के शासक हिंदू थे और वहां की जनसंख्या मुस्लिम बहुसंख्यक थी। यहां के शासक भी कश्मीर की संप्रभुता को बनाए रखने के पक्ष में थे और भारत या पाकिस्तान किसी भी देश में नहीं सम्मिलित होना चाहते थे। किंतु कुछ समय पश्चात ही नवस्थापित पाकिस्तान ने कबाइलियों को भेजकर कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और कबाइली तेजी से श्रीनगर की ओर बढ़ने लगे। शीघ्र ही पाकिस्तान ने अपनी सेनाएं भी कबाइली आक्रमणकारियों के समर्थन में कश्मीर भेज दीं।

जब कश्मीर के राजा ने भारत से सैन्य सहायता मांगी तब सरदार पटेल ने कहा पहले विलय-पत्र में सही करो ... अंत में विवश होकर कश्मीर के शासक ने 26 अक्टूबर 1947 को भारत के साथ विलय-पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर कर दिए। तब कबाइलियों को खदेड़ने के लिए भारतीय सेना जम्मू-कश्मीर भेजी गई। भारत ने पाकिस्तान समर्थित आक्रमण की शिकायत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में दर्ज कराई तथा उसने जनमत संग्रह द्वारा समस्या के समाधान की सिफारिश की।

भारत में सम्मिलित हो जाने के बाद भी दिक्कत दे रही थीं ये रियासतें
बहुत सी छोटी-छोटी रियासतें जिनकी संख्या 216 थी और जो अलग इकाई के रूप में नहीं रह सकती थीं उन्हें संलग्न प्रांतों में विलय कर दिया गया था। इन्हें श्रेणी-ए में सूचीबद्ध किया गया। जैसे- छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की 39 रियासतें बंबई प्रांत में सम्मिलित कर दी गईं।
कुछ रियासतों का विलय एक इकाई में इस प्रकार किया गया कि वो केंद्र द्वारा प्रशासित की जाएं। इन्हें श्रेणी-सी में सूचीबद्ध किया गया। इसमें 61 रियासतें सम्मिलित थीं। इस श्रेणी में हिमाचल प्रदेश, विंध्य प्रदेश, भोपाल, बिलासपुर, मणिपुर, त्रिपुरा एवं कच्छ की रियासतें थीं।

एक अन्य प्रकार का विलय राज्य संघों का गठन करना था। इनकी संख्या पांच थी। ये रियासतें थींः काठियावाड़ की संयुक्त रियासतें, मध्य प्रदेश की संयुक्त रियासतें, पटियाला और पूर्वी पंजाब रियासती संघ, विंध्य प्रदेश और मध्य भारत के संघ तथा राजस्थान, त्रावणकोर और कोचीन की रियासतें।

विलय और समन्वय
शुरूआत में रक्षा, संचार अवस्था तथा विदेशी मामलों के मुद्दे पर ही इन रियासतों का विलय किया गया था किंतु कुछ समय पश्चात यह महसूस किया जाने लगा कि आपस में सभी का निकट संबंध होना अनिवार्य है। पांचों राज्य संघ तथा मैसूर ने भारतीय न्याय क्षेत्र को स्वीकार कर लिया। इन्होंने समवर्ती सूची के विषयों (कर को छोड़कर), अनुच्छेद 238 के विषयों तथा केंद्र की नियंत्रण शक्ति को 10 वर्षों के लिए स्वीकार कर लिया। सातवें संशोधन (1956) से श्रेणी-बी को समाप्त कर दिया गया।

अंत में सभी रियासतें पूर्णरूपेण भारत में सम्मिलित हो गईं तथा भारत की एकीकृत राजनीतिक व्यवस्था का अंग बन गईं।

नहेरुवंश की बपौती जागीर भारत
सरदार पटेल के साथ नेहरू की महत्वकांक्षा और गांधी की मनमानी से बहुमत होते हुए प्रधानमंत्री न बनाकर न केवल उनके साथ अन्याय हुआ लेकिन देश के साथ अन्याय किया है। लेकिन कुटिल नहेरु और नहेरुवंश इतने से नही रुका था।

जब सरदार पटेल जी की मृत्यु हुई तो एक घंटे बाद तत्कालीन-प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक घोषणा की। घोषणा के तुरन्त बाद उसी दिन एक आदेश जारी किया गया, उस आदेश के दो बिन्दु थे।
  • पहला यह था, की सरदार-पटेल को दी गयी सरकारी-कार उसी वक्त वापिस लिया जाय।
  • और दूसरा बिन्दु था की गृह मंत्रालय के वे सचिव/अधिकारी जो सरदार-पटेल के अन्तिम संस्कार में बम्बई जाना चाहते हैं, वो अपने खर्चे पर जायें।
लेकिन तत्कालीन गृह सचिव वी.पी मेनन ने प्रधानमंत्री नेहरु के इस पत्र का जिक्र ही अपनी अकस्मात बुलाई बैठक में नहीं किया और सभी अधिकारियों को बिना बताये अपने खर्चे पर बम्बई भेज दिया।

उसके बाद नेहरु ने कैबिनेट की तरफ से तत्कालीन राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद को सलाह भेजवाया की वे सरदार-पटेल के अंतिम-संस्कार में भाग न लें। लेकिन राजेंद्र-प्रसाद ने कैबिनेट की सलाह को दरकिनार करते हुए अंतिम-संस्कार में जाने का निर्णय लिया। लेकिन जब यह बात नेहरु को पता चली तो उन्होंने वहां पर सी. राजगोपालाचारी को भी भेज दिया और सरकारी स्मारक पत्र पढने के लिये राष्ट्रपति के बजाय उनको पत्र सौप दिया।

इसके बाद कांग्रेस के अन्दर यह मांग उठी की इतने बङे नेता के याद में सरकार को कुछ करना चाहिए और उनका 'स्मारक' बनना चाहिए तो नेहरु ने पहले तो विरोध किया फिर बाद में कुछ करने की हामी भरी।

कुछ दिनों बाद नेहरु ने कहा की सरदार-पटेल किसानों के नेता थे, इसलिये सरदार-पटेल जैसे महान और दिग्गज नेता के नाम पर हम गावों में कुआँ खोदेंगे। यह योजना कब शुरु हुई और कब बन्द हो गयी किसी को पता भी नहीं चल पाया।

उसके बाद कांग्रेस के अध्यक्ष के चुनाव में नेहरु के खिलाफ सरदार-पटेल के नाम को रखने वाले पुराने और दिग्गज कांग्रेसी नेता पुरुषोत्तम दास टंडन को पार्टी से बाहर कर दिया।

ये सब बाते बरबस ही याद दिलानी पङती हैं ... आज जब कांग्रेसियों को सरदार-पटेल का नाम जपते देखता है ... तो लगता है मानो "कांग्रेस ईस्ट इंडिया कंपनी" है जो की हिंदी और हिन्दू-संस्कृति को समाप्त करने का काम ७० वर्षों से गुपचुप तरीके लगी हो। गैर कोंग्रेसीयो तो ठीक देश भक्त कोंग्रेसियों के साथ नहेरुवंश ने पक्षपात किया है;
  • इसी काँग्रेस ने मुसलमानों को 40 दिनों में अलग देश पाकिस्तान दे दिये, अलग मुस्लिम लो बोर्ड दे दिया, पर हमारे आराध्य भगवान राम जी की जन्मभूमि हमे ना मिले उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय अपने 24 सर्वश्रेष्ठ वकीलों की फ़ौज उतार रखी है। ...
  • ‌नेताजी सुभाषचंद्र बोस की रहस्यमय मौत की अनसुलझी गुथी पर मौन 
  • ‌नेहरू सरकार में आजादी के बाद प्रथम उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री बने डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर कश्मीर में रहस्यमय मृत्यु ...
  • ‌पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्रीजी की ताशकंद रशिया में हुई रहस्य मय मृत्यु पर पटाकक्षेप डालकर पोस्टमार्टम तक न करवाना आज भी रहस्य बना रहा है ...
  • ‌कोंग्रेस सरकार के पहले गैर नहेरुवंशी पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहा राव का मृतदेह कोंग्रेश मुख्यालय में जनता को प्रदर्शन के लिए रखने से सोनिया गांधी का इनकार और अंतिम संस्कार न्यूदिल्ही के बदले हैदराबाद करवाना ...
  • ‌स्वयं अपने आप को भारतरत्न दिलवाने नहेरुवंश ने सरदार वल्लभभाई भाई पटेल याद नही आये लेकिन गैर नेहरूवंश के नरसिंहराव सरकार और अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा सरकार के दौरान सरदार पटेल, डॉ भीमराव आंबेडकर, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, मोरारजी देसाई, गुलजारी लाल नंदा, डॉ APJ अब्दुल कलाम जैसे कोंग्रेसी और अन्य देशभक्त महापुरष का सन्मान ...
  • ‌ ये सूची बहोत लंम्बी है ..
पर कहते है "सौ सुनार की एक लोहार की"...
नकली गाँधी और नेहरू परिवार ने केवल अपने परिवार को ही स्वतंत्रता सेनानी माना और देशवासियों से मनवाने में जुटे रहे। आज मोदी जी ने आकर ये परिवार प्रधान की परम्परा बदली और असली स्वतंत्रता सेनानियों की याद में स्मारकों को समर्पित करने में जुटे हैं। यही है असली माटी के लाल।

नि:संदेह स्वतंत्र भारत के प्रथम उप प्रधानमंत्री व गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी योद्धा व भारत सरकार के आधार स्तंभ थे।

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम में देश को एकता के सूत्र में पिरोने वाले लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल को याद करते हुए कहा कि उनमें जहां लोगों को एकजुट करने की अद्भुत क्षमता थी, वह उन लोगों के साथ भी तालमेल बिठा लेते थे जिनके साथ उनके वैचारिक मतभेद होते थे। सरदार पटेल बारीक से बारीक चीजों को भी बहुत गहराई से देखते थे, परखते थे। सही मायने में वह 'मैन ऑफ डिटेल' थे।

नि:संदेह स्वतंत्र भारत के प्रथम उप प्रधानमंत्री व गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी योद्धा व भारत सरकार के आधार स्तंभ थे। आजादी से पहले भारत की राजनीति में इनकी दृढ़ता और कार्यकुशलता ने इन्हें स्थापित किया और आजादी के बाद भारतीय राजनीति में उत्पन्न विपरीत परिस्थितियों को देश के अनुकूल बनाने की क्षमताओं ने सरदार पटेल का कद काफी बड़ा कर दिया।
सरदार वल्लभभाई पटेल का परिवार
गौरतलब है कि सरदार वल्लभभाई पटेल का जन्म गुजरात के नडियाद (ननिहाल) में 31 अक्टूबर 1875 को हुआ। उनका पैतृक निवास स्थान गुजरात के खेड़ा के आनंद तालुका में करमसद गांव था। वे अपने पिता झवेरभाई पटेल तथा माता लाडबा देवी की चौथी संतान थे। उनका विवाह 16 साल की उम्र में झवेरबा पटेल से हुआ। उन्होंने नडियाद, बड़ौदा व अहमदाबाद से प्रारंभिक शिक्षा लेने के उपरांत इंग्लैंड मिडल टैंपल से लॉ की पढ़ाई पूरी की व 22 साल की उम्र में जिला अधिवक्ता की परीक्षा उत्तीर्ण कर बैरिस्टर बनेें। सरदार पटेल ने अपना महत्वपूर्ण योगदान 1917 में खेड़ा किसान सत्याग्रह, 1923 में नागपुर झंडा सत्याग्रह, 1924 में बोरसद सत्याग्रह के उपरांत 1928 में बारडोली सत्याग्रह में देकर अपनी राष्ट्रीय पहचान कायम की।

1930 के गांधी के नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आन्दोलन की तैयारी के प्रमुख शिल्पकार सरदार पटेल ही थे।

इसी बारडोली सत्याग्रह में उनके सफल नेतृत्व से प्रभावित होकर महात्मा गांधी और वहां के किसानों महिलाओं ने वल्लभभाई पटेल को 'सरदार' की उपाधि दी। वहीं 1922, 1924 तथा 1927 में सरदार पटेल अहमदाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गये। 1930 के गांधी के नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आन्दोलन की तैयारी के प्रमुख शिल्पकार सरदार पटेल ही थे। 1931 के कांग्रेस के कराची अधिवेशन में सरदार पटेल को अध्यक्ष चुना गया।

सविनय अवज्ञा आंदोलन में सरदार पटेल को जब 1932 में गिरफ्तार किया गया तो उन्हें गांधी के साथ 16 माह जेल में रहने का सौभाग्य हासिल हुआ। 1939 में हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में जब देशी रियासतों को भारत का अभिन्न अंग मानने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया तभी से सरदार पटेल ने भारत के एकीकरण की दिशा में कार्य करना प्रारंभ कर दिया तथा अनेक देशी रियासतों में प्रजा मण्डल और अखिल भारतीय प्रजा मण्डल की स्थापना करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
सरदार पटेल की तुलना बिस्मार्क से भी कई आगे करते है क्योंकि बिस्मार्क ने जर्मनी का एकीकरण ताकत के बल पर किया और सरदार पटेल ने ये विलक्षण कारनामा दृढ़ इच्छाशक्ति व साहस के बल पर कर दिखाया। उनके इस अद्वितीय योगदान के कारण 1991 में मरणोपरांत उन्हें भारत रत्न के सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया गया।
Statue of Unity, Sardar Sarovar, Kevdiya, Gujarat.182 Mt. tallest in tbe world

2018 में सरकार ने गुजरात के नर्मदा नदी पर सरदार वल्लभभाई पटेल की 182 मीटर यानी 597 फीट लंबी ऊंचाई वाली गगनचुंबी मूर्ति (दुनिया की सबसे ऊंची विशालकाय मूर्ति) स्टैच्यू ऑफ यूनिटी को मूर्त रूप देकर राष्ट्रीय एकता के प्रतीक पुरुष व देश का गौरव इस तरह लौह पुरुष सरदार पटेल ने अत्यंत बुद्धिमानी और दृढ़ संकल्प का परिचय देते हुए वी.पी. मेनन और लार्ड माउंट बेटन की सलाह व सहयोग से अंग्रेजों की सारी कुटिल चालों पर पानी फेरकर नवंबर 1947 तक 565 देशी रियासतों में से 562 देशी रियासतों का भारत में शांतिपूर्ण विलय करवा लिया।

सवाल पटेल को लेकर भी उठते हैं कि उन्होंने इसका विरोध क्यों नहीं किया। आखिर उनके लिए गांधी महत्वपूर्ण था या देश ? 

पिछले दिनों टाईम मैगजीन ने दुनिया के 100 महत्वपूर्ण पर्यटन स्थलों में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी को भी अहम स्थान दिया है। सरदार पटेल ने देश को एकता के सूत्र में बांधा। एकता का यह मंत्र हमारे जीवन में संस्कार की तरह है और भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में हमें हर स्तर पर, हर डगर पर, हर मोड़ पर, हर पड़ाव पर, एकता के इस मंत्र को मजबूती देते रहना चाहिए। देश की एकता और आपसी सदभावना को सशक्त करने के लिए हमारा समाज हमेशा से बहुत सक्रिय और सतर्क रहा है। सरदार पटेल ने मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया, जिससे जाति और संप्रदाय के आधार पर होने वाले किसी भी भेदभाव की गुंजाइश न बचे। 

अत: हमें भी संप्रदायिक दुराग्रह, धार्मिक भेदभाव एवं जातीय वैमनस्य को भूलाकर देश की राष्ट्रीय एकता एवं सांप्रदायिक सद्भाव को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए संकल्पित होकर अपने दायित्वों का निर्वहन करना चाहिए। क्योंकि किसी राष्ट्र एकता ही उसकी सबसे बड़ी ताकत होती है। एकता के अभाव में किसी भी राष्ट्र की उन्नति और विकास कतई संभव नहीं है।

' एक भारत ' के शिल्पी लौहपुरुष सरदार पटेल
एवं ' श्रेष्ठ भारत ' के शिल्पी नरेंद्र मोदी
सरदार पटेल का कर्मयोग इस प्रतिमा से कंई गुना ऊंचा है लेकिन भारत माता के इस कर्मयोगी को यथोचित सन्मान दिलवाकर सन्मान दिलवाने वाले मोदीजी की कल्पना से मूर्तरूप उनकी प्रतिमा STATUE OF UNITY भारत की ICONIC SYMBOL बने यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि शाबित होंगी।

आज भले ही यह प्रश्न अस्थान है लेकिन कल्पना करो की यदि।आजादी के पश्चात स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल होते तो भारत का मानचित्र और चरित्र क्या होता ???

लेकिन आज हमें सरदार पटेल का स्वप्न साकार होते दिख रहा है और आशा के साथ संपूर्ण विश्वास है की हम होंगे कामयाब एक दिन ...

https://rspngp.blogspot.com/2019/09/blog-post_26.html

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